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3.11.14

शाह अस्त हुसैन, बादशाह अस्त हुसैन...फ़िरदौस ख़ान

इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम को ख़िराजे-अक़ीदत पेश करते हुए ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती फ़रमाते हैं-
शाह अस्त हुसैन, बादशाह अस्त हुसैन
दीन अस्त हुसैन, दीने-पनाह हुसैन
सरदाद न दाद दस्त, दर दस्ते-यज़ीद
हक़्क़ा के बिना, लाइलाह अस्त हुसैन...
इस्लामी कैलेंडर यानी हिजरी सन् का पहला महीना मुहर्रम है. हिजरी सन् का आग़ाज़ इसी महीने से होता है. इस माह को इस्लाम के चार पवित्र महीनों में शुमार किया जाता है. अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) ने इस माह को अल्लाह का महीना कहा है. साथ ही इस माह में रोज़ा रखने की ख़ास अहमियत बयान की गई है. 10 मुहर्रम को यौमे आशूरा कहा जाता है. इस दिन अल्लाह के नबी हज़रत नूह (अ.) की किश्ती को किनारा मिला था.

कर्बला के इतिहास मुताबिक़ सन 60 हिजरी को यज़ीद इस्लाम धर्म का ख़लीफ़ा बन बैठा. सन् 61 हिजरी से उसके जनता पर उसके ज़ुल्म बढ़ने लगे. उसने हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) के नवासे हज़रत इमाम हुसैन से अपने कुशासन के लिए समर्थन मांगा और जब हज़रत इमाम हुसैन ने इससे इनकार कर दिया, तो उसने इमाम हुसैन को क़त्ल करने का फ़रमान जारी कर दिया. इमाम हुसैन मदीना से सपरिवार कुफ़ा के लिए निकल पडे़, जिनमें उनके ख़ानदान के 123 सदस्य यानी 72 मर्द-औरतें और 51 बच्चे शामिल थे. यज़ीद सेना (40,000 ) ने उन्हें कर्बला के मैदान में ही रोक लिया. सेनापति ने उन्हें यज़ीद की बात मानने के लिए उन पर दबाव बनाया, लेकिन उन्होंने अत्याचारी यज़ीद का समर्थन करने से साफ़ इनकार कर दिया. हज़रत इमाम हुसैन सत्य और अहिंसा के पक्षधर थे. हज़रत इमाम हुसैन ने इस्लाम धर्म के उसूल, न्याय, धर्म, सत्य, अहिंसा, सदाचार और ईश्वर के प्रति अटूट आस्था को अपने जीवन का आदर्श माना था और वे उन्हीं आदर्शों के मुताबिक़ अपनी ज़िन्दगी गुज़ार थे. यज़ीद ने हज़रत इमाम हुसैन और उनके ख़ानदान के लोगों को तीन दिनों तक भूखा- प्यास रखने के बाद अपनी फ़ौज से शहीद करा दिया. इमाम हुसैन और कर्बला के शहीदों की तादाद 72 थी.

पूरी दुनिया में कर्बला के इन्हीं शहीदों की याद में मुहर्रम मनाया जाता है. दस मुहर्रम यानी यौमे आशूरा देश के कई शहरों में ताज़िये का जुलूस निकलता है. ताज़िया हज़रत इमाम हुसैन के कर्बला (इराक़ की राजधानी बग़दाद से 100 किलोमीटर दूर उत्तर-पूर्व में एक छोटा-सा क़स्बा) स्थित रौज़े जैसा होता है. लोग अपनी अपनी आस्था और हैसियत के हिसाब से ताज़िये बनाते हैं और उसे कर्बला नामक स्थान पर ले जाते हैं. जुलूस में शिया मुसलमान काले कपडे़ पहनते हैं, नंगे पैर चलते हैं और अपने सीने पर हाथ मारते हैं, जिसे मातम कहा जाता है. मातम के साथ वे हाय हुसैन की सदा लगाते हैं और साथ ही नौहा (शोक गीत) भी पढ़ते हैं. पहले ताज़िये के साथ अलम भी होता है, जिसे हज़रत अब्बास की याद में निकाला जाता है.

मुहर्रम का महीना शुरू होते ही मजलिसों (शोक सभाओं) का सिलसिला शुरू हो जाता है. इमामबाड़े सजाए जाते हैं. मुहर्रम के दिन जगह- जगह पानी के प्याऊ और शर्बत की छबीलें लगाई जाती हैं. हिंदुस्तान में ताज़िये के जुलूस में शिया मुसलमानों के अलावा दूसरे मज़हबों के लोग भी शामिल होते हैं.

