13.7.13

7 वें अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन पर एक रिपोर्ट : आशीष कंधवे

वेब पत्रिका से साभार 
                       सेम रिप, कम्बोडिया, 17 जून, 2013 21वीं सदी के पहले दशक के हिंदी साहित्य, भाषा और इतिहास के विकास की चर्चा एवं अवलोकन करते हैं तो छत्तीसगढ़ राज्य की राजधानी रायपुर स्थित संस्था सृजनगाथा डॉट कॉमके योगदान को स्वीकारना आवश्यक हो जाता है। वैसे तो हिंदी के उद्भव, शैशव एवं वर्तमान, सभी दौर में छत्तीसगढ़ राज्य (पूर्व में वृहद् मध्य प्रदेश) ने यथासंभव योगदान हिंदी के प्रचार-प्रसार एवं उन्नयन में दिया है। हिंदी के प्रचार-प्रसार एवं साहित्य संवर्धन के लिए वैसे तो कई संस्थाएं देश भर में सराहनीय कार्य कर रही हैं परन्तु श्री जयप्रकाश मानस द्वारा स्थापित संस्था सृजनगाथा देश ही नहीं अपितु विश्व के अनेक देशों में हिंदी को प्रतिष्ठित तथा प्रचलित करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली संस्था के रूप में अपनी पहचान बनाने में सफल रही है।
प्रयास व्यक्तिगत अथवा सामूहिक जो भी हो, परिप्रेक्ष्य सिर्फ एक ही होना चाहिए-हिंदी का उन्नयन। अनेकों ऐसे उदाहरण हैं जिसमें व्यक्तिगत प्रयास ने हिंदी के संवर्धन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, परन्तु सामूहिक प्रयासों का अपना विशिष्ट महत्व होता है। योजनाबद्ध ढंग और शीघ्रता के साथ प्रयास सामूहिक ही हो सकता है जिसके लिए संस्थाएं अपनी महत्तर भूमिका निभाती रही हैं।
सृजनगाथा डॉट कॉमहिंदी की सृजनगाथा में अनेक संस्थाओं को सहयोगी संस्था के रूप में शामिल करके उद्देश्यों एवं कार्यों को गति दी है तथा सामूहिक प्रयासों को सफलता के लक्ष्य तक पहुंचाया है। आयोजन की सहयोगी संस्थाओं के रूप में चर्चित साहित्यिक पत्रिका आधुनिक साहित्यनई दिल्ली, वीणा कैसेट्स जयपुर, प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान रायपुर, लोकसेवा संस्थान रायुपर,दैनिक उजाला भारत बाडमेर ने सातवें अन्तरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन (14-24 जून, 2013, कम्बोडिया-वियतनाम-थाईलैंड) में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
सम्मेलन का उद्घाटन दिनांक 17 जून, 2013 को कम्बोडिया के ऐतिहासिक शहर सेम रिप के होटल पैसेफिक के भव्य सभागार में शुरू हुआ। कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में राजस्थान से आये वरिष्ठ जनसंचार विशेषज्ञ एवं सृजनगाथा डॉट कॉमके मुख्य संरक्षक डॉ. अमर सिंह राठौर मंच पर शोभायमान थे, वहीं अध्यक्षता मुंबई से आयीं सुप्रसिद्ध कथाकार एवं साहित्यकार श्रीमती संतोष श्रीवास्तव ने किया। कार्यक्रम को गरिमा प्रदान करने के लिए विशिष्ट अतिथि के रूप में मंच पर रायपुर से आये राजा समुद्र सिंह, प्रसिद्ध राजस्थानी गीतकार श्री कल्याण सिंह राजावत, वरिष्ठ पत्रकार-कवि राकेश अचल, उत्तराखण्ड भाषा संस्थान की निदेशिका डॉ. सविता मोहन, एवं दिल्ली से पधारीं कवयित्री-चित्रकार श्रीमती संगीता गुप्ता भी मंच पर मौजूद थी। कार्यक्रम का संचालन कवि एवं आधुनिक साहित्य के संपादक आशीष कंधवे ने बड़ी कुशलता से किया।
सृजनगाथा डॉट कॉम को 2.25 लाख का सम्मान
मुख्य अतिथि डॉ. अमर सिंह राठौर ने अपने उद्बोधन में सृजनगाथा डॉट कॉमके द्वारा किये जा रहे प्रयासों की भूरि-भूरि प्रशंसा की और यह आश्वासन भी दिया कि संस्था को हिंदी के विकास, वर्चस्व एवं विस्तार के लिए जो भी आवश्यकता होगी उसकी पूर्ति की जाएगी जिससे संस्थान निरन्तर अपनी सेवाएं राष्ट्रहित में देती रहें। उन्होंने सृजनगाथा डॉट कॉमको एक लाख रुपये की सहायता राशि भी देने की घोषणा की। छत्तीसगढ़ से पधारे वरिष्ठ हिंदी सेवी, प्रशासनिक अधिकारी राजा समुद्र सिंह ने भी सृजनगाथा डॉट कॉम के द्वारा किये जा रहे प्रयासों को गति देने के लिए सवा लाख रुपए का आर्थिक सहयोग देने की घोषणा की।
