13.8.16

एंटी चुगलखोरी ड्राप

                         जिनके लिए कोई साहित्यकार लिखता है वो या तो अनपढ़ होता है अथवा अत्यधिक व्यस्त या फिर  इतना अहंकारी मानो सैकड़ो रावण समाए हुए हैं उनमें . आज के दौर में पढ़ने वालों की तादात कम ही है .  
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*गिरीश बिल्लोरे मुकुल*


                                                             
                     मुझे उन चुगली पसन्द लोगों से भले वो जानवर लगतें हैं, जो चुगलखोरी के शगल से खुद को बचा लेते हैं । इसके बदले वे जुगाली करते हैं  । अपने आप को श्रेष्ठ साबित करने वालों को आप किसी तरह की सजा दें न दें कृपया उनके सामने केवल ऐसे जानवरों की तारीफ जरूर कीजिये । कम-से-कम इंसानी नस्ल किसी बहाने तो सुधर जाए। आप सोच रहे होंगें, मैं भी किसी की चुगली कर रहा हूँ, सो सच है परन्तु अर्ध-सत्य है !
                  मैं तो ये चुगली करने वालों की नस्ल से चुगली के समूल विनिष्टीकरण की दिशा में किया गया एक प्रयास करने में जुटा हूँ । अगर मैं किसी का नाम लेकर कुछ कहूँ तो चुगली समझिये । यहाँ उन कान से देखने वाले लोगों को भी जीते जी श्रद्धांजलि अर्पित करना चाहूँगा जो गांधारी बन पति धृतराष्ट्र का अनुकरण करते हुए आज भी अपनी आँखे पट्टी से बांध के कौरवों का पालन-पोषण कर रहें हैं। सचमुच उनकी ''चतुरी जिन्दगी`` में मेरा कोई हस्तक्षेप कतई नहीं है और होना भी नहीं चाहिए ! पर एक फिल्म की कल्पना कीजिए, जिसमें विलेन नहीं हो, हुजूर फिल्म को कौन फिल्म मानेगा ? अपने आप को हीरो-साबित करने के लिए मुझे या मुझ जैसों को विलेन बना के पहले पेश करते हैं । फिर अपनी जोधागिरी का एकाध नमूना बताते हुये यश अर्जित करने के मरे जाते हैं।
                      ऐसा हर जगह हो रहा है हम-आप में ऐसे अर्जुनों की तलाश है, जो सटीक एवं समय पे निशाना साधे हमें चुगलखोरी को दुनियां से नेस्तनाबूत जो करना है आईए हम सब एकजुट हो जाएँ- इन चुगलखोरों के खिलाफ!
                   ''चुगली` का बीजारोपण माँ-बाप करते हैं- अपनी औलादों में बचपने से-एक उदाहरण देखें, ''क्यों बिटिया, शर्मा आंटी के घर गई थी``, ''हाँ मम्मी शर्मा आंटी के घर कोई अंकल बैठे थे``
                     अब 'अंकल और शर्मा आंटी` के बीच फ्रायडी-विजन से देखती मैडम अपनी पुत्री से और अधिक जानकारी जुटाने प्रेरित किया जाओ अंकल का इतिहास, उनकी नागरिकता, उनका भूगोल पता लगाओ और यहीं से शुरू होता है चुगलखोरी का पहला पाठ जहां बालमन में चुगली के वायरस प्रविष्ट कराए जातें हैं ।
                        इसमें केवल माँ ही उत्तरदायित्व निभाती है- ये भी एक तरह का  अर्द्धसत्य है । पूर्ण सत्य यह है कि ''चुगलखोरी के कीड़े के वाहक पिता भी हुआ करते हैं``
मेरे दफ्त़र में आकर चुगली करने वाला पवित्र धवल लिबास में आया वो व्यक्ति मुझे अच्छी तरह याद है, जो मेरे मातहत गाँव में काम करने वाली कर्मचारी से रूष्ट था।
उसकी विजय हुई यह जानकार कि मैं उसकी ''शिकायत उर्फ चुगली`` पर ध्यान दूँगा।
स्वयं गाँव का भ्रमण करने पर पाया कि 'धवल से पवित्र वस्त्र पहनने वाले व्यक्ति के अलावा सारा गांव उस विधवा महिला को देवी की तरह पूजता है और यही उसकी चुगली का मूल कारण है ।
मित्रों, दफ्तरों में, बैठकों में, फोरमस् में, इस प्रयोग को करने से बड़े-बड़े की चुगलखोरों की चुगलखोरी का अंत सहज ही हो जाता है। चुगली कमीने पन गुप का जीवाणु है, जिसने कईयों को तख्त से उठा फेंका है। इसका वाहक बेहद मीठा, आकर्षक, प्रभावशाली व्यतित्व वाली मानवीय काया का धारक हो सकता है। चुगली को कानूनी जामा भी पहनाया गया है  । 
मियाँ फत्ते लाल एंड कंपनी पता नहीं गिरी से काहे खार खाए बैठी थी बस अचानक उनने एक टीम बनाई अपने साथ कई हाँ हुंकारा भरने वालों की एक चार की गारद लेकर मंत्री के पास पहुंचा और खुद को सत्यवादी हरिश्चंद्र का  पुनर्जन्म साबित कर लगा चुगलखोरी करने . बाकायदा चुगली हुई भी पर दीवारों के कान से होते हुए बाकायदा व्हाया कानों कान सर्वव्यापी हो गई .  ये अलग बात है गिरी पर कुछ प्रशासनिक फायर हुए पर ज्यों गिरी ने हूबहू चुगली को बयाँ किया तो सच मानिए हजूर  के बरसों से पीला पलाए तोते फुर्र हो गए इतना ही नहीं मोहल्ले के तोते भी संग साथ फुर्र हुए.  
सियासत का तो मूलाधार है ये चुगलियाँ  । जहाँ सौभाग्यशाली लोगों को ही इससे बच सकने का मौका मिलता है जिनको साक्षात प्रभू का आशीर्वाद मिला हो. वरना  क़मोबेस सभी लोग  इस ''चुगली`` के शिकार हो ही जाते हैं। उधर समाजी रिवायतों की तो मत पूछिए - ''चुगली के बिना संबंध बनते ही नहीं । रहा तंत्र का सवाल सो - ''चुगली को शासन के हित में जारी सूचना की शक्ल में पेश करने वाले अधिकारी कर्मचारी, सफल एवं श्रेष्ठ समझे जाते हैं । अरे हाँ बताना ही भूल गया कि मियाँ याहया खान से लेकर मियाँ परवेज़ मुशर्रफ अब नवाज़ शरीफ तक अपने अपने आकाओं से भारत की चुगलियाँ किया करते हैं जेईच्च इंटरनॅशनल सत्य है.
कारण जो भी हो- चुगली एक खतरनाक रोग है । यदि इसे आप पनपने नहीं देना चाहते ''एण्टी-चुगली-ड्राप`` की दो बूंदे अवश्य देनी होगी । हमें ''पल्स पोलियो`` अभियानों की तरह ''चुगलखोरी उन्मूलन अभियान`` चलाने चाहिए । शासकीय कार्यालयों में इस अभियान के चलाने की बेहद जरूरत है।
मेरे दृष्टिकोण से आप सभी एकजुट होकर इस राष्ट्रीय अभियान को अपना लीजिए। अभियान के लिये-उन एन.जी.ओ. का सहयोग जुटाना न भूलें, जो अपने संगठनों के कार्यो की श्रेष्ठता सिद्ध करने दूसरों की (विशेषकर सरकारी सिस्टम की) चुगली करते हर फोरम पे नज़र आते हैं।
मित्रों! साहित्य, संस्कृति, कला, व्यापार, रोजिया चैनल, आदि सभी क्षेत्रों को लक्ष्य बनाकर हमें चुगली से निज़ात पानी है। और हाँ जो चुगलियाँ गाँव से शहर के दफ्तरों में साहबों के पास लाई जातीं हैं। उनके वाहक भी हमारे प्रमुख लक्ष्य होने चाहिए । 
कैसे पिलाएँ चुगली की दो बूंदे-''सबसे पहले लक्ष्य को पहचानें, उसे कांफिडेन्स में लें`` और उसका मुँह खुलवाएँ । बेहतर ढंग से सुने  । जिसकी चुगली की जा रही है-उसे उसके सामने ले आएँ । फिर हौले से चुगलखोर की कही बातों में से एक दो बातें बूँदों की तरह सार्वजनिक करने की शुरूआत करें।``
इससे चुगलखोर के वस्त्र स्वयम् ही ढीले पड़ने लगेंगें। हाथ पाँव का फूलना, सर झुका लेना, माथा पकड़ना या हड़बड़ाकर ''हाँ...हाँ...हाँ....नहीं...नहीं..`` की रट लगाना बीमारी की समाप्ति के सहज लक्षण होते हैं।
                                                        {लेखक स्वयं एक सरकारी मशीनरी का हिस्सा है }

3.8.16

विकीपीडिया पर देखिये बरबरीक की कहानी

यह कहानी वर्त्तमान परिस्थितियों के अनुकूल है जिसे समझना होगा. विकी पर प्रकाशित इस कथानक का यूट्यूब पर दृश्य अवश्य देखिये  (आभार :- विकी एवं यूट्यूब ) 
बर्बरीक महाभारत के एक महान योद्धा थे। वे घटोत्कच और अहिलावती के पुत्र थे। बर्बरीक को उनकी माँ ने यही सिखाया था कि हमेशा हारने वाले की तरफ से लड़ना और वे इसी सिद्धांत पर लड़ते भी रहे। बर्बरीक को कुछ ऐसी सिद्धियाँ प्राप्त थीं, जिनके बल से पलक झपते ही महाभारत के युद्ध में भाग लेनेवाले समस्त वीरों को मार सकते थे। जब वे युद्ध में सहायता देने आये, तब इनकी शक्ति का परिचय प्राप्त कर श्रीकृष्ण ने अपनी कूटनीति से इन्हें रणचंडी को बलि चढ़ा दिया। महाभारत युद्ध की समाप्ति तक युद्ध देखने की इनकी कामना श्रीकृष्ण के वरदान से पूर्ण हुई और इनका कटा सिर अंत तक युद्ध देखता और वीरगर्जन करता रहा।
कुछ कहानियों के अनुसार बर्बरीक एक यक्ष थे, जिनका पुनर्जन्म एक इंसान के रूप में हुआ था। बर्बरीक गदाधारी भीमसेन का पोता और घटोत्कच के पुत्र थे। [1]
बाल्यकाल से ही वे बहुत वीर और महान योद्धा थे। उन्होंने युद्ध-कला अपनी माँ से सीखी। भगवान शिव की घोर तपस्या करके उन्हें प्रसन्न किया और तीन अभेद्य बाण प्राप्त किये और 'तीन बाणधारी' का प्रसिद्ध नाम प्राप्त किया। अग्निदेव ने प्रसन्न होकर उन्हें धनुष प्रदान किया, जो कि उन्हें तीनों लोकों में विजयी बनाने में समर्थ थे।
महाभारत का युद्ध कौरवों और पाण्डवों के मध्य अपरिहार्य हो गया था, अतः यह समाचार बर्बरीक को प्राप्त हुआ तो उनकी भी युद्ध में सम्मिलित होने की इच्छा जागृत हुई। जब वे अपनी माँ से आशीर्वाद प्राप्त करने पहुँचे तब माँ को हारे हुए पक्ष का साथ देने का वचन दिया। वे अपने लीले घोड़े, जिसका रंग नीला था, पर तीन बाण और धनुष के साथ कुरूक्षेत्र की रणभूमि की ओर अग्रसर हुए।
सर्वव्यापी श्रीकृष्ण ने ब्राह्मण वेश धारण कर बर्बरीक से परिचित होने के लिए उन्हें रोका और यह जानकर उनकी हँसी भी उड़ायी कि वह मात्र तीन बाण से युद्ध में सम्मिलित होने आया है। ऐसा सुनने पर बर्बरीक ने उत्तर दिया कि मात्र एक बाण शत्रु सेना को परास्त करने के लिये पर्याप्त है और ऐसा करने के बाद बाण वापस तरकस में ही आएगा। यदि तीनों बाणों को प्रयोग में लिया गया तो तीनों लोकों में हाहाकार मच जाएगा। इस पर श्रीकृष्ण ने उन्हें चुनौती दी कि इस पीपल के पेड़ के सभी पत्रों को छेदकर दिखलाओ, जिसके नीचे दोनो खड़े थे। बर्बरीक ने चुनौती स्वीकार की और अपने तुणीर से एक बाण निकाला और ईश्वर को स्मरण कर बाण पेड़ के पत्तों की ओर चलाया।
तीर ने क्षण भर में पेड़ के सभी पत्तों को भेद दिया और श्रीकृष्ण के पैर के इर्द-गिर्द चक्कर लगाने लगा, क्योंकि एक पत्ता उन्होंने अपने पैर के नीचे छुपा लिया था, बर्बरीक ने कहा कि आप अपने पैर को हटा लीजिए वरना ये आपके पैर को चोट पहुँचा देगा। श्रीकृष्ण ने बालक बर्बरीक से पूछा कि वह युद्ध में किस ओर से सम्मिलित होगा तो बर्बरीक ने अपनी माँ को दिये वचन दोहराया कि वह युद्ध में उस ओर से भाग लेगा जिस ओर की सेना निर्बल हो और हार की ओर अग्रसर हो। श्रीकृष्ण जानते थे कि युद्ध में हार तो कौरवों की ही निश्चित है और इस पर अगर बर्बरीक ने उनका साथ दिया तो परिणाम उनके पक्ष में ही होगा।
ब्राह्मण वेश में श्रीकृष्ण ने बालक से दान की अभिलाषा व्यक्त की, इस पर वीर बर्बरीक ने उन्हें वचन दिया कि अगर वो उनकी अभिलाषा पूर्ण करने में समर्थ होगा तो अवश्य करेगा। श्रीकृष्ण ने उनसे शीश का दान मांगा। बालक बर्बरीक क्षण भर के लिए चकरा गया, परन्तु उसने अपने वचन की दृढ़ता जतायी। बालक बर्बरीक ने ब्राह्मण से अपने वास्तिवक रूप से अवगत कराने की प्रार्थना की और श्रीकृष्ण के बारे में सुनकर बालक ने उनके विराट रूप के दर्शन की अभिलाषा व्यक्त की, श्रीकृष्ण ने उन्हें अपना विराट रूप दिखाया।
उन्होंने बर्बरीक को समझाया कि युद्ध आरम्भ होने से पहले युद्धभूमि की पूजा के लिए एक वीरवर क्षत्रिए के शीश के दान की आवश्यकता होती है, उन्होंने बर्बरीक को युद्ध में सबसे वीर की उपाधि से अलंकृत किया, अतएव उनका शीश दान में मांगा। बर्बरीक ने उनसे प्रार्थना की कि वह अंत तक युद्ध देखना चाहता है, श्रीकृष्ण ने उनकी यह बात स्वीकार कर ली। फाल्गुन माह की द्वादशी को उन्होंने अपने शीश का दान दिया। उनका सिर युद्धभूमि के समीप ही एक पहाड़ी पर सुशोभित किया गया, जहाँ से बर्बरीक सम्पूर्ण युद्ध का जायजा ले सकते थे।
युद्ध की समाप्ति पर पांडवों में ही आपसी बहस होने लगी कि युद्ध में विजय का श्रेय किसको जाता है, इस पर श्रीकृष्ण ने उन्हें सुझाव दिया कि बर्बरीक का शीश सम्पूर्ण युद्ध का साक्षी है, अतएव उससे बेहतर निर्णायक भला कौन हो सकता है? सभी इस बात से सहमत हो गये। बर्बरीक के शीश ने उत्तर दिया कि श्रीकृष्ण ही युद्ध मे विजय प्राप्त कराने में सबसे महान कार्य किया है। उनकी शिक्षा, उनकी उपस्थिति, उनकी युद्धनीति ही निर्णायक थी। उन्हें युद्धभूमि में सिर्फ उनका सुदर्शन चक्र घूमता हुआ दिखायी दे रहा था जो कि शत्रु सेना को काट रहा था, महाकाली, दुर्गा श्रीकृष्ण के आदेश पर शत्रु सेना के रक्त से भरे प्यालों का सेवन कर रही थीं।

