24.12.12

जो सतह में चल रहा है उसका अनुमान लगाओ तो सही रिज़ल्ट पर पहुंच जाओगे..

कार्टूनिस्ट इरफ़ान 

           अराजक- व्यवस्थाओं के खिलाफ़ समुदाय के तेवर को कम आंकना किसी भी स्थिति में किसी भी देश के लिये आत्मघात से कम नहीं है. आज के दौर में विश्व का कोना कोना सूचना क्रांति की वज़ह से एक सूत्र में बंधा नज़र आता है तब तो शीर्षवालों को सतह की हर हलचल पर निगाह रखनी ज़रूरी है. सबकी बात समझ लेने वाली इंद्रियों को सक्रिय करना ही होगा. मेरे प्रिय प्रोफ़ेसर (डा.) प्रभात मिश्र कहते थे -"जो सतह में चल रहा है उसका अनुमान लगाओ तो सही रिज़ल्ट पर पहुंच जाओगे.." प्रभात सर ने कहा तो मुझसे था पर सम-सामयिक बन गया है यह वाक्यांश ... शीर्षवालों के लिये . 
            कृष्ण कालीन महाभारत आप को याद है न .. जो युद्ध न था .   बस क्रांति थीं.. हां इनमे कृष्ण थे अवश्य पर वो कृष्ण जो लक्ष्य थे विचार थे चिंतन थे...जिसे आप गीता कहते हैं  उनके पीछे चल पड़ा था समुदाय परंतु अब बिना कृष्ण यानी नेतृत्व के, केवल लक्ष्य को  अपना अगुआ मानके चलेगा समुदाय. चल भी रहा है. 
                         अब क्रांतियों का स्वरूप सहज ही बदल रहा है. सर्वमान्य नेतृत्व की अपेक्षा  क्रांतियां लक्ष्य को ही अपने आगे रखने लगीं हैं. लक्ष्य ऐसा जो अंतरआत्मा में बेचैनी भरता है. यही बेचैनी  क़दम उठाने मज़बूर करती है. कई सवाल लिखने को बाध्य कर देतीं हैं  ये बेचैनियां.. ! मेरे विचारक मित्र लिमिटि खरे बेचैन हैं कई तरह के  सीधे सवाल करतें हैं सियासत से .और व्यवस्था से किंतु  जवाब गुम हैं. 
पता नहीं क्या हो गया है  रहनुमाओं को ..आम आदमी के  दर्द की समझ कब आएगी ...? कुछ खास नहीं मांगता भारतीय उसकी अपनी छोटी आशाएं हैं उसकी अपनी छोटी छोटी ज़रूरतें हैं जैसे कीमतें स्थिर रखो. अनाधिकृत दबाओ मत, गुमराह मत करो, चैन से जीने दो .. पर पता नहीं क्या हुआ है व्यवस्था को जो अपना कार्य-दायित्व भूल के अन्य बातों के प्रबंधन में जुटी है. 
        शीर्ष पर आसीनों को यह लगता है कि समुदाय शून्य हो चुका है.. वास्तव में ऐसा है नहीं शून्य नहीं होता समुदाय .. शांत अवश्य होता है पर नदी के उस भाग की कल्पना कीजिये जिसके नीचे भयानक भंवर होती है परंतु उसी भंवरीले स्थान का बहाव सबसे शांत होता है जिसका आंकलन आप सहजता से  नहीं कर पाते.
 आप माने या न मानें दिल्ली वाली बेटी को लेकर पूरा देश बेचैन है. सब के मन में आक्रोष है इस आक्रोश को उकसाना अब अनुचित है.. सरकार तुरंत स्वीकारे मांग . हीला हवाली तर्क वितर्क अब  अस्वीकार्य ही होंगे. लोग हर हालत में त्वरित परिणाम चाह रहे हैं. 
                 