विभिन्न हदीसों, यानी हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) के कथन व अमल (कर्म) से मुहर्रम की पवित्रता और इसकी अहमियत का पता चलता है. ऐसे ही हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) ने एक बार मुहर्रम का ज़िक्र करते हुए इसे अल्लाह का महीना कहा है. इसे जिन चार पवित्र महीनों में से एक माना जाता है.

एक हदीस के मुताबिक़ अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) ने फ़रमाया कि रमज़ान के अलावा सबसे अहम रोज़े (व्रत) वे हैं, जो अल्लाह के महीने यानी मुहर्रम में रखे जाते हैं. यह फ़रमाते वक़्त नबी-ए-करीम हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) ने एक बात और जोड़ी कि जिस तरह अनिवार्य नमाज़ों के बाद सबसे अहम नमाज़ तहज्जुद की है, उसी तरह रमज़ान के रोज़ों के बाद सबसे अहम रोज़े मुहर्रम के हैं.

मुहर्रम की 9 तारीख़ को जाने वाली इबादत का भी बहुत सवाब बताया गया है. सहाबी इब्ने अब्बास के मुताबिक़ हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) ने फ़रमाया कि जिसने मुहर्रम की 9 तारीख़ का रोज़ा रखा, उसके दो साल के गुनाह माफ़ हो जाते हैं और मुहर्रम के एक रोज़े का सवाब 30 रोज़ों के बराबर मिलता है.
मुहर्रम हमें सच्चाई, नेकी और ईमानदारी के रास्ते पर चलने की प्रेरणा देता है.
हुस्ने-क़त्ल असल में मर्गे-यज़ीद है
इस्लाम ज़िन्दा होता है हर कर्बला के बाद...

13.8.13

जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी :फ़िरदौस ख़ान


फ़िरदौस ख़ान

जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी… यानी जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर है. जन्म स्थान या अपने देश को मातृभूमि कहा जाता है. भारत और नेपाल में भूमि को मां के रूप में माना जाता है. यूरोपीय देशों में मातृभूमि को पितृ भूमि कहते हैं. दुनिया के कई देशों में मातृ भूमि को गृह भूमि भी कहा जाता है. इंसान ही नहीं, पशु-पक्षियों और पशुओं को भी अपनी जगह से प्यार होता है, फिर इंसान की तो बात ही क्या है. हम ख़ुशनसीब हैं कि आज हम आज़ाद देश में रह रहे हैं. देश को ग़ुलामी की ज़ंजीरों से आज़ाद कराने के लिए हमारे पूर्वजों ने बहुत क़ुर्बानियां दी हैं. उस वक़्त देश प्रेम के गीतों ने लोगों में जोश भरने का काम किया. बच्चों से लेकर नौजवानों, महिलाओं और बुज़ुर्गों तक की ज़ुबान पर देश प्रेम के जज़्बे से सराबोर गीत किसी मंत्र की तरह रहते थे. क्रांतिकारी रामप्रसाद बिस्मिल की नज़्म ने तो अवाम में फ़िरंगियों की बंदूक़ों और तोपों का सामने करने की हिम्मत पैदा कर दी थी.

सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है ज़ोर कितना बाज़ु-ए-क़ातिल में है
वक़्त आने दे बता देंगे तुझे ऐ आसमां
हम अभी से क्या बताएं क्या हमारे दिल में है...

देश प्रेम के गीतों का ज़िक्र मोहम्मद अल्लामा इक़बाल के बिना अधूरा है. उनके गीत सारे जहां से अच्छा के बग़ैर हमारा कोई भी राष्ट्रीय पर्व पूरा नहीं होता. हर मौक़े पर यह गीत गाया और बजाया जाता है. देश प्रेम के जज़्बे से सराबोर यह गीत दिलों में जोश भर देता है.

सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा
हम बुलबुलें हैं इसकी, यह गुलिस्तां हमारा
यूनान, मिस्र, रोमा, सब मिट गए जहां से
अब तक मगर है बाक़ी, नामो-निशां हमारा...

जयशंकर प्रसाद का गीत यह अरुण देश हमारा, भारत के नैसर्गिक सौंदर्य का बहुत ही मनोहरी तरीक़े से चित्रण करता है.
अरुण यह मधुमय देश हमारा
जा पहुंच अनजान क्षितिज को
मिलता एक सहारा...