कार्यक्रम की अध्यक्षता करतीं हुईं डॉ. संतोष श्रीवास्तव ने कहा कि सृजनगाथा एवं सभी संस्थाएं जो इस कार्यक्रम में सहयोग कर रही हैं वह अपने-अपने प्रांत की अग्रणी संस्थाएं हैं। बिना किसी सरकारी अनुदान अथवा सहयोग के इस सभी संस्थाओं द्वारा किये जा रहे प्रयास अत्यन्त सराहनीय हैं। मैं इस सभी संस्थाओं के उज्ज्वल भविष्य की कामना करती हूं।
दर्जनों भर किताबों का लोकार्पण
उद्घाटन सत्र में कई महत्वपूर्ण पुस्तकों का लोकार्पण भी हुआ जिसमें मुख्य रूप से हिंदी का सामथ्र्य-आलेख संग्रह (संपादक-जयप्रकाश मानस एवं आशीष कंधवे), बारह सत्ते चैरासी-काव्य संग्रह (संपादक-आशीष कंधवे), नीले पानियों की शायराना हरारत-संस्मरण (संतोष श्रीवास्तव), मेरी प्रिय कहानियां-कहानी संग्रह (हेमचंद्र सकलानी), कुँहासे के बाद-कविता संग्रह (डॉ. कल्पना वर्मा),आधुनिक साहित्य-जुलाई-सितम्बर 2013 अंक (संपादक-आशीष कंधवे), समिधा-कहानी संग्रह (उदयवीर सिंह), सच बोलने की सजा-कविता संग्रह (डॉ. सुनील जाधव), विपथगा-उपन्यास (मृदुला झा), सृजन-सौंदर्य-समीक्षा (भगवान भास्कर), एक कहानी ऐसी भी-कहानी संग्रह ( डॉ. सुील जाधव), मन की पतंगें-कविता संग्रह (प्रवीण गोधेजा), दरवाजे के उस पार-कविता संग्रह (प्रवीण गोधेजा), यादों से संवाद-कविता संग्रह (रेणु पंत), मानस जीवन शूल भरा-आत्मकथा (भगवान भास्कर), लेखन-अर्द्धवार्षिक पत्रिका (सह-संपादक मोतीलाल) एवं स्वर सरिता-मासिक पत्रिका (प्रबंध संपादक हेमजीत मालू) हैं।
श्री राजेश्वर आनदेव ने उद्घाटन सत्र में पधारे सभी विशिष्ट अतिथियों एवं सभागार में उपस्थित सभी प्रतिभागियों, रचनाकारों,लेखकों एवं भाषाविदों का धन्यवाद ज्ञापन बड़े ही मनोयोगपूर्ण ढंग से किया।
भूमण्डलीकरण और हिंदी विषय को लेकर द्वितीय सत्र में मुख्य अतिथि वरिष्ठ साहित्यकार एवं व्यंग्यकार डॉ. हरीश नवल मंच पर उपस्थित थे। सत्र की अध्यक्षता बीकानेर से आये हिंदी के विद्वान श्री देवकृष्ण राजपुरोहित ने किया। विशिष्ट अतिथि के रूप में वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती अजित गुप्ता, स्वामी शिवज्योतिषानंद, प्रवासी संसार के संपादक श्री राकेश पाण्डेय एवं श्री सुशील कुमार गुप्ता भी मंच पर उपस्थित थे। सुरुचिपूर्ण संचालन डॉ. अनुपम आनंद ने किया जो इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग के अध्यक्ष हैं।
इस सत्र में देश के अनेक विश्वविद्यालयों, संस्थाओं, अखबारों से आये हिंदी सेवियों ने अपने-अपने आलेखों का पाठ किया और हिंदी के वर्तमान परिदृश्य से सभागार में उपस्थित सभी लोगों को अवगत कराया।
सत्र के मुख्य अतिथि के रूप में बोलते हुए डॉ. हरीश नवल ने बड़ा ही ओजस्वी उद्बोधन दिया जिससे सभागार में उपस्थित सभी प्रतिभागी मंत्रमुग्ध हो गये। उन्होंने कहा कि भाषा और संस्कृति एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। भाषा बचेगी तो संस्ड्डति संरक्षित रहेगी और संस्कृति संरक्षित रहेगी तो भाषा बचेगी। जरूरत दोनों को बचाने की है जिसकी बागडोर युवाओं के हाथों में है। डाॅ. नवल ने जयप्रकाश मानस द्वारा किये जा रहे भागीरथी प्रयास को समाज के लिए एक अनुपम उदाहरण बताया तथा सृजनगाथा और सभी सहयोगी संस्थाओं को इस बात के लिए साधुवाद भी दिया कि इस भोगवादी, पश्चिमवादी समय में भी आप अपने निजी प्रयासों से संस्कृति एवं भाषा के संवर्धन एवं संरक्षण के लिए इतना बड़ा प्रयास कर रहे हैं।
दरख़्तों के साये में धूप
तृतीय सत्र अर्थात् सांगीतिक सत्र का आरंभ दुष्यंत कुमार की ग़ज़लों से हुआ। जहां प्रख्यात संगीतकार कल्याण सेन द्वारा प्रख्यात ग़ज़लगो दुष्यंत कुमार की रचना दरख़्तों के साये में धूपनामक आयोजन में प्रस्तुत इस गायन ने सभी को गुनगुनाने के लिए मजबूर कर दिया वहीं सत्यप्रकाश झा के द्वारा हरिवंशराय की रचना मधुशालाकी प्रस्तुति भी सराहनीय थी। जयपुर की जानीमानी कोरियोग्राफर श्रीमती चित्रा जांगिड़ द्वारा प्रस्तुत राजस्थानी लोकनृत्य और छत्तीसगढ़ की सुपरिचित कलाकार ममता अहार द्वारा प्रस्तुत मीरा पर अभिकेंद्रित एक नृत्य नाटिका ने सबका मन मोह लिया। श्री अरविन्द मिश्र और अहफाज रशीद के कुशल संचालन ने सांस्कृतिक सत्र को विशेष बना दिया।