23.12.12

वरिष्ठ पत्रकार श्री चैतन्य भट्ट को हीरा लाल गुप्त स्मृति अलंकरण एवम सव्यसाची स्वर्गीया श्रीमती प्रमिला बिल्लोरे स्मृति अलंकरण राजेश पाठक "प्रवीण" को

                               

                                                                 कल दिनांक 24 दिसंबर 2012 को शाम 6.30 बजे ड्रीम लेंड फन पार्क सिविक सेंटर जबलपुर मध्य प्रदेश में स्वर्गीय हीरा लाल गुप्त स्मृति सम्मान समारोह आयोजित है।
कार्यक्रम की अध्यक्षता वरिष्ठ अधिवक्ता एवं पूर्व उप महाधिवक्ता उच्च न्यायालय मध्यप्रदेश श्री आदर्श मुनि त्रिवेदीजी तथा मुख्य अतिथि श्री कृष्ण कान्त चतुर्वेदी पूर्व निदेशक कालिदास अकादमी ,मध्य प्रदेश होंगे। 15 वर्ष पूर्व प्रारम्भ किये गए "स्वर्गीय हीरा लाल गुप्त स्मृति पत्रकारिता सम्मान " से इस वर्ष वरिष्ठ पत्रकार श्री चैतन्य भट्ट को सम्मानित किया जायेगा .





                               सव्यसाची स्वर्गीया श्रीमती प्रमिला बिल्लोरे स्मृति सम्मान से इस बार संस्कारधानी जबलपुर ही नहीं मध्य प्रदेश के जाने माने उद्घोषक, राष्ट्र स्तरीय सामाजिक पत्रिका "सनाढ्य संगम" के यशस्वी संपादक , साहित्यकार श्री राजेश पाठक "प्रवीण" को नवाजा जायेगा।
संस्कारधानी की भावना के अनुरूप इस कार्यक्रम में हम स्वर्गीय रामेश्वर गुरु जी को भी नहीं भूले। उनके जन्म शताब्दी वर्ष के चलते हम उनका भी स्मरण करेंगे। डॉ रामशंकर मिश्र जी स्वर्गीय रामेश्वर गुरु जी के साहित्य दर्शन पर एक सारगर्भित आलेख का वाचन करेंगे।