हिंदी फ़िल्मों में भी देश प्रेम के गीतों ने लोगों में राष्ट्र प्रेम की गंगा प्रवाहित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. आज़ादी से पहले इन गीतों ने हिंदुस्तानियों में ग़ुलामी की जंज़ीरों को तोड़कर मुल्क को आज़ाद कराने का जज़्बा पैदा किया और आज़ादी के बाद देश की एकता और अखंडता को बनाए रखने के लिए राष्ट्रीय एकता की भावना का संचार करने में अहम किरदार अदा किया है. फ़िल्मों का ज़िक्र किया जाए तो देश प्रेम के गीत रचने में कवि प्रदीप आगे रहे. उन्होंने 1962 की भारत-चीन जंग के शहीदों को श्रद्धांजलि देते हुए ऐ मेरे वतन के लोगों ज़रा आंख में भर लो पानी, गीत लिखा. लता मंगेशकर द्वारा गाये इस गीत का तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की मौजूदगी में 26 जनवरी, 1963 को दिल्ली के रामलीला मैदान में सीधा प्रसारण किया गया. गीत सुनकर जवाहरलाल नेहरू की आंखें भर आई थीं. 1943 बनी फिल्म क़िस्मत के गीत दूर हटो ऐ दुनिया वालों हिंदुस्तान हमारा है, ने उन्हें अमर कर दिया. इस गीत से ग़ुस्साई तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने उनकी गिरफ्तारी के आदेश दिए थे, जिसकी वजह से प्रदीप को भूमिगत होना पड़ा था. उनके लिखे फिल्म जागृति (1954) के गीत आओ बच्चों तुम्हें दिखाएं झांकी हिंदुस्तान की और दे दी हमें आज़ादी बिना खडग बिना ढाल, साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल, आज भी लोग गुनगुना उठते हैं. शकील बदायूंनी का लिखा फ़िल्म सन ऑफ इंडिया का गीत नन्हा मुन्ना राही हूं देश का सिपाही हूं, बच्चों में बेहद लोकप्रिय है. कैफ़ी आज़मी के लिखे और मोहम्मद रफ़ी के गाये फ़िल्म हक़ीक़त के गीत कर चले हम फिदा जान-ओ-तन साथियों, अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों, को सुनकर आंखें नम हो जाती हैं और शहीदों के लिए दिल श्रद्धा से भर जाता है. फिल्म लीडर का शकील बदायूंनी का लिखा और मोहम्मद रफ़ी का गाया और नौशाद के संगीत से सजा गीत अपनी आज़ादी को हम हरगिज़ मिटा सकते नहीं, सर कटा सकते हैं, लेकिन सर झुका सकते नहीं, बेहद लोकप्रिय हुआ. प्रेम धवन द्वारा रचित फ़िल्म हम हिंदुस्तानी का गीत छोड़ो कल की बातें, कल की बात पुरानी, नये दौर में लिखेंगे, मिलकर नई कहानी, आज भी इतना ही मीठा लगता है. उनका फिल्म क़ाबुली वाला का गीत भी रोम-रोम में देश प्रेम का जज़्बा भर देता है.

ऐ मेरे प्यारे वतन, ऐ मेरे बिछड़े चमन, तुझ पे दिल क़ुर्बान
तू ही मेरी आरज़ू, तू ही मेरी आबरू, तू ही मेरी जान...

राजेंद्र कृष्ण द्वारा रचित फिल्म सिकंदर-ए-आज़म का गीत भारत देश के गौरवशाली इतिहास का मनोहारी बखान करता है.
जहां डाल-डाल पर सोने की चिड़िया करती है बसेरा
वो भारत देश है मेरा, वो भारत देश है मेरा
जहां सत्य अहिंसा और धर्म का पग-पग लगता डेरा
वो भारत देश है मेरा, वो भारत देश है मेरा...

इसी तरह गुलशन बावरा द्वारा रचित फिल्म उपकार का गीत देश के प्राकृतिक खनिजों के भंडारों और खेतीबा़डी और जनमानस से जुड़ी भावनाओं को बख़ूबी प्रदर्शित करता है.
मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे मोती
मेरी देश की धरती
बैलों के गले में जब घुंघरू
जीवन का राग सुनाते हैं
ग़म कोसों दूर हो जाता है
जब ख़ुशियों के कमल मुस्काते हैं...