हवा हूं हवा मैं
चतुर्थ सत्र अन्तर्राष्ट्रीय रचना पाठ का सत्र था। वरिष्ठ गीतकार श्री कल्याण सिंह राजावत इस सत्र के मुख्य अतिथि थे वहीं वरिष्ठ हिंदी साहित्यकार कर्नल रतन जांगिड़ कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे थे। मंच की शोभा विशिष्ट अतिथि के रूप में श्री मथुरा कालोनी, अरविन्द सिंह रावत, मशहूर उद्योगपति श्री हेमजीत मालू, वरिष्ठ साहित्यकार श्री कृष्ण नागपाल तथा दिल्ली के वरिष्ठ समाजसेवी एवं सुन्दरलाल जैन अस्पताल के अध्यक्ष श्री वीरेन्द्र कुमार जैन ने बढ़ाई तथा सिद्धहस्त संचालन शायर मुमताज के हाथों में था।
जहां प्रमिला वर्मा, हेमचन्द सकलानी, मृदुला झा, उदयवीर सिंह, कृष्ण नागपाल और कर्नल रतन जांगिड़ ने अपनी-अपनी कहानी का पाठ किया वहीं विख्यात व्यंग्यकार डॉ. हरीश नवल ने अपने विशिष्ट अंदाज में व्यंग्य का पाठ कर सभागार को सम्मोहित कर दिया। श्री मथुरा कालोनी ने अपने नाटक का अंश पढ़ा। कल्याण सिंह राजावत, सविता मोहन, आशीष कंधवे, संगीता गुप्ता, सुधा नवल, टी.डी. चोपड़ा, पुष्पा गोस्वामी, अरविन्द मिश्रा, अजित गुप्ता, रेणु पंत, भगवान भास्कर, राजश्री रावत, चेतना भारद्वाज, संदीप तिवारी, शोभना मित्तल, अलका मोहन, आभा चौधरी, प्रवीण गोधेजा, संतोष श्रीवास्तव, विद्या सिंह, शोभा मुंगेर, राजकुमार मुंगेर और महराजीलाल साहू के गीत, ग़ज़ल और मुक्त छंद की कविताओं ने सभी का मन मोह लिया।
वैसे तो सभी ने अपने-अपने अंदाज में रचनाओं का पाठ किया परन्तु विशेष रूप से जयप्रकाश मानस द्वारा प्रस्तुत केदारनाथ अग्रवाल की कविता हवा हूं, हवा मैं बंसती हवा हूंकी विशिष्ट प्रस्तुति हर किसी के दिल में अलग से स्थान बनाने में सफल रही। कुशल संचालक मुमताज की ग़ज़लों को भी लोगों ने खूब सराहा।
रचनाकारों को प्रमोद वर्मा सम्मान
पंचम तथा अंतिम सत्र अलंकरण समारोह की अध्यक्षता रायपुर-छत्तीसगढ़ से आये राजा समुद्र सिंह ने किया तथा विख्यात संगीतकार कल्याण सेन मुख्य अतिथि थे। अलंकरण समारोह को विशिष्टता प्रदान करने के लिए मंच पर श्री अमर सिंह राठौर,हरीश नवल, संतोष श्रीवास्तव, सविता मोहन, देवकृष्ण राजपुरोहित, राजेश आनदेव तथा उमेश पाण्डेय मौजूद थे। संचालन पुणे से आये चन्द्रकांत मिशाल तथा आकाशवाणी भोपाल से आयीं चेतना भारद्वाज ने बड़े ही सुरुचिपूर्ण ढंग से किया। इस सत्र में सभी प्रतिभागियों को स्मृति-चिन्ह एवं प्रशस्ति पत्र प्रदान किया गया। इस सत्र में सभी प्रतिभागी रचनाकारों को प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान की पहल पर प्रमोद वर्मा सम्मानसे विभूषित किया गया
यात्रा को रोमांचक बनाने के लिए थाइलैंड, कम्बोडिया और वियतनाम के लगभग सभी महत्वपूर्ण तथा ऐतिहासिक महत्व के स्थानों का भ्रमण भी शामिल किया गया था। जहां कम्बोडिया के सीएम रिप शहर में स्थित अंकोरवट के मंदिर को देखना इस यात्रा की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि रही वहीं वियतनाम के हो ची मिंच सिटी के नजदीक स्थित युद्धक्षेत्र को देखना भी अत्यन्त रोमांचकारी था। इसके अलावा कम्बोडिया की राजधानी नोम फेन, पोए पेट् तथा सीएम रिप, वियतनाम का व्यावसायिक शहर हो ची मिंच सिटी तथा थाईलैंड की राजधानी बैंकाक एवं पटाया को देखना भी महत्वपूर्ण रहा। समग्रता में कहें तो यह यात्रा साहित्यिक रूप से समृद्ध तो थी ही सांस्कृतिक पर्यटन के दृष्टिकोण से भी अत्यन्त सफल रही।
8 वाँ अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन - मास्को में