19.12.12

रैपिस्ट मस्ट बी हैंग्ड टिल डैथ

        
 सरकार को नारी के साथ बलात्कार उसके खिलाफ़ सबसे जघन्य हिंसा मानने में अब देर नहीं करनी चाहिये.नारी की  गरिमा की रक्षा के लिये बलात्कार को किसी भी सूरत में हत्या से कमतर आंकना सिरे से खारिज करने योग्य है.  घरों में काम करने वाली नौकरानियां, दफ़्तरों का अधीनस्त अमला, इतना ही नहीं उंचे पदों पर काम कर रहीं महिलाएं तक भयभीत हैं. मुझसे नाम न लिखने की शर्त पर एक महिला अधिकारी कहतीं हैं-"हम कितना भी दृढ़ता दिखाएं आखिरकार औरत हैं पल भर में हमारा हौसला खत्म करने में कोई लापरवाही नहीं करता पुरुष प्रधान समाज . "
 ब्लाग जगत की महत्वपूर्ण लेखिका Aradhana Chaturvedi (आराधना चतुर्वेदी रिसर्च स्कालर  )  खुद भयभीत हैं -"मैं दिल्ली में रहती हूँ. अकेले बाहर आती-जाती हूँ. शाम को जल्दी आने की कोशिश करती हूँ, पर सर्दियों में तो छः बजे अँधेरा हो जाता है. 
अभी तक शॉक्ड हूँ कल की घटना से. बार-बार लग रहा है कि ये घटना मेरे साथ भी हो सकती है. सोच रही हूँ वेंटीलेटर पर गंभीर हालत में पड़ी उस लड़की के बारे में. तबीयत ठीक नहीं, बाहर भी नहीं जा सकती...आंदोलन कर रहे जे.एन.यू. के सभी छात्रों के साथ हूँ."
                                           मेरे मित्र कुमारेंद्र सिंह सेंगर जी की  एक बात विचारणीय है-"जब समाज में हर एक बात को सेक्स से जोड़ कर देखा जाने लगा है, सेक्स को, कामुकता को, स्त्री-देह को व्यापक सौन्दर्य-बोध के साथ परोसा जाने लगा है,गानों में, खेलों में, कपड़ों में, खाने में, स्वास्थ्य में, शिक्षा में, वाहनों में, सौन्दर्य-प्रसाधनों में..........लगभग सभी जगहों पर, सभी क्षेत्रों में कामुकता को, देह को, सेक्स को प्रमुखता दी जा रही हो वहां आप मनोविकारी लोगों से संयम की अपेक्षा कैसे कर सकते हैं ?"
    अखबारों और मीडिया घरानों को चाहिये कि औरतों के खिलाफ़ करतीं खबरों तस्वीरों को छापना बंद करें. अंतरजाल पर भी कई ऐसी खबरिया साइट्स हैं जो सन्नी-लियोन और पूनम पांडॆ ब्रांड मामलों.और. तस्वीरों को  टाप रेटेट बता कर लाइम लाइट में रखतीं हैं.. कुमारेंद्र सिंह सेंगर जी का इशारा इनकी ओर भी है.. ध्यान से देखें तो लगता है कि कुमारेंद्र जी सेक्स के व्यवसायिक अनुप्रयोग को भी बलात्कार की एक सीढ़ी बता रहें हैं.. मीडिया हाउसेस के लिये भी आत्म-चिंतन का दौर आ गया है.    
                                                उनकी इस सवालिया टिप्पणी पर आत्म-चिंतन करना होगा. व्यापारी होती जा रही सामाजिक संरचना में केवल चेहरों.. कामुकता को बढ़ावा देते इश्तहारों , फ़्रंट पेज पर सेक्स को स्थान देते रिसाले, बेशक़ उत्प्रेरक बन जाते हैं. किंतु चारित्रिक विकास का दौर में माता पिता अपनी ज़वाबदेही से मुकर नहीं सकते. मुन्नी-शीला, फ़ेविकोल, वाले गीतों पर जब बच्चा थिरकता है तो  अभागे माता पिता बच्चे के इस कुरूप विकास को महिमा-मंडित करते नज़र आते हैं. उफ़्फ़ क्यों नहीं समझ पा रहा है  90 प्रतिशत भारतीय (शायद काटजू साहब वाला ) कि हम कुछ गलीच बो रहें हैं औलादों के ज़ेहन में. ?
      