इसके अलावा फ़िल्म अब दिल्ली दूर नहीं, अमन, अमर शहीद, अपना घर, अपना देश, अनोखा, आंखें, आदमी और इंसान, आंदोलन, आर्मी, इंसानियत, ऊंची हवेली, एक ही रास्ता, क्लर्क, क्रांति, कुंदन, गोल्ड मेडल, गंगा जमुना, गंगा तेरा पानी अमृत, गंगा मान रही बलिदान, गंवार, चंद्रशेखर आज़ाद, चलो सिपाही चलो, चार दिल चार रास्ते, छोटे बाबू, जय चित्तौ़ड, जय भारत, जल परी, जियो और जीने दो, जिस देश में गंगा बहती है, जीवन संग्राम, जुर्म और सज़ा, जौहर इन कश्मीर, जौहर महमूद इन गोवा, ठाकुर दिलेर सिंह, डाकू और महात्मा, तलाक़, तू़फान और दीया, दीदी, दीप जलता रहे, देशप्रेमी, धर्मपुत्र, धरती की गोद में, धूल का फूल, नई इमारत, नई मां, नवरंग, नया दौर, नया संसार, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, प्यासा, परदेस, पूरब और पश्चिम, प्रेम पुजारी, पैग़ाम, फरिश्ता और क़ातिल, अंगारे, फ़ौजी, बड़ा भाई, बंदिनी, बाज़ार, बालक, बापू की अमर कहानी, बैजू बावरा, भारत के शहीद, मदर इंडिया, माटी मेरे देश की, मां बाप, मासूम, मेरा देश मेरा धर्म, जीने दो, रानी रूपमति, लंबे हाथ, शहीद, आबरू, वीर छत्रसाल, दुर्गादास, शहीदे-आज़म भगत सिंह, समाज को बदल डालो, सम्राट पृथ्वीराज चौहान, हम एक हैं, कर्मा, हिमालय से ऊंचा, नाम और बॉर्डर आदि फिल्मों के देश प्रेम के गीत भी लोगों में जोश भरते हैं. मगर अफ़सोस कि अमूमन ये गीत स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस या फिर गांधी जयंती जैसे मौक़ों पर ही सुनने को मिलते हैं, ख़ासकर ऑल इंडिया रेडियो पर.

बहरहाल, यह हमारे देश की ख़ासियत है कि जब राष्ट्रीय पर्व स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवय या इसी तरह के अन्य दिवस आते हैं तो रेडियो पर देश प्रेम के गीत सुनाई देने लगते हैं. बाक़ी दिनों में इन गीतों को सहेजकर रख दिया जाता है. शहीदों की याद और देश प्रेम को कुछ विशेष दिनों तक ही सीमित करके रख दिया गया है. इन्हीं ख़ास दिनों में शहीदों को याद करके उनके प्रति अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली जाती है. कवि जगदम्बा प्रसाद मिश्र हितैषी के शब्दों में यही कहा जा सकता है-
शहीदों की चिताओं लगेंगे हर बरस मेले
वतन पे मरने वालों का यही बाक़ी निशां होगा…