सृजन-सम्मान सृजन गाथा डॉट कॉम द्वारा यह भी घोषणा की गई है कि रायपुर, बैंकाक, मारीशस, पटाया, ताशकंद (उज्बेकिस्तान), संयुक्त अरब अमीरात तथा कंबोडिया- वियतनाम में सात अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलनों के सफलतापूर्वक आयोजन के पश्चात 8 वाँ अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन मास्को एवं सैंट पीटरबर्ग (रूस) में 11 अप्रैल 2014 से किया जायेगा जो समाजवादी दर्शन के जनक कार्ल मार्क्स और लेनिन को समर्पित होगा

12.7.13

कालजयी रचनाकार फ्योदोर दोस्तोयेवस्की...फ़िरदौस ख़ान

फ्योदोर दोस्तोयेवस्की
मशहूर रूसी लेखक फ्योदोर दोस्तोयेवस्की की गिनती शेक्सपियर, दांते, गेटे और टॉलस्टॉय जैसे महान लेखकों के साथ होती है. फ्योदोर दोस्तोयेवस्की का जन्म 11 नवंबर, 1821 को रूस के मास्को शहर में हुआ था. उनके पिता मिखाईल अंद्रयेविच मास्को के मारीइंस्काया नामक खैराती अस्पताल में चिकित्सक थे. वह समाज के धार्मिक तबक़े से संबंध रखते थे और 1828 में उन्हें कुलीनों की श्रेणी मिली. 1831-1832 में उन्होंने तूजर गुबेर्निया में छोटी सी जागीर ख़रीद ली. किसानों के साथ उनका बर्ताव बहुत बुरा था, जिसकी वजह से उनके नौकरों ने 1836 में उनका क़त्ल कर दिया. फ्योदोर दोस्तोयेवस्की की मां का स्वभाव अपने पति के स्वभाव से बिल्कुल उलट था. वह धार्मिक विचारों वाली सभ्य और सुसंस्कृत महिला थीं. उनका देहांत 1837 में हुआ. फ्योदोर दोस्तोयेवस्की के बड़े भाई मिखाईल उनसे बहुत स्नेह करते थे. फ्योदोर दोस्तोयेवस्की ने 1838 में पीटर्सबर्ग के सैन्य-इंजीनियरी विद्यालय में दाख़िला लिया. यहां से पढ़ाई पूरी करने के बाद 1843 में वह सेना में भर्ती हो गए, लेकिन एक साल बाद उन्होंने नौकरी छो़ड दी और सारा वक़्त साहित्य को समर्पित कर दिया.
फ्योदोर दोस्तोयेवस्की के 1845 में प्रकाशित पहले लघु उपन्यास दरिद्र नारायण से उन्हें बेहद कामयाबी मिली. उनकी गिनती मशहूर यथार्थवादी लेखकों की जमात में होने लगी. उनके समकालीन रूसी समालोचक विस्सारिओर बेलीन्सको ने दरिद्र नाराय के बारे में लिखा था-युवा लेखक ने रूसी साहित्य में पहली बार छोटे व्यक्ति के भाग्य को सामाजिक त्रासदी के रूप में अभिव्यक्ति दी है और अधिकारहीन और भूले-बिसरे व्यक्तित्व में गहन मानवीयता का उद्‌घाटन किया है. कुछ वक़्त बाद 1848 में उनका लघु उपन्यास रजत रातें और इसके एक साल बाद 1849 में नेतोच्का नेज्वानोवा प्रकाशित हुआ. इन उपन्यासों में यथार्थवाद के वे लक्षण उभरकर सामने आए, जिन्होंने फ्योदोर दोस्तोयेवस्की को अपने समकालीन लेखकों से अलग दर्जा दिया.
वह 1847 से पांचवें दशक के मुक्ति आंदोलन के एक अहम कार्यकर्ता पेत्रोशेवस्की के मंडल में जाने लगे. इस मंडल में काल्पनिक समाजवादियों की रचनाओं का अध्ययन किया जाता था और 1848 की फ़्रांसीसी क्रांति के विचारों पर चिंतन-मनन किया जाता था. इसका उनके लेखन पर असर प़डा. पेत्राशेवस्की के मंडल के अन्य सदस्यों के साथ फ्योदोर दोस्तोयेवस्की को 23 अप्रैल, 1849 को गिरफ्तार करके पीटर पाल के क़िले में बंद कर दिया गया. उन्हें मौत की सज़ा सुनाई गई. उन्हें गोली मारने से कुछ ही लम्हे पहले ज़ार निकोलाई प्रथम के आदेश पर उनकी मौत की सज़ा को चार साल के निर्वासन (1850-1854) और निर्वासन काल के ख़त्म होने पर आम  सैनिक के तौर पर सैन्य सेवा में बदल दिया गया. 1856 में फ्योदोर दोस्तोयेवस्की को साइबेरिया से पहले त्वेर औरफिर पीटर्सबर्ग आने की इजाज़त मिली. कुछ ही वक़्त बाद 1859 में उनके लघु उपन्यास चाचा का सपना, स्तेपान्चिकोवो गांव और उसके वासी तथा 1851 में अपमानित और अवमानित प्रकाशित हुए. निर्वासन के बाद उनकी लिखी प्रमुख रचना मुर्दाघर की टिप्पणियां थी. साइबेरिया में तक़रीबन दस साल तक शारीरिक और नैतिक यातनाओं के बावजूद उनका ज़िंदगी और इंसान में यक़ीन बना रहा. लेकिन मानवीय व्यथाओं और वेदनाओं के प्रति उनकी संवेदनशीलता और मानव जाति के भाग्य में उनकी गहन रुचि और ज़्यादा बढ़ गई. अब वह पहले से ज़्यादा जोश और लगन के साथ सामाजिक न्याय के रास्ते तलाश करने लगे. इस दौरान वह पत्रकार के तौर पर सामने आए. वह नागरिक नामक पत्रिका का संपादन करते थे, जिसमें उन्होंने अपनी लेखक की डायरी का प्रकाशन शुरू किया, जो बाद में अलग प्रकाशन के रूप में 1876, 1877 में हर माह प्रकाशित हुई. इसमें सामाजिक जीवन के ज्वलंत मुद्दों और साहित्य मुख्य तौर पर शामिल रहा. 9 फ़रवरी, 1881 को पीटसबर्ग में उनका निधन हो गया.
फ्योदोर दोस्तोयेवस्की ने अपनी रचनाओं में जनमानस की परेशानियों और उनकी तकली़फ़ों का वर्णन इस तरह किया है कि पात्र जीवंत हो उठते हैं. उनके लघु उपन्यास दरिद्र नारायण में दो पात्र हैं एक युवा महिला वरवारा दोब्रोसेलोवा है और दूसरा बुज़ुर्ग मकार देवुश्किन है. दोनों आमने-सामने किराये के मकानों में रहते हैं और पत्रों के ज़रिये एक-दूसरे से बातचीत करते हैं. उनके पत्रों से उनकी परेशानियों और एक-दूसरे के प्रति उनके स्नेह का पता चलता है. अपने पत्र में मकार वरवारा को संबोधित करते हुए लिखते हैं-
