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18.7.17

"सनातन सामाजिक व्यवस्था" क्या है ...?

अखंड भारत कल्पित नहीं सनातन सामाजिक व्यवस्था
ने इसे 5000 से अधिक अवधि तक सम्हाला था 

पाकिस्तान के कितने टुकड़े  होंगे  ?  कल के इस आलेख में यह समझाने का प्रयत्न किया था कि  "सनातन सामाजिक व्यवस्था" क्या है ...? आइये उसी से आगे बात को लिए चलतें हैं.... 
क्या यह एक सम्प्रदाय है ... उत्तर स्वाभाविक रूप से न ही है .. क्योंकि धर्म के अनुयाई सहमति असहमति के आधार पर अपने सुझाए मार्ग पर चलने व्यवस्था बनाते हैं.. यह कार्य समूह का शिखर व्यक्तित्व करता है जिसे गुरू संबोधित किया जा सकता है किन्तु मेरा आध्यात्मिक चिन्तन  इनको प्रवर्तक मानता है .  हो सकता है आप असहमत हों . पर यही सत्य है. 
धर्म क्या है ... इस पर बेहद विशद मंथन किया जा चुका है होता भी रहेगा इससे कोई ख़ास अर्थ निकलने वाला नहीं . जैसे कि गाड अर्थात ईश्वर को कोई न तो प्रूफ कर पाया है न ही ही किसी ने उसके अस्तित्व को बहुसंख्यक वैश्विक आबादी ने स्वीकार्य ही किया है. विश्व का हर प्राणी ईश्वर को मात्र  अनुभूत करता है . धर्म उसी ईश्वर तक पहुँचने का रास्ता है .

जो अन्य प्राणियों के प्रति सात्विकता पूर्ण व्यवहार के साथ स्वयमेव प्रशस्त होता है. वाम मार्ग को यही सब खलता है उसे लगता है कि एक आकार हीन आब्जेक्ट को लोग पूजते हैं जबकि उसका केवल एहसास मात्र कथित रूप से होता है ... जबकि जीवितों को जिनका आकार है उसे उपेक्षित किया जाता है . वाममार्ग इसी उधेड़बुन में लगे लोगों में  अनास्तिकता की विचारधारा को बीज रोपित करना   है ! --- 
 वास्तव में वाममार्ग वैदेशिक आयातित-विचारधारा है ऐसी विचारधारा कदाचित  भारत में प्रवर्तित होती तो तय था का उसका स्वरुप इतना कठोर और विघटनकारी  न होता कि पैररल सत्ता चलाने की  भारत में आवश्यकता हो नक्सल आन्दोलन इसी का एक उदाहरण है . भारत की सनातन सामाजिक व्यवस्था में अकिंचनों अर्थात गरीबों को आर्थिक समृद्धि की व्यवस्था के प्रावधान मौजूद हैं. "सर्वे जना सुखिना भवन्तु" का घोष बारबार सामाजिक साम्य की ओर इशारा है. अधिकाँश राजाओं ने इसे स्वीकारा भी था राज्य के विस्तार से अधिक लोककल्याण के कार्यों के लिए अधिक सजग रहे किन्तु वैदेशिक आक्रान्ताओं के हमलों से भारत की अखंडता बनी न रह सकी .
2500 वर्षों में तो भारत का तेजी से विभक्त होना एक दुखद पहलू रहा है. विदेशी आक्रमण लूटपाट, वैचारिक बदलाव, सनातनी सामाजिक व्यवस्था को खंडित करने उद्देश्य से भारत आए . कालान्तर में आक्रमणकारियों की पीठ पर लद कर पंथों  का प्रवेश हुआ.  सनातनी व्यवस्थाओं में को क्षतिग्रस्त कर आयातित आचरण को बलपूर्वक भारत में लागू करने से साम्प्रदायिक वर्गीकरण तेजी से हुआ यही वर्गीकरण जातिगत विद्वेष का आधार भी इस वज़ह से बना क्योंकि बिना दरार के उनको घुसने का अवसर कदापि न मिलता . वाममार्ग की विशेषता है कि वह प्रोग्रेसिव होने के नाम पर वर्गीकरण करता वर्ग निर्मित करता है फिर लफ्फाजी के सहारे आतंरिक संघर्ष कराता है. इसकी जद में अक्सर कम ज्ञान रखने वाले सहज आ जाते हैं. अर्थात वाममार्ग का उद्देश्य किसी भी प्रकार से विकासोन्मुखी नहीं है . सनातन सामाजिक व्यवस्था की शल्यक्रियाओं में जितना आस्तिक पंथ प्रचारकों का योगदान था उससे अधिक इन नास्तिकों है. जबकि सनातन सामाजिक व्यवस्था जिसने चार्वाक को भी वैचारिक स्वातंत्रय का अधिकार दिया था को छिन्नभिन्न कर दिया . और प्रयास इस आलेख के लिखे जाने तक जारी है. 
परन्तु  सदी बीतते बीतते भारत में राष्टवाद का पुनर्जागरण का युग शुरू हुआ. जो नई सदी में पुख्ता होता नजर आ रहा है.  2050  तक भारत में  इसी राष्ट्रवाद के सहारे  सनातन सामाजिक व्यवस्था क्रमश: इतना  सशक्त होगी जितनी इजराइल में हुआ है. सत्ताएं आएंगी जाएँगी  पर राष्ट्रवाद के संकल्प के बिना कोई भी शक्ति सत्ता के शीर्ष पर नहीं टिक सकेगी.
तब तक अगर तीसरा विश्व युद्ध हुआ तो ( यद्यपि जो न होगा ) विश्व के नक़्शे में कई देशों के नक़्शे नए होंगें और न हुआ तो भारतीय सांस्कृतिक सामाजिक परिदृश्य में सभी पंथ सौहार्द पूर्ण रूप से जीवित होंगें . 
लेखक के रूप में मैं आशावादी हूँ क्योंकि जिस तेज़ी से मात्र 3 वर्षों में हमारी विश्वनीति सफल हुई है उससे इस बात की तस्दीक होती है कि हम तेज़ी से वैश्विक स्तर पर अन्य देशों की आवाम के दिलों पर राज करेंगें . सनातन सामाजिक व्यवस्था सीमाओं को छीनने पर विश्वास नहीं रखतीं बल्कि चीन और पाक  जैसे देशों को सीमाओं में रहने की नसीहत पर विश्वास रखतीं हैं. 
( आलेख जारी है प्रतीक्षा कीजिये )
       

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