12.7.13

कालजयी रचनाकार फ्योदोर दोस्तोयेवस्की...फ़िरदौस ख़ान

फ्योदोर दोस्तोयेवस्की
मशहूर रूसी लेखक फ्योदोर दोस्तोयेवस्की की गिनती शेक्सपियर, दांते, गेटे और टॉलस्टॉय जैसे महान लेखकों के साथ होती है. फ्योदोर दोस्तोयेवस्की का जन्म 11 नवंबर, 1821 को रूस के मास्को शहर में हुआ था. उनके पिता मिखाईल अंद्रयेविच मास्को के मारीइंस्काया नामक खैराती अस्पताल में चिकित्सक थे. वह समाज के धार्मिक तबक़े से संबंध रखते थे और 1828 में उन्हें कुलीनों की श्रेणी मिली. 1831-1832 में उन्होंने तूजर गुबेर्निया में छोटी सी जागीर ख़रीद ली. किसानों के साथ उनका बर्ताव बहुत बुरा था, जिसकी वजह से उनके नौकरों ने 1836 में उनका क़त्ल कर दिया. फ्योदोर दोस्तोयेवस्की की मां का स्वभाव अपने पति के स्वभाव से बिल्कुल उलट था. वह धार्मिक विचारों वाली सभ्य और सुसंस्कृत महिला थीं. उनका देहांत 1837 में हुआ. फ्योदोर दोस्तोयेवस्की के बड़े भाई मिखाईल उनसे बहुत स्नेह करते थे. फ्योदोर दोस्तोयेवस्की ने 1838 में पीटर्सबर्ग के सैन्य-इंजीनियरी विद्यालय में दाख़िला लिया. यहां से पढ़ाई पूरी करने के बाद 1843 में वह सेना में भर्ती हो गए, लेकिन एक साल बाद उन्होंने नौकरी छो़ड दी और सारा वक़्त साहित्य को समर्पित कर दिया.
फ्योदोर दोस्तोयेवस्की के 1845 में प्रकाशित पहले लघु उपन्यास दरिद्र नारायण से उन्हें बेहद कामयाबी मिली. उनकी गिनती मशहूर यथार्थवादी लेखकों की जमात में होने लगी. उनके समकालीन रूसी समालोचक विस्सारिओर बेलीन्सको ने दरिद्र नाराय के बारे में लिखा था-युवा लेखक ने रूसी साहित्य में पहली बार छोटे व्यक्ति के भाग्य को सामाजिक त्रासदी के रूप में अभिव्यक्ति दी है और अधिकारहीन और भूले-बिसरे व्यक्तित्व में गहन मानवीयता का उद्‌घाटन किया है. कुछ वक़्त बाद 1848 में उनका लघु उपन्यास रजत रातें और इसके एक साल बाद 1849 में नेतोच्का नेज्वानोवा प्रकाशित हुआ. इन उपन्यासों में यथार्थवाद के वे लक्षण उभरकर सामने आए, जिन्होंने फ्योदोर दोस्तोयेवस्की को अपने समकालीन लेखकों से अलग दर्जा दिया.
वह 1847 से पांचवें दशक के मुक्ति आंदोलन के एक अहम कार्यकर्ता पेत्रोशेवस्की के मंडल में जाने लगे. इस मंडल में काल्पनिक समाजवादियों की रचनाओं का अध्ययन किया जाता था और 1848 की फ़्रांसीसी क्रांति के विचारों पर चिंतन-मनन किया जाता था. इसका उनके लेखन पर असर प़डा. पेत्राशेवस्की के मंडल के अन्य सदस्यों के साथ फ्योदोर दोस्तोयेवस्की को 23 अप्रैल, 1849 को गिरफ्तार करके पीटर पाल के क़िले में बंद कर दिया गया. उन्हें मौत की सज़ा सुनाई गई. उन्हें गोली मारने से कुछ ही लम्हे पहले ज़ार निकोलाई प्रथम के आदेश पर उनकी मौत की सज़ा को चार साल के निर्वासन (1850-1854) और निर्वासन काल के ख़त्म होने पर आम  सैनिक के तौर पर सैन्य सेवा में बदल दिया गया. 1856 में फ्योदोर दोस्तोयेवस्की को साइबेरिया से पहले त्वेर औरफिर पीटर्सबर्ग आने की इजाज़त मिली. कुछ ही वक़्त बाद 1859 में उनके लघु उपन्यास चाचा का सपना, स्तेपान्चिकोवो गांव और उसके वासी तथा 1851 में अपमानित और अवमानित प्रकाशित हुए. निर्वासन के बाद उनकी लिखी प्रमुख रचना मुर्दाघर की टिप्पणियां थी. साइबेरिया में तक़रीबन दस साल तक शारीरिक और नैतिक यातनाओं के बावजूद उनका ज़िंदगी और इंसान में यक़ीन बना रहा. लेकिन मानवीय व्यथाओं और वेदनाओं के प्रति उनकी संवेदनशीलता और मानव जाति के भाग्य में उनकी गहन रुचि और ज़्यादा बढ़ गई. अब वह पहले से ज़्यादा जोश और लगन के साथ सामाजिक न्याय के रास्ते तलाश करने लगे. इस दौरान वह पत्रकार के तौर पर सामने आए. वह नागरिक नामक पत्रिका का संपादन करते थे, जिसमें उन्होंने अपनी लेखक की डायरी का प्रकाशन शुरू किया, जो बाद में अलग प्रकाशन के रूप में 1876, 1877 में हर माह प्रकाशित हुई. इसमें सामाजिक जीवन के ज्वलंत मुद्दों और साहित्य मुख्य तौर पर शामिल रहा. 9 फ़रवरी, 1881 को पीटसबर्ग में उनका निधन हो गया.