मेरी प्यारी वरवारा अलेक्सेयेव्ना, आपको मैं यह बताना चाहता हूं कि आशा के विपरीत पिछली रात मैं बहुत अच्छी तरह से सोया और इस बात की मुझे बड़ी ख़ुशी है. वैसे यह सही है कि नई जगह पर और नए घर में हमेशा ढंग से नींद नहीं आती. यही लगा रहता है, यह ऐसे नहीं है, यह वैसे नहीं है. आज मैं बिल्कुल ताज़ा दम होकर, बहुत ही ख़ुश-ख़ुश  जागा हूं. मेरी रानी, आज की सुबह भी कितनी प्यारी है. हमारी खिड़की खुली हुई है, धूप खिली हुई है, पक्षी चहचहा रहे हैं, हवा में बसंत की महक बसी है, प्रकृति अंगड़ाई ले रही है और बाक़ी सब कुछ भी बसंत के अनुरूप है, उसकी सुषमा में ढला हुआ है. मैंने तो आज बड़ी मधुर-मधुर कल्पनाएं भी की हैं और वारेन्का, आप ही उन सारी कल्पनाओं का केंद्र बिंदु है. मैंने आपकी तुलना आकाश में उड़ने वाली चिड़िया से की, जिसका जन्म ही लोगों को ख़ुशी देने और प्रकृति की शोभा बढ़ाने के लिए होता है. इसी समय मैंने यह भी सोचा वारेन्का, चिंताओं और परेशानियों में घुलने वाले हम  लोग भोले-भाले और निश्चिंत गगन-विहारी पक्षियों से ईर्ष्या किए बिना नहीं रह सकते. कुछ ऐसी, इसी तरह की दूसरी बातें भी मेरे दिमाग़ में आईं यानी बहुत दूर-दूर की तुलनाएं करता रहा, उपमाएं ढूंढता रहा. प्यारी वारेन्का, मेरे पास एक किताब है, उसमें यह सब, यही सारी बातें बहुत विस्तार से लिखी हुई हैं. मेरी रानी, मैं इसलिए यह लिख रहा हूं कि तरह-तरह के सपने आया करते हैं दिल-दिमाग़ में और अब तो चूंकि बसंत के दिन हैं तो विचार भी बड़े मधुर-मधुर हैं, तीव्रता से उड़ते-घुमड़ते हैं, मन को छूने वाले हैं और सपने भी हैं बहुत कोमल-कोमल, गुलाबी रंग में रंगे हुए. इसी कारण मैंने यह सब लिख डाला है. वैसे मैंने किताब से ही ये सारी बातें ली हैं. उसमें लेखक ने कविता के रूप में ऐसी ही इच्छा व्यक्त की है और लिखा है-
काश कि मैं पक्षी ही होता
एक शिकारी पक्षी
ऐसी ही अन्य बातें भी. उसमें तरह-तरह के दूसरे विचार भी व्यक्त किए गए हैं. ख़ैर हटाइए उन्हें. यह बताइए कि आज सुबह-सुबह आप कहां गई थीं? आपको एक पौंड मिठाई भेज रहा हूं. आशा है कि वह आपको पसंद आएगी. हां, भगवान के लिए मेरी बिल्कुल भी चिंता नहीं कीजिएगा, किसी भी तरह की बात मन में नहीं लाइएगा. तो विदा, मेरी प्यारी.
इसी तरह वरवारा भी मकार को पत्र का जवाब देते हुए लिखती हैं-
आप जानते ही हैं या नहीं कि आख़िर मुझे आपसे पूरी तरह झगड़ा करना पड़ेगा. दयालु मकार अलेक्सेयेविच, क़सम  खाकर कहती हूं कि आपके उपहार स्वीकार करते हुए मेरे दिल को दुख होता है. मैं जानती हूं कि आपको इनके लिए कितनी क़ुर्बानी करनी पड़ती है. अपने लिए ज़रूरी कितनी चीज़ों से मुंह मोड़ना और इंकार करना पड़ता है. कितनी बार आपसे यह कह चुकी हूं कि मुझे कुछ भी, बिल्कुल कुछ भी नहीं चाहिए कि मैं आपकी अब तक कि कृपाओं का बदला चुकाने में असमर्थ हूं. क्या ज़रूरत थी ये गमले भेजने की? गुल मेहंदी के पौधे तो ख़ैर ठीक हैं, लेकिन जिरेनियम भेजने की क्या ज़रूरत थी? असावधानी से कोई एक शब्द मुंह से निकल जाने की देर है, मिसाल के तौर पर जिरेनियम के बारे में और आप उसे फ़ौरन ख़रीदने चल दिए. सच बताइए, महंगे हैं न? कितने सुंदर फूल हैं उसमें लाल रंग के, क्रॉस वाले. कहां मिल गया आपको जिरेनियम  का ऐसा गमला? मैंने उसे खिड़की के बीचोबीच ऐसी जगह पर रख दिया है कि उस पर सबकी नज़र प़डे, फ़र्श पर एक बेंच रख दूंगी और उस पर दूसरे गमले सजा दूंगी. बस, ख़ुद मुझे कुछ अमीर हो जाने दीजिए. फ़ेदोरा की ख़ुशी का तो कोई ठिकाना ही नहीं. हमारे कमरे में तो अब मानो स्वर्ग की बहार है, साफ़-सुथरा, रौशन. और मिठाइयां भेजने की क्या ज़रूरत थी. हां, मैंने आपके पत्र से अभी यह अंदाज़ा लगाया है कि आपके यहां कुछ  गड़बड़ ज़रूर है-वहां स्वर्ग है, बसंत है, महक-लहक है और पक्षी चहचहाते हैं. आप चाहे कुछ भी क्यों न कहें, मेरी आंखों में धूल झोंकने, मुझे यह दिखाने के लिए अपनी आमदनी का बेशक कैसा ही हिसाब क्यों न पेश करें कि वह सारी आप ख़ुद पर ही ख़र्च करते हैं, आप मुझसे कुछ भी नहीं छुपा सकते. बिल्कुल सा़फ़ है कि आप मेरी ख़ातिर अपनी ज़रूरतों को पूरा करने से इंकार करते हैं.
महान रूसी समालोचक विस्सारिओन बेलीन्की ने अपने लेख 1846 के रूसी साहित्य पर दृष्टि में फ्योदोर दोस्तोयेवस्की के बारे में लिखा था-रूसी साहित्य में श्री दोस्तोयेवस्की के समान तेज़ी से, इतनी जल्दी से ख्याति पाने का मिसाल नहीं है.
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9.7.13