           प्रयास ब्लाग के युवा लेखक दीपक तिवारी अपने     एक आलेख में लिखते हैं कि-" राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के सिर्फ 2011 के आंकड़ों पर ही नजर डाल लें तो तस्वीर काफी हद तक साफ हो जाती है कि आखिर महिलाएं कितनी सुरक्षित हैं। महिलाओं के साथ बलात्कार, शारीरिक उत्पीड़न और छेड़छाड़ के साथ ही महिलाओं के अपहरण और घर में पति या रिश्तेदारों के उत्पीड़न के मामलों की लिस्ट काफी लंबी है। साल 2011 में हर रोज 66 महिलाएं बलात्कार की शिकार हुई। एनसीआरबी के अऩुसार 2011 में बलात्कार के 24 हजार 206 मामले दर्ज हुए जिनमें से सजा सिर्फ 26.4 फीसदी लोगों को ही हुई जबकि महिलाओं के साथ बलात्कार के अलावा उनके शारीरिक उत्पीड़न, छेड़छाड़ के साथ ही उनके उत्पीड़न के 2 लाख 28 हजार 650 मामले दर्ज किए गए जिसमें से सजा सिर्फ 26.9 फीसदी लोगों को ही हुई। ये वो आंकड़ें हैं जिनमें की हिम्मत करके पीड़ित ने दोषियों के खिलाफ पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराई…इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि असल में ऐसी कितनी घटनाएं घटित हुई होंगी क्योंकि आधे से ज्यादा मामलों में पीड़ित समाज में लोक लाज या फिर दबंगों के डर से पुलिस में शिकायत ही नहीं करती या उन्हें पुलिस स्टेशन तक पहुंचने ही नहीं दिया जाता है। सबसे बड़ी बात ये है कि आंकड़ें इस पर से पर्दा हटाते हैं कि इन मामलों में कार्रवाई का प्रतिशत सिर्फ 25 है…यानि कि 75 फीसदी मामले में या तो आरोपी बच निकले या फिर ये मामले सालों तक कोर्ट में लंबित पड़े रहते हैं और आरोपी जमानत पर खुली हवा में सांस ले रहा होता है।अगर 71.1 प्रतिशत दरिंदे खुले आम घूम रहें हों तो कौन भयभीत न होगा. 
                      यौनिक अपराधों की सुनवाई केवल 30 दिन से अधिक का वक़्त नहीं मिलना चाहिये. सजा मौत से कम न हो वरना रेशमा जैसी नारी  जीवन भर एक आक्रांत जीवन जियेगी शायद मुस्कुराहट लौट न पाए कभी . बेटियों के खिलाफ़ होते समाज को वापस नेक चलनी की राह दिखाने के लिये अगर कठोर क़ानून न बने तो समाज का पतन दूर नहीं होगा. 
                  मेरे व्यक्तिगत राय ये भी है कि एक ऐसा कानून बनाया जाये जो औरत के खिलाफ़ जिस्मानी ज़्यादती को हत्या के समान कारित माने. सच्चे पुरुष कभी भी किसी नारी के आत्म सम्मान की हत्या नहीं करते. बलात्कारी सदैव हत्यारा होता है. कसाब सरीखा आतंकी होता है... उससे बस  जितना जल्द हो सके दुनिया से बिदाई "फ़ांसी के तख्त पर" दे देनी चाहिये. 
                     मैं एक कवि हूं.. कितना नर्म हूं फ़ांसी की मांग करना मेरी प्रकृति के खिलाफ़ है पर सामाजिक संस्कारों वश मुझे लगता है कि -"जो नारी जैसी नर्म हृदया के हृदय को घात करे उसे जीने का अधिकार देना सर्वदा अनुचित है."
                                           बकौल विचारक पत्रकार  श्री  रवींद्र बाजपेई -"दिल्ली में बलात्कार के आरोपियों को फांसी पर टांगने की मांग चारों तरफ गूँज रही है लेकिन जिस देश में आतंकवादियों को फांसी पर लटकाने में दस बरस का वक़्त लगता हो वहां इस तरह के अपराधियों को उनके कुकर्म की सजा देने में कितनी देर होगी यह विचारणीय है।"  
          सवालों पर एक दीर्घ विराम लगा सकती राजनैतिक इच्छा शक्ति. 


वो जितना रोई होगी बस में दिल्ली की लड़की मेरी आंखों के आंसू भी सुखाए उसी पगली ने


हां सदमा मग़र हादसा
देखा नहीं कोई !
और न तो  साथ मेरे
जुड़ती है कहानी हादसे जैसी......!!
मग़र नि:शब्द क्यों हूं..?
सोचता हूं
अपने चेहरे पे
सहजता लांऊ तो कैसे ?
मैं जो महसूस करता हूं
कहो बतलाऊं वो कैसे..?
वो जितना रोई होगी बस में दिल्ली की लड़की
मेरी आंखों के आंसू भी सुखाए उसी पगली ने
न मैं  जानता उसे न पहचानता हूं मैं ?
क्या पूछा -"कि रोया क्यूं मैं..?"
निरे जाहिल हो किसी पीर तुम जानोगे कैसे
ध्यान से सुनना उसी चीख
सबों तक आ रही अब भी
तुम्हारे तक नहीं आई
तो क्या तुम भी सियासी हो..?
सियासी भी कई भीगे थे सर-ओ-पा तब
देखा तो होगा ?
चलो छोड़ो न पूछो मुझसे
वो कौन है क्या है तुम्हारी अब वो कैसी है ?
मुझे मालूम क्या मैं तो 
जी भर के 
दिन भर रोया हूं
मेरे माथे पे 
बेचैनियां
नाचतीं दिन भर  !
मेरा तो झुका है 
क्या तुम्हारा 
झुकता नहीं है सर..?