फ्योदोर दोस्तोयेवस्की ने अपनी रचनाओं में जनमानस की परेशानियों और उनकी तकली़फ़ों का वर्णन इस तरह किया है कि पात्र जीवंत हो उठते हैं. उनके लघु उपन्यास दरिद्र नारायण में दो पात्र हैं एक युवा महिला वरवारा दोब्रोसेलोवा है और दूसरा बुज़ुर्ग मकार देवुश्किन है. दोनों आमने-सामने किराये के मकानों में रहते हैं और पत्रों के ज़रिये एक-दूसरे से बातचीत करते हैं. उनके पत्रों से उनकी परेशानियों और एक-दूसरे के प्रति उनके स्नेह का पता चलता है. अपने पत्र में मकार वरवारा को संबोधित करते हुए लिखते हैं-
मेरी प्यारी वरवारा अलेक्सेयेव्ना, आपको मैं यह बताना चाहता हूं कि आशा के विपरीत पिछली रात मैं बहुत अच्छी तरह से सोया और इस बात की मुझे बड़ी ख़ुशी है. वैसे यह सही है कि नई जगह पर और नए घर में हमेशा ढंग से नींद नहीं आती. यही लगा रहता है, यह ऐसे नहीं है, यह वैसे नहीं है. आज मैं बिल्कुल ताज़ा दम होकर, बहुत ही ख़ुश-ख़ुश  जागा हूं. मेरी रानी, आज की सुबह भी कितनी प्यारी है. हमारी खिड़की खुली हुई है, धूप खिली हुई है, पक्षी चहचहा रहे हैं, हवा में बसंत की महक बसी है, प्रकृति अंगड़ाई ले रही है और बाक़ी सब कुछ भी बसंत के अनुरूप है, उसकी सुषमा में ढला हुआ है. मैंने तो आज बड़ी मधुर-मधुर कल्पनाएं भी की हैं और वारेन्का, आप ही उन सारी कल्पनाओं का केंद्र बिंदु है. मैंने आपकी तुलना आकाश में उड़ने वाली चिड़िया से की, जिसका जन्म ही लोगों को ख़ुशी देने और प्रकृति की शोभा बढ़ाने के लिए होता है. इसी समय मैंने यह भी सोचा वारेन्का, चिंताओं और परेशानियों में घुलने वाले हम  लोग भोले-भाले और निश्चिंत गगन-विहारी पक्षियों से ईर्ष्या किए बिना नहीं रह सकते. कुछ ऐसी, इसी तरह की दूसरी बातें भी मेरे दिमाग़ में आईं यानी बहुत दूर-दूर की तुलनाएं करता रहा, उपमाएं ढूंढता रहा. प्यारी वारेन्का, मेरे पास एक किताब है, उसमें यह सब, यही सारी बातें बहुत विस्तार से लिखी हुई हैं. मेरी रानी, मैं इसलिए यह लिख रहा हूं कि तरह-तरह के सपने आया करते हैं दिल-दिमाग़ में और अब तो चूंकि बसंत के दिन हैं तो विचार भी बड़े मधुर-मधुर हैं, तीव्रता से उड़ते-घुमड़ते हैं, मन को छूने वाले हैं और सपने भी हैं बहुत कोमल-कोमल, गुलाबी रंग में रंगे हुए. इसी कारण मैंने यह सब लिख डाला है. वैसे मैंने किताब से ही ये सारी बातें ली हैं. उसमें लेखक ने कविता के रूप में ऐसी ही इच्छा व्यक्त की है और लिखा है-
काश कि मैं पक्षी ही होता
एक शिकारी पक्षी
ऐसी ही अन्य बातें भी. उसमें तरह-तरह के दूसरे विचार भी व्यक्त किए गए हैं. ख़ैर हटाइए उन्हें. यह बताइए कि आज सुबह-सुबह आप कहां गई थीं? आपको एक पौंड मिठाई भेज रहा हूं. आशा है कि वह आपको पसंद आएगी. हां, भगवान के लिए मेरी बिल्कुल भी चिंता नहीं कीजिएगा, किसी भी तरह की बात मन में नहीं लाइएगा. तो विदा, मेरी प्यारी.
इसी तरह वरवारा भी मकार को पत्र का जवाब देते हुए लिखती हैं-
आप जानते ही हैं या नहीं कि आख़िर मुझे आपसे पूरी तरह झगड़ा करना पड़ेगा. दयालु मकार अलेक्सेयेविच, क़सम  खाