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अंतरात्मा की आवाज़

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मत कहो अंतरात्मा की आवाज़ सुनो मैंने सुनी हैं ये आवाजें बहुत खतरनाक हैं भयावह हैं तुम हिल जाओगे बचाव के रास्ते न चुन पाओगे पहले तुम अंतरात्मा की आवाज़ सुनो गुणों चिंतन करो आगे बढ़ो मुझे न सिखाओ न मैं बिना गले वाला हूँ मेरे पास सुर हैं संवाद है आत्मसाहस है जो जन्मा है मेरे साथ बोलूंगा अवश्य अंतर आत्मा की आवाज़ पर तुम सुन नहीं पाओगे मेरी अंतरात्मा से निकलीं आवाजें जो तुम्हारी हैं भयावह भी जो तुम्हारी छवि खराब करेगी तुम्हारे बच्चे डरेंगे मुझे इस बात की चिंता है ... **गिरीश बिल्लोरे “मुकुल”  

हर अपराधी के भीतर एक पीड़ित छुपा होता है- श्री श्री रविशंकर

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वर्षों से कलहग्रस्त दक्षिणी अमेरिका देश कोलंबिया ने शांति के बल को नमन किया। शांति कायम करने के लिये इस देश में किये गये शांति कार्यों की गूंज कोलंबियन संसद में गूंजी और वहां की संसद के सभापति ने देश के सर्वोच्च पुरुस्कार से श्री श्री रविशंकर को सम्मानित किया। इसके अलाव वे पहले ऐसे एशियन भी बन गए हैं जिन्हें दक्षिण अमेरिका के एक और देश पेरू ने भी तीन-तीन सम्मानों से सम्मानित किया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी ट्विटर के जरिए श्री श्री को इस सम्मान की बधाई दी।                               कोलंबिया ने शांति प्रयासों के लिए दिया सर्वोच्च सम्मान श्री श्री ने इस सम्मान लेते  हुए कहा कि -"मैं वादा करता हूं कि मैं कोलंबिया की कलह को शांत करने के लिये मेरी क्षमता के अनुरूप कार्य अवश्य करुंगा। यह पुरुस्कार श्री श्री की संस्था , आर्ट ऑफ लिविंग के माध्यम से कोलंबिया में किये गये कार्यों के लिये दिया गया है। हिंसामुक्त और तनावमुक्त विश्व निर्माण के प्रति संकल्प को दोहराते हुये , श्री श्री ने यह पुरुस्कार उन लोगों को समर्पित किया , जो अहिंसा के लिये कार्य कर रहे हैं। श्री श्री

झुर्रियों वाले चेहरे पे गज़ब की रौनक

संगमरमर को काट के निकलीं बूंद निकली तो ठाट से निकलीं   🌺 🌺 शाम की बस से बेटी लौटी है ! मिलने सखियों को ठाट से निकली !! 🌺 🌺 बंद ताबूत में थी इक “ चाहत ” ! एक आवाज़ काठ से निकली !! 🌺 🌺 बद्दुआएं लबों पे सबके है - नेकियां किसकी गांठ से निकली !! 🌺 🌺 एक है रब सभी को है यकीं   गोली फिर किस के हाथ से निकली ? 🌺 🌺 झुर्रियों वाले चेहरे पे गज़ब की रौनक मोहल्ले भर में ईदी , वो बाँट के निकली !! 🌺 🌺   शाम की बस से बेटी लौटी है !   मिलने सखियों से ठाट से निकली !! 🌺 🌺

हिंसा क्यों.....?