 सुनो तुम भी
दिल्ली से आ रहीं चीखैं.. ये चीखैं
हर तरफ़ से एक सी आतीं.. जब तब 
तुम सुन नहीं पाते सुनते हो तो गोया 
समझ में आतीं नहीं तुमको 
समझ आई तो फ़िर किसकी है 
ये तुम सोचते होगे
चलो अच्छा है जानी पहचानी नहीं निकली !!
हरेक बेटी की आवाज़ों फ़र्क  करते हो
अगर ये करते हो ख़ुदा जाने क्या महसूस करते हो..?
हमें सुनना है  हरेक आवाज़ को 
अपनी समझ के अब 
अभी नहीं तो बताओ 
प्रतीक्षा करोगे कब तक
किसी पहचानी हुई आवाज़ का 
रस्ता न तकना तुम
वरना देर हो जाएगी 
ये बात समझना तुम !!
                     
     

16.12.12

गांव के गांव बूचड़ खाने से लगने लगे हैं- सियासी-परिंदे गावों पे मंडराने लगे हैं.

साभार : http://yugaahwan.blogspot.in/


रजाई ओढ़ तो ली मैनें मगर वो नींद न पाई ,
जो पल्लेदारों को  बारदानों में आती है.!
वो रोटी कलरात जो मैने छोडी थी थाली में
मजूरे को वही रोटी सपनों में लुभाती है.
***********
फ़रिश्ते   आज कल घर मेरे आने लगे हैं
मुझे बेवज़ह कुछ रास्ते बतलाने लगे हैं
मुझे मालूम है काम अबके फ़रिश्तों का
फ़रिश्ते घूस लेकर काम करवाने  लगे हैं.
***********
तरक़्क़ी की लिस्टें महक़में से हो गईं जारी
तभी तो लल्लू-पंजू इतराने लगे हैं....!!
खुदा जाने नौटंकी बाज़ इतने क्यों हुए हैं वो
जिनको लूटा उसी को भीख दिलवाने चले हैं.
***********
जिन गमछों से आंसू पौंछते हमारे बड़े-बूढ़े-
वो गमछे अब गरीबों को डरवाने लगे हैं.
गांव के गांव बूचड़ खाने से लगने लगे अब
सियासी-परिंदे गांवों पे मंडराने लगे हैं.









10.12.12

ये तन्हाई मुझे उस भीड़ तक लाती है.. !!

 ये नज़्म कुछ खास दोस्तों को समर्पित है 










ये तन्हाई मुझे उस  भीड़ तक लाती है.. !!
जिसे मैं छोड़ आया हूं ...
कोसों दूर अय.. लोगो
कि जिसमें तुम हो, तुम हो
और तुम भी तो हो प्यारे..
वो जिसने मेरे चेहरे पे सियाही
पोतना चाहा...
ये भी हैं जो मिरे पांवों पे
बांधा करते थे बेढ़ियां
इक दिन अचानक
जागते ही तोड़ आया हूं..!!
ये तन्हाई मुझे उस  भीड़ के पास लाती है.. !!
जिसे मैं छोड़ आया हूं ...!!
**********
अचानक एक दिन तुम सबसे टूटा
दूर जा छिटका...
तुम हैरत में हो ? क्या वज़ह थी
मेरे जाने की..?
तुम जो रास्ता बतला रहे हो
लौट आने की...!!
अरे पागल हो तुम .. ज़रा सोचो
कभी बहता हुआ दरिया
सुनेगा लौट आने की ?
मेरे साहिल पे आके अब सुनों
अनुगूंज तुम मेरी
तुम्हारा शुक्रिया कि
टूटके तुम से
यकीं मानो
बहुत कुछ मीत अपने जोड़ पाया हूं !!
**********
गिरीश बिल्लोरे मुकुल
**********

7.12.12

उफ ! ये चुगलखोरियाँ


साभार : गूगल


मुझे उन चुगली पसन्द लोगों से भले वो जानवर लगतें हैं, जो चुगलखोरी के शगल से खुद को बचा लेते हैं। इसके बदले वे जुगाली करते हैं। अपने आप को श्रेष्ठ साबित करने वालों को आप किसी तरह की सजा दें न दें कृपया उनके सामने केवल ऐसे जानवरों की तारीफ जरूर कीजिये। कम-से-कम इंसानी नस्ल किसी बहाने तो सुधर जाए। आप सोच रहे होंगें, मैं भी किसी की चुगली कर रहा हूँ, सो सच है परन्तु अर्ध-सत्य है !
मैं तो ये चुगली करने वालों की नस्ल से चुगली के समूल विनिष्टीकरण की दिशा में किया गया एक प्रयास करने में जुटा हूँ। अगर मैं किसी का नाम लेकर कुछ कहूँ तो चुगली समझिये। यहाँ उन कान से देखने वाले लोगों को भी जीते जी श्रद्धांजलि अर्पित करना चाहूँगा जो गांधारी बन पति धृतराष्ट्र का अनुकरण करते हुए आज भी अपनी आँखे पट्टी से बांध के कौरवों का पालन-पोषण कर रहें हैं। सचमुच उनकी ''चतुरी जिन्दगी`` में मेरा कोई हस्तक्षेप कतई नहीं है और होना भी नहीं चाहिए ! पर एक फिल्म की कल्पना कीजिए, जिसमें विलेन नहीं हो, हुजूर फिल्म को कौन फिल्म मानेगा ? अपने आप को हीरो-साबित करने के लिए मुझे या मुझ जैसों को विलेन बना के पहले पेश करते हैं। फिर अपनी जोधागिरी का एकाध नमूना बताते हुये यश अर्जित करने के मरे जाते हैं।

ऐसा हर जगह हो रहा है हम-आप में ऐसे अर्जुनों की तलाश है, जो सटीक एवं समय पे निशाना साधे हमें चुगलखोरी को दुनियां से नेस्तनाबूत जो करना है आईए हम सब एकजुट हो जाएँ- इन चुगलखोरों के खिलाफ!
               '
चुगली` का बीजारोपण माँ-बाप करते हैं- अपनी औलादों में बचपने से-एक उदाहरण देखें, ''क्यों बिटिया, शर्मा आंटी के घर गई थी``?
 ''हाँ मम्मी शर्मा आंटी के घर कोई अंकल बैठे थे``
अब 'अंकल और शर्मा आंटी` के रिलेशन्स को फ्रायडी-विजन से देखती मैडम अपनी पुत्री से और अधिक जानकारी जुटाने प्रेरित किया जाओ अंकल का इतिहास, उनकी नागरिकता, उनका भूगोल पता लगाओ और यहीं से शुरू होता है चुगलखोरी का पहला पाठ। इसमें केवल माँ ही उत्तरदायित्व निभाती है- ये  एक अर्द्धसत्य है। पूर्ण सत्य यह है कि ''चुगलखोरी के कीड़े के वाहक पिता भी हुआ करते हैं``
हमें ''पल्स पोलियो`` अभियानों की तरह ''चुगलखोरी उन्मूलन अभियान`` चलाने चाहिए।
शासकीय कार्यालयों में इस अभियान के चलाने की बेहद जरूरत है।
मेरे दृष्टिकोण से आप सभी एकजुट होकर इस राष्ट्रीय अभियान को अपना लीजिए। अभियान के लिये-उन एन.जी.ओ. का सहयोग जुटाना न भूलें, जो अपने संगठनों के कार्यो की श्रेष्ठता सिद्ध करने दूसरों की (विशेषकर सरकारी सिस्टम की) चुगली करते हर फोरम पे नज़र आते हैं।  मित्रों! साहित्य, संस्कृति, कला, व्यापार, रोजिया चैनल, आदि सभी क्षेत्रों को लक्ष्य बनाकर हमें चुगली से निज़ात पानी है। और हाँ जो चुगलियाँ गाँव से शहर के दफ्तरों में साहबों के पास लाई जातीं हैं। उनके वाहक भी हमारे प्रमुख लक्ष्य होने चाहिए। जैसे  मेरे दफ्त़र में आकर चुगली करने वाला पवित्र धवल लिबास में आया गले में एक गमछा डाले था रंग न बताऊंगा वरना पार्टी वाले समझ जाएंगे तो मित्रो  वो व्यक्ति मुझे अच्छी तरह याद है, जो मेरे मातहत गाँव में काम करने वाली कर्मचारी से रूष्ट था। स्वयं गाँव का भ्रमण करने पर पाया कि उस चुगलखोर के अलावा   सारा गांव उस विधवा महिला को देवी की तरह पूजता है और यही जनविश्वास  उसकी चुगली का मूल कारण था । कारण जो भी हो- चुगली एक खतरनाक रोग है। यदि इसे आप पनपने नहीं देना चाहते ''एण्टी-चुगली-ड्राप`` की दो बूंदे  उस  अवश्य देनी होगी।

कैसे पिलाएँ एंटी चुगली ड्राप की दो बूंदे-''सबसे पहले लक्ष्य को पहचानें, उसे कांफिडेन्स में लें`` और उसका मुँह खुलवाएँ। बेहतर ढंग से सुने। जिसकी चुगली की जा रही है-उसे उसके सामने ले आएँ। फिर हौले से चुगलखोर की कही बातों में से दो बातें बूँदों की तरह सार्वजनिक करने की शुरूआत करें।``
इससे चुगलखोर के वस्त्र स्वयम् ही ढीले पड़ने लगेंगें। हाथ पाँव का फूलना, सर झुका लेना, माथा पकड़ना या हड़बड़ाकर ''हाँ...हाँ...हाँ....नहीं...नहीं..`` की रट लगाना बीमारी की समाप्ति के सहज लक्षण होते हैं।
                  मित्रों, दफ्तरों में, बैठकों में, फोरमस् में, इस प्रयोग को करने से बड़े-बड़े की चुगलखोरों की चुगलखोरी का अंत सहज ही हो जाता है। चुगली कमीने पन ग्रुप का रोगाणु है, जिसने कईयों को तख्त से उठा फेंका है। इसका वाहक बेहद मीठा, आकर्षक, प्रभावशाली व्यतित्व वाली मानवीय काया का धारक हो सकता है। चुगली को कानूनी जामा भी पहनाया जाता है. खासकर तब जब प्रमोशन वगैरा का प्रोसेस चल रहा हो. ताक़ि प्रतिस्पर्धी सफ़ल न हो पाए. 
        सियासत का तो मूलाधार है चुगलखोरी  जहाँ सौभाग्यशाली लोगों को ही इससे बच सकने का मौका मिलता है। क़मोबेस सभी इस ''चुगली`` के शिकार हो ही जाते हैं। उधर समाजी रिवायतों की तो मत पूछिए - ''चुगली के बिना संबंध बनते ही नहीं। रहा तंत्र का सवाल सो - ''चुगली को शासन के हित में जारी सूचना की शक्ल में पेश करने वाले अधिकारी कर्मचारी, सफल एवं श्रेष्ठ समझे जाते हैं।
यशभारत : 09/12/2012

सुधिजनों, अगर एक बार हिम्मत दिखा दी जावे तो सैकड़ों चुगली से प्रभावित ''जीव`` सुरक्षित हो जाऐगें।

3.12.12

अछोर विस्तार पाने की ललक ने मुझे इंटरनेट का एडिक्ट बना दिया.

                       जितना  विस्तार पा रहा हूं उतना कमज़ोर और अकेला  होता जा रहा हूं. लोग समझ रहे हैं विश्व से बात कर रहा हूं मेरे दोस्त शिखर पर बैठे लोग हैं. अभिनेता, नेता, क्रेता, विक्रेता, उनके बीच मेरा स्थान है. देश में... न भाई मुझे पढ़ने देखने जानने वाले विश्व के कोने कोने में हैं. अपना फ़ेस हर साइट पर बुक करवा रहा हूं.. इस छोर से उस छोर तक यानी अछोर विस्तार पाने की ललक ने मुझे इंटरनेट का एडिक्ट बना दिया.
     ये आत्म-कथ्य है सोशल साइट्स से चिपके हर व्यक्ति की. जो इधर का माल उधर करने में लगा हैं. सोचिये कि इस तरह हम अपनी स्वयम की और कृत्रिम उर्ज़ा का इस तरह क्यों खर्च कर रहें हैं.
क्यों हम सामान्य जीवन से कट रहें हैं.?
     इस बात का पुख्ता ज़वाब मिलेगा   किशोर बेटे बेटी से जो रात दिन    नेट पर चैट का खेल खेला करते हैं. वास्तव में मनुष्य प्रजाति में    आभासी दुनिया के पीछे भागने का एक दुर्गुण हैं. अंतरजाल से उसका जुड़ाव  इसी का परिणाम है. मानवी दिमाग  कपोल कल्पनाओं गल्पों का अभूतपूर्व भंडार होता है. जिसमें वह स्वयम ही इन्वाल्व होता है. किसी अन्य का इन्वाल्वमेंट  वास्तविक रूप से उसे स्वीकार्य क़तई नहीं इन्हीं कपोल कल्पनाओं को आकार देता है अंतरजाल.
    आपको अपना बचपन याद है न .. आप परिकथाएं कितनी लुभातीं थीं तब और उसी व्योम में घूमता फ़िरता बचपन आज़ भी किसी चमत्कार के प्रति आपको आकृष्ट करता रहता है. यही आकर्षण खींचता है हमको अक्सर एक ऐसे व्योम की ओर जहां सब कुछ आभासी होता है.
yashbharat_16_12_12 001
    आभासी व्योम के लोग केवल आभासी आकर्षण की वज़ह से एक दूसरे से जुड़ते हैं पर ज़ल्द ही विगत भी हो जाते हैं. मेरा नेट की सोशल साइटस पर दस हज़ार लोगों से संपर्क है. आपका और अधिक होगा. हम मित्र हैं पर वास्तव में जुड़ाव की बात करें तो कुछ ही लोगों से वास्तविक संबंध बन पाया है.(यहां उन लोगों को शामिल नहीं किया जा रहा जो भौतिक रूप से मित्र हैं या परिवार के सदस्य हैं.) पर अभी मेरी तलाश खत्म नहीं हुई. मुझ जैसे हज़ारों लोग यही सब कुछ कर रहे हैं. जिसका कोई अर्थ नहीं निकल रहा. अन्ना का आंदोलन भी इसी तरह का एक  प्रयोग था.  उसकी सफ़लता-असफ़लता पर यहां टिप्पणी ज़ायज़ नहीं बस एक बात कहना है कि-"हम जितना फ़ौरी तौर पर जुड़ते हैं उतना ही ज़ल्द दूरी भी बनाते हैं"
               यह कहना बेजा नहीं कि   हम फ़िज़ूल वक़्त जाया कर रहें हैं सोशल-साइट से जुड़ कर..!!
तो फ़िर क्या करें...?
                                               हमें नेट पर जो करता है वो है नेट का सही प्रयोग . बिना किसी फ़ैंटेसी से जुड़े हम अपना मौलिक चिंतन डालें किसी भी भाषा में, आकार में, यानी कुल मिला कर कूढ़ा-करकट न डाला जाए. नेट पर हिंदी सहित भारतीय भाषाओं के कंटैंट्स  की सबसे ज़्यादा ज़रूरत है. गर आप रचना धर्मीं हैं तो कौशल दिखाएं यहां.

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धर्म और संप्रदाय

What is the difference The between Dharm & Religion ?     English language has its own compulsions.. This language has a lot of difficu...