मत कहो गीत गीले होते नहीं, अबके गीले हुये हैं वो बरसात में...

रास्ते खोजते भीगते भागते, जिसके दर पे  थे  उसने  बचाया  नहीं
कागज़ों पे लिखे गीत सी ज़िंदगी- जाने क्या क्या हुआ उस रात में ?
तेज़ धारा बहा ले गई ज़िंदगी रेत से बह रहे थे नगर के नगर  –
क्रुद्ध बूंदों ने छोड़ा नहीं एक भी, शिव की आखें खुलीं थी उस रात में !
हर तरफ़ चीखतीं भयातुर देहों को तिनका भी मिला न था इक हाथ में-
बोलिये क्या लिखें क्या सुनें क्या कहें- जो बचा सोचता ! क्यूं बचा बाद में ?
जो कुछ भी हुआ था वज़ह हम ही थे- पर सियासत को मुद्दों पे मुद्दे मिले.
इधर चैनलों पे बेरहम लोग थे,  उधर गिद्धों से आदमी थे जुटे-
अंगुलियां काटकर मुद्रिका ले गये  हाथ काटे गये चूड़ियों के लिये
निर्दयी लोगों के इस नगर में कहो क्या लिखूं, शब्द छुपते हैं आघात में .

मत कहो गीत गीले होते नहीं, अबके गीले हुये हैं वो बरसात में... 

8.7.13

दो बार दफ़नाया गया था मुमताज़ को...प्रदीप श्रीवास्तव

विश्व के सात अजूबों में से एक, प्रेम का प्रतीक ताजमहल और आगरा आज एक दूसरे के पर्याय बन चुके हैं. अब ताज भारत का गौरव ही नहीं अपितु दुनिया का गौरव बन चुका है. ताजमहल दुनिया की उन 165 ऐतिहासिक इमारतों में से एक है, जिसे राष्ट्र संघ ने विश्व धरोहर की संज्ञा से विभूषित किया है. इस तरह हम कह सकते हैं कि ताज हमारे देश की एक बेशकीमती धरोहर है, जो सैलानियों और विदेशी पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करती है. प्रेम के प्रतीक इस खूबसूरत ताज के गर्भ में मुग़ल सम्राट शाहजहां की सुंदर प्रेयसी मुमताज महल की यादें सोयी हुई हैं, जिसका निर्माण शाहजहां ने उसकी याद में करवाया था. कहते हैं कि इसके बनाने में कुल बाईस वर्ष लगे थे, लेकिन यह बात बहुत कम लोगों को पता है कि सम्राट शाहजहां की पत्नी मुमताज की न तो आगरा में मौत हुई थी और न ही उसे आगरा में दफनाया गया था. मुमताज महल तो मध्य प्रदेश के एक छोटे जिले बुरहानपुर (पहले खंडवा जिले का एक तहसील था) के जैनाबाद तहसील में मरी थी, जो सूर्य पुत्री ताप्ती नदी के पूर्व में आज भी स्थित है. इतिहासकारों के अनुसार लोधी ने जब 1631 में विद्रोह का झंडा उठाया था तब शाहजहां अपनी पत्नी (जिसे वह अथाह प्रेम करता था) मुमताज महल को लेकर बुरहानपुर चला गया. उन दिनों मुमताज गर्भवती थी. पूरे 24 घंटे तक प्रसव पीड़ा से तड़पते हुए जीवन-मृत्यु से संघर्ष करती रही. सात जून, दिन बुधवार सन 1631 की वह भयानक रात थी, शाहजहां अपने कई ईरानी हकीमों एवं वैद्यों के साथ बैठा दीपक की टिमटिमाती लौ में अपनी पत्नी के चेहरे को देखता रहा. उसी रात मुमताज महल ने एक सुन्दर बच्चे को जन्म दिया, जो अधिक देर तक जिन्दा नहीं रह सका. थोड़ी देर बाद मुमताज ने भी दम तोड़ दिया. दूसरे दिन गुरुवार की शाम उसे वहीँ आहुखाना के बाग में सुपुर्द-ए- खाक कर दिया गया. वह इमारत आज भी उसी जगह जीर्ण-शीर्ण अवस्था में खड़ी मुमताज के दर्द को बयां करती है. इतिहासकारों के मुताबिक मुमताज की मौत के बाद शाहजहां का मन हरम में नहीं रम सका. कुछ दिनों के भीतर ही उसके बाल रुई जैसे सफ़ेद हो गए. वह अर्धविक्षिप्त-सा हो गया. वह सफ़ेद कपड़े पहनने लगा. एक दिन उसने मुमताज की कब्र पर हाथ रखकर कसम खाई कि मुमताज तेरी याद में एक ऐसी इमारत बनवाऊंगा, जिसके बराबर की दुनिया में दूसरी नहीं होगी. बताते हैं कि शाहजहां की इच्छा थी कि ताप्ती नदी के तट पर ही मुमताज कि स्मृति में एक भव्य इमारत बने, जिसकी सानी की दुनिया में दूसरी इमारत न हो. इसके लिए शाहजहां ने ईरान से शिल्पकारों को जैनाबाद बुलवाया. ईरानी शिल्पकारों ने ताप्ती नदी के का निरीक्षण किया तो पाया कि नदी के किनारे की काली मिट्टी में पकड़ नहीं है और आस-पास की ज़मीन भी दलदली है. दूसरी सबसे बड़ी बाधा ये थी कि तप्ति नदी का प्रवाह तेज होने के कारण जबरदस्त भूमि कटाव था. इसलिए वहां पर इमारत को खड़ा कर पाना संभव नहीं हो सका. उन दिनों भारत की राजधानी आगरा थी. इसलिए शाहजहां ने आगरा में ही पत्नी की याद में इमारत बनवाने का मन बनाया. उन दिनों यमुना के तट पर बड़े -बड़े रईसों कि हवेलियां थीं. जब हवेलियों के मालिकों को शाहजहां कि इच्छा का पता चला तो वे सभी अपनी-अपनी हवेलियां बादशाह को देने की होड़ लगा दी. इतिहास में इस बात का पता चलता है कि सम्राट शाहजहां को राजा जय सिंह की अजमेर वाली हवेली पसंद आ गई. सम्राट ने हवेली चुनने के बाद ईरान, तुर्की, फ़्रांस और इटली से शिल्पकारों को बुलवाया. कहते हैं कि उस समय वेनिस से प्रसिद्ध सुनार व जेरोनियो को बुलवाया गया था. शिराज से उस्ताद ईसा आफंदी भी आए, जिन्होंने ताजमहल कि रूपरेखा तैयार की थी. उसी के अनुरूप कब्र की जगह को तय किया गया. 22 सालों के बाद जब प्रेम का प्रतीक ताजमहल बनकर तैयार हो गया तो उसमें मुमताज महल के शव को पुनः दफनाने की प्रक्रिया शुरू हुई. बुरहानपुर के जैनाबाद से मुमताज महल के जनाजे को एक विशाल जुलूस के साथ आगरा ले जाया गया और ताजमहल के गर्भगृह में दफना दिया गया. इस विशाल जुलूस पर इतिहासकारों कि टिप्पणी है कि उस विशाल जुलूस पर इतना खर्च हुआ था कि जो किल्योपेट्रा के उस ऐतिहासिक जुलूस की याद दिलाता है जब किल्योपेट्रा अपने देश से एक विशाल समूह के साथ सीज़र के पास गई थी. जिसके बारे में इतिहासकारों का कहना है कि उस जुलूस पर उस समय आठ करोड़ रुपये खर्च हुए थे. ताज के निर्माण के दौरान ही शाहजहां के बेटे औरंगजेब ने उन्हें कैद कर के पास के लालकिले में रख दिया, जहां से शाहजहां एक खिड़की से निर्माणाधीन ताजमहल को चोबीस घंटे देखते रहते थे. कहते हैं कि जब तक ताजमहल बनकर तैयार होता. इसी बीच शाहजहां की मौत हो गई. मौत से पहले शाहजहां ने इच्छा जाहिर की थी कि "उसकी मौत के बाद उसे यमुना नदी के दूसरे छोर पर काले पत्थर से बनी एक भव्य इमारत में दफ़न किया जाए और दोनों इमारतों को एक पुल से जोड़ दिया जाए", लेकिन उसके पुत्र औरंगजेब ने अपने पिता की इच्छा पूरी करने की बजाय, सफ़ेद संगमरमर की उसी भव्य इमारत में उसी जगह दफना दिया, जहां पर उसकी मां यानि मुमताज महल चिर निद्रा में सोईं हुई थी. उसने दोनों प्रेमियों को आस-पास सुलाकर एक इतिहास रच दिया. बुहरानपुर पहले मध्य प्रदेश के खंडवा जिले की एक तहसील हुआ करती थी, जिसे हाल ही में जिला बना दिया गया है. यह जिला दिल्ली-मुंबई रेलमार्ग पर इटारसी-भुसावल के बीच स्थित है. बुहरानपुर रेलवे स्टेशन भी है, जहां पर लगभग सभी प्रमुख रेलगाड़ियां रुकती हैं. बुहरानपुर स्टेशन से लगभग दस किलोमीटर दूर शहर के बीच बहने वाली ताप्ती नदी के उस पर जैनाबाद (फारुकी काल), जो कभी बादशाहों की शिकारगाह (आहुखाना) हुआ करती थी, जिसे दक्षिण का सूबेदार बनाने के बाद शहजादा दानियाल ( जो शिकार का काफी शौक़ीन था) ने इस जगह को अपने पसंद के अनुरूप महल, हौज, बाग-बगीचे के बीच नहरों का निर्माण करवाया था, लेकिन 8 अप्रेल 1605 को मात्र तेईस साल की उम्र मे सूबेदार की मौत हो गई. स्थानीय लोग बताते हैं कि इसी के बाद आहुखाना उजड़ने लगा. स्थानीय वरिष्ठ पत्रकार मनोज यादव कहते हैं कि जहांगीर के शासन काल में सम्राट अकबर के नौ रतनों में से एक अब्दुल रहीम खानखाना ने ईरान से खिरनी एवं अन्य प्रजातियों के पौधे मंगवाकर आहुखाना को पुनः ईरानी बाग के रूप में विकसित करवाया. इस बाग का नाम शाहजहां की पुत्री आलमआरा के नाम पर पड़ा. बादशाहनामा के लेखक अब्दुल हामिद लाहौरी साहब के मुताबिक शाहजहां की प्रेयसी मुमताज महल की जब प्रसव के दौरान मौत हो गई तो उसे यहीं पर स्थाई रूप से दफ़न कर दिया गया था, जिसके लिए आहुखाने के एक बड़े हौज़ को बंद करके तल घर बनाया गया और वहीँ पर मुमताज के जनाजे को छह माह रखने के बाद शाहजहां का बेटा शहजादा शुजा, सुन्नी बेगम और शाह हाकिम वजीर खान, मुमताज के शव को लेकर बुहरानपुर के इतवारागेट-दिल्ली दरवाज़े से होते हुए आगरा ले गए. जहां पर यमुना के तट पर स्थित राजा मान सिंह के पोते राजा जय सिंह के बाग में में बने ताजमहल में सम्राट शाहजहां की प्रेयसी एवं पत्नी मुमताज महल के जनाजे को दोबारा दफना दिया गया. यह वही जगह है, जहां आज प्रेम का शाश्वत प्रतीक, शाहजहां-मुमताज के अमर प्रेम को बयां करता हुआ विश्व प्रसिद्ध "ताजमहल" खड़ा है. (स्टार न्यूज़ एजेंसी)

3.7.13

डू यू नो हू एम आय !

अमेरिकन बाला के हाथों
सजती हमारी तस्वीर 
ओबामा : सम थिंग अबाउट
मिसफिट गिरीश मुकुल 
                    दीन दुनिया से बेखबर हमको पता ही न था कि हम भी सेलिब्रिटी बन गये हैं इस बात का पता लगते ही हमने खुद को खुद ही ज़ोर से च्यूँटी काटी पर हमको भरोसा न हुआ सो हमने पड़ोस में बैठे फत्तेदास जी को बोला -"भाई एक लप्पड़ तो मारो हमको ?"
ओबामा : मोर  थिंग अबाउट
मिसफिट गिरीश मुकुल 





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समीरलाल के साथ
हमारी शिखर वार्ता
की तस्वीर जो विदेशी संग्रहालय
की शान है  
हमारी लोकप्रियता का
ज़लवा 
  वे तो ऐसे मौके की तपास में बैठे ही थे बरसों से बचपन में उनको  अक्सर  लपड़याते थे रिवेंज का सही वक़्त पाते ही हमारे गुलाबी गाल उनके लप्पड़ से सुर्ख लाल हो गया. तब जाके हमको महसूस हुआ कि हम कोई सपना नहीं देख रहे हैं वास्तव में हम सेलिब्रिटी  बन गये हैं. हमारे मे ऐसा को गुन नहीं है कि हम सेलिब्रिटी का ओहदा हासिल कर लें पर हमारे मित्र राजीव तनेजा  ने जो तस्वीरें भेजीं उससे साबित हुआ कि- हम विश्व में कित्ते फेमस हैं । अब देखिये न हमारी तस्वीर अमेरिकन  बाला कितने प्रेम से बना रही है. बनाए भी क्यों न जब  उनके देश के  राष्ट्रपति ओबामा जी  स्वयं हम पर विस्तार से सफ़ेद-घर में प्रेस को बता रहे हों सम थिंग अबाउट मिसफिट गिरीश मुकुल  तना ही नहीं अब  हम जो भी करते हैं उसकी खबर पर नमक मिर्च लगा के हमारे कुछ चुगलखोर टाईप के  मित्र हमारा मज़ाक उडाते थे पर अब - भाई अब तो स्थिति उलट है   न्यूज़ चैनल वाले , अखबार वाले हमारे वर्ज़न के बिना समाचार प्रकाशित ही नहीं करते हम भी पुराने डिबेटर रहे हैं डी.एन. जैन कालेज वाले कुछ भी आंय-बांय बक देतें हैं. सभी लोग ऐसा ही करते हैं है न टीवी पर आपने बहस तो देखी होगी यही सब दिखाते हैं. जब हम टी वी पर अपना वक्तव्य दे रहे होते हैं तब अमेरिका सहित सभी  देशों के घरों में पली बिल्लियां तक  हमारा तन्मयता से अवलोकन करतीं हैं । कुत्ते भी करते होंगे कौन जाने  .
                             हां एक बात बताना रह गया कि- मशहूर चिट्ठाकार  समीरलाल के साथ हमारी शिखर वार्ता की तस्वीर विदेशी संग्रहालय की शान बन चुकी है जानते हैं किस विषय पर बात कर रहे थे हम ... चलिये छोड़िये  बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी . एक सूचना सुधि पाठक जान लें की मेरी पहली और  आख़िरी फिलम  ग़दर-पार्ट 2    अब शीघ्र रिलीज़ हो जाएगी तब तक आप लोग पोस्टर देखिये 
कल जब ये फिलम रिलीज़ होगी
तब दुनिया का हर  फिल्म
एवार्ड हमारे नाम होगा  
  

                       तस्वीरों में आप ने हमारा जलवा देखा जिसे देख  आपके पास से जलने की गंध आ रही है. तभी तो  पूछ   रऐ हो  कि- हम सेलिब्रिटी  क्यों बने ? 
भाई, फत्तेदास जी कोई सेलीब्रिटी खुद बनाता   है का ...? बना जाता है । नत्थू लाल की मूंछों ने नत्थू को सेलीब्रिटी बनाया मंटू से  पूछो की लोग पिट के बन जाते हैं अरे हम सेलीब्रिटी बन गए तो आपको काहे अजमेरी कीड़ा काट रहा है.. तो उसपे सवाल काहे दाग रए हो भैया । .. अच्छा एक बात बताओ जितने लोग सेलेब्रिटी हैं उनमें क्या खूबी है.. कुछ नईं न तो हम में क्यों खूबियां तपासते हौ.. भैये 
 

नोट : भाई पद्म सिंह भाई राजीव तनेजा ,ललित शर्मा को आलेख समर्पित है
बाकी सबको अर्पित है 

Wow.....New

धर्म और संप्रदाय

What is the difference The between Dharm & Religion ?     English language has its own compulsions.. This language has a lot of difficu...