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17.5.14

बता दो.. शून्य का विस्फ़ोट हूं..!!

दूरूह पथचारी 
तुम्हारे पांवों के छालों की कीमत
अजेय दुर्ग को भेदने की हिम्मत 
को नमन... !!
निशीथ-किरणों से भोर तक 
उजाला देखने की उत्कंठा ….!
सटीक निशाने के लिये तनी प्रत्यंचा ...!!
महासमर में नीचपथो से ऊंची आसंदी
तक की जात्रा में लाखों लाख

विश्वासी जयघोष आकाश में 
हलचल को जन्म देती
यह हरकत जड़-चेतन सभी ने देखी है
तुम्हारी विजय विधाता की लेखी है.. 
उठो.. हुंकारो... पर संवारो भी 
एक निर्वात को सच्ची सेवा से भरो
जनतंत्र और जन कराह को आह को 
वाह में बदलो...
**********
सुनो,
कूड़ेदान से भोजन निकालते बचपन 
रूखे बालों वाले अकिंचन. 
रेत मिट्टी मे सना मजूरा 
नर्मदा तट पर बजाता सूर बजाता तमूरा
सब के सब
तुम्हारी ओर टकटकी बांधे
अपलक निहार रहे हैं....
धोखा तो न दोगे 
यही विचार रहे है...!
कुछ मौन है
पर अंतस से पुकार रहे हैं..
सुना तुमने...
वो मोमिन है.. 
वो खिस्त है.. 
वो हिंदू है...
उसे एहसास दिला दो पहली बार कि 
वो भारतीय है... 
नको हिस्सों हिस्सों मे प्यार मत देना
प्यार की पोटली एक साथ सामने सबके रख देना 
शायद मां ने तुम्हारे सर पर हाथ फ़ेर
यही कहा था .. है न.. 
चलो... अब सैकड़ों संकटों के चक्रव्यूह को भेदो..
तुम्हारी मां ने यही तो कहा था है न..!!
मां सोई न थी जब तुम गर्भस्त थे..
तुमने सुना था न.. व्यूह-भेदन तरीका
तभी तो कुछ द्वारों को पल में नेस्तनाबूत कर दिया तुमने
विश्व हतप्रभ है...
कौन हो तुम ?
जानना चाहता है.. 
बता दो.. शून्य का विस्फ़ोट हूं
जो बदल देगा... अतीत का दर्दीला मंज़र...
तुम जो विश्वास हो
बता दो विश्व को ...
कौन हो तुम.... !!
कह दो कि -पुनर्जन्म हूं.. शेर के दांत गिनने वाले का....
***********
चलना ही होगा तुमको 
कभी तेज़ कभी मंथर
सहना भी होगा तुमको 
कभी बाहर कभी अंदर
पर 
याद रखो
जो जीता वही तो है सिकंदर 
·        गिरीश बिल्लोरे मुकुल


26.12.07

दिनेश जी और विजय भैया "मौन साधक" ही तो हैं....!"










पंडित दिनेश पाठक हीरा गुप्त जी के मित्र एवं पत्रकारिता के आधार स्तंभ इसी बरगद ने म० प्र० की पत्रकारिता को परिभाषित करनें में सहज अवदान अपने कर्म से दिया है..........सम्मानित हुए दाँऐ सम्मान ग्रहण करते हुए पत्रकार श्री विजय तिवारी ये
दौनों महानुभाव सम्मान से बचाते रहे खुद को सदा एक ही बात संस्थाओं को कहते रहे भाई.... हमसे योग्य हस्ताक्षर हैं इस प्रदेश में । हम नहीं माने और न मानना ज़रूरी ही था . हम मानते भी क्यों .दौनों की स्वाध्यायनिष्ठ ही वृत्ती जो गुप्त जी के अनुरूप है आम लोगों से परिचित तो कराना ही था इस खबर से . की मौन साधकों की कमी नहीं है इस दुनियाँ में .सादा जीवन उच्च विचार के पर्याय बने इन व्यक्तित्वों को मेरा नमन हम सबका नमन ...... शतायु हों

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धर्म और संप्रदाय

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