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पोस्टर कविता : शशांक गर्ग  हिंसा के बारे में सामान्य सोच ये है कि – हिंसा में  किसी के खिलाफ शारीरिक मानसिक यंत्रणा के लिए शारीरिक बल प्रयोग निरायुध एवं सायुध अथवा  शाब्दिक बल प्रयोग किया जाता है . सत्य ही है ऐसा होता ही इस बिंदु पर किसी की असहमति नहीं यहाँ चिंतन का विषय है -  “हिंसा क्यों ?”       हिंसा कायिक एवं मानसिक विकृति है . जो भय के कारण जन्म लेती है . भय से असुरक्षा ... असुरक्षा से सुरक्षित होने के उपायों की तलाश की जाती है . तब व्यक्ति के मानस में तीन  बातें विकल्प के रूप में सामने आनी चाहिए – 1.     परिस्थिति से परे हटना 2.     सामने रहकर प्रतिरोध को जन्म देना 3.     आसन्न भय के स्रोत को क्षतिग्रस्त करना    प्रथम द्वितीय विकल्प समझदार एवं विचारक चिन्तक उठाते हैं किन्तु सहज आवेग में आने वाले  लोग तीसरे विकल्प को अपनाते हैं . विश्व मिथकों में , इतिहास में ऐसे लोगों की संख्या का विवरण मौजूद  है . इससे मनुष्य प्रजाति में पशुत्वगुण की मौजूदगी की भी पुष्टि होती है . पशु विशेष रूप से कुत्ता जिसे आप स्वामिभक्त मानते हैं महाभारत काल से  तो उसके स्वामिभक्ति के गुण

मत पालो किसी में ज़रा सा भी ज्वालामुखी

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मैं अपराजित हूँ  वेदनाओं से  चेहरे पर चमक  लब पर मुस्कान  अश्रु सागर शुष्क  नयन मौन   पीढ़ा जो नित्याभ्यास है  पीढ़ा जो मेरा विश्वास है .  जागता हूँ  सोता हूँ  किन्तु खुद में  नहीं   खोता हूँ ! इस कारण  मैं अपराजित हूँ  जीता हूँ जिस्म की अधूरी  संरचना के साथ  जीतीं हैं कई  स्पर्धाएं और प्रतिघात  विस्मित हो मुझे क्यों देखते हो ? तुम क्या जानो  जब ज्वालामुखी सुप्त है  लेलो मेरी परीक्षा ...! याद रखो जब वो फटता है तो  .......... जला देता है जड़ चेतन सभी को  मत पालो किसी में ज़रा सा भी ज्वालामुखी     

मुझे चट्टानी साधना करने दो

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 रेवा तुम ने जब भी तट सजाए होंगे अपने तब से नैष्ठिक ब्रह्मचारिणी चट्टाने मौन हैं कुछ भी नहीं बोलतीं हम रोज़ दिन दूना राज चौगुना बोलतें हैं अपनों की गिरह गाँठ खोलते हैं ! पर तुम्हारा सौन्दर्य बढातीं ये चट्टानें   हाँ रेवा माँ                                           ये चट्टानें  बोलतीं नहीं कुछ भी कभी भी कहीं भी बोलें भी क्यों ...! कोई सुनाता है क्या ? दृढ़ता अक्सर मौन रहती है मौन जो हमेशा समझाता है कभी उकसाता नहीं मैंने सीखा आज संग-ए-मरमर की वादियों में इन्ही मौन चट्टानों से ... "मौन" देखिये कब तक रह पाऊंगा "मौन" इसे चुप्पी साधने का आरोप मत देना मित्र मुझे चट्टानी साधना करने दो खुद को खुद से संवारने दो !!  

चार कविताएँ

(1)  ज़्यादातर मौलिक नहीं “सोच”   सोच रहा होता हूँ सोचता भी कैसे प्रगतिशीलता के खेत में मौलिक सोच की फसल उगती ही नहीं . (2) सोचता हूँ गालियाँ देकर उतार लूं भड़ास ..? पर रोज़िन्ना सुनता हूँ तुम गरियाते हो किसी को बदलाव फिर भी नज़र नहीं आता !! (3) जिस दूकान पर मैं बिका सुना है .. तुम भी उसी दूकान से बिके थे ? बिको जितना संभव हो वरना जब मरोगे तब कौन खरीदेगा सिर्फ जलाने दफनाने के लायक ही रहोगे आज बिको पैसा काम आएगा  ! (4) पापा आप जो रजिस्टर दफ्तर से लाए थे बहुत काम आया कल उसमें मैंने लिखी थी ईमानदारी पर एक कविता सबको बहुत अच्छी लगी मुझे एवार्ड भी मिला ये देखो ? मैं उसका एवार्ड   देख न पाया !!