1.8.16

चंद शेर करीब दोस्तों के लिए

शायर नहीं मुकुल कह देना है लोहार !!

जिसको मेरी मैयत में चलने का शौक था 
मेरी तीमारदारी में सब आए उसके बाद ।
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पट्टी चला दो या कि अखबारों में भर दो
ज़िंदा ही रहेगा मुकुल हर कोशिशों के बाद ।
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मेरी लाश का मुतमईन मुआयना किया
डर था उसे गोया कि ज़िंदा तो मैं नहीं ।
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सागर ज़मीन फलक चाँद और सितारे
सब कुछ लुटाया मुझपे जब काम कोई था !
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कुछ तंज़ शेर दोस्तों ने मेरे क्या सुने
कहने लगे मुकुल जी, चलो कहवा घर चलें ?
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दिल पे लगी हो बात तो सह लेना मेरे यार
शायर नहीं मुकुल कह देना है लोहार !!
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*गिरीश बिल्लोरे “मुकुल”*


30.7.16

सर्वदा होती हो तुम माँ

सर्वदा  होती हो तुम माँ
हाँ
भाव के प्रभाव में नहीं
वरन सत्य है मेरा चिंतन
तुम सदा माँ हो ... माँ हो माँ  हो
तुम .... विराट दर्शन कराती हो कृष्ण को
क्योंकि तुम खुद विराट हो...
विराट दर्शाना माँ
जब किसी माँ को
स्तनपान कराते देखता हूँ
तो रोमांचित हो अपलक देखता ही रह जाता हूँ..
सव्यसाची तुम बहुत याद आती हो ........
पूरे विश्व शिशु को
क्षुधा मिटाती माँ
तुम्हारी शत-शत वन्दना क्यों न करूँ ?
सुहाती नहीं है कोई वर्जना
तुम अहर्निश करती जो अमिय-सर्जना
माँ
सोचता हूँ

विराट तुम ही है.. 

28.7.16

किसी ने न दिया था आशीर्वाद पुत्रीवती भव:


मेरी बेटी Shivani Billore 6 महीने विदेश में रहेगी ... खुशी इस बात की नहीं है मुझे बल्कि खुश इस लिए हूँ कि वो मेरे एक गीत ( "मधुर सुर न सुनाई दे जिस घर में वो घर कैसा"  ) को अर्थ दे रही है..
"वो बेटी ही तो होती है कुलों को जोड़ लेती है
अगर अवसर मिले तो वो मुहाने मोड़ देती है
युगों से बेटियों को तुम परखते हो न जाने क्यूं..?
जनम लेने तो दो उसको जनम-लेने से डर कैसा..?
और
#अमेया वो हमारे कुल की बेटी जो पहली US नागरिक है.....
बड़ी बात क्या है........
बड़ी बात ये है कि - "दौनों बेटियाँ ही तो हैं "
                                            ::::::::::::::::::::::::::::::::
ये 1999 की एक यादगार तस्वीर है . मेरी बेटियों ने अपनी ममेरी बहनों के साथ तस्वीर खिंचवाई मुझे याद है दफ्तर से लौट कर इनसे निपटना बड़ा मुश्किल काम हुआ करता था. इस आलेख के लिखे जाने के ठीक 17 बरस पहले ... हम दौनों के पीछे फोटो खिंचवाने वाली ये बेटियाँ बेटों से कम कहाँ ..? बेटे न हमारे हैं न बच्चों के मामा जी के ..... लोगों से खूब आशीर्वाद मिले - पुत्रवती भव: कहा.. श्रीमती जी को व्रत-उपवास, आराधना के .. पर कोई नुस्खा काम न आया..  आशीर्वाद का असर अवश्य हुआ... चारों आज  बेटियाँ हमसे आगे हैं ..
                                          :::::::::::::::::::::::::::::::::::
   जब हम दंपत्ति हुए हमने जिसको भी प्रणाम किया तब सब यही आशीर्वाद देते थे  - मुझे - आयुष्मान भव: और श्रीमती को पुत्रवती भव:  सच कहूं सोचता था कोई ये क्यों नहीं कहता - " पुत्रीवती भव: "  ऐसा आशीर्वाद न देना उनकी सामाजिक मज़बूरी हो सकती है .... परन्तु हममें साहस होना चाहिए यह  कहने का..! एक बार शुरू तो करिए देखना बदलाव सहज ही नज़र आएँगे ...  

24.7.16

हम न चिल्लर न थोक रहे .!!

प्रिय से मिलना जो पूजा है, लोग हमें क्यों रोक रहे .
हिलमिल के पूजन कर लें, दर्द रहे न शोक रहे . !
जब जब मौसम हुआ चुनावी, पलपल द्वार बजाते थे-
जैसे ही ये मौसम बदला,हम  चिल्लर न थोक रहे .!!
बहन-बेटियाँ पेश करो ! शर्म न आई बेशर्मो –
भीड़ के जाहिल देखो कैसे जोर से ताली ठोक रहे ..?
लाखों प्राण निगलने वाले- झुलसाते हैं घाटी को –
बाईस इनके मरे तो देखो कैसे छाती ठोक रहे ?
मनमानस के बंटवारे को, कैंची जैसी चली जुबां -
लाल माई के अब तो जागो- वो पथ में गढ्ढे खोद रहे . 

21.7.16

वक्त कम है, बहुत काम मुझे जाने दे !!

बहुत मसरूफ हूँ , मत रोक मुझे जाने दे !
वक्त कम है,  बहुत  काम ! मुझे जाने दे    !!
मैं  तो उसमें समाना चाहता हूँ...
वो लहर जा रही है मत रोक चले जाने दे !!
बहुत हैं मुद्दे जो बातों से नहीं सुलझेंगे-
साफ़ होंगें सभी मसले वक्त आने दे !!
उस दरगाह से उठ फुर्र हुई गौरैया -
चुग्गा मंदिर में दिखा जाके उसे खाने दे !!
सांझ टीवी पे जुड़े लोग हल्ले वाले -  
गीत कबिरा और  मीरा के मुझे गाने दे .


Wow.....New

धर्म और संप्रदाय

What is the difference The between Dharm & Religion ?     English language has its own compulsions.. This language has a lot of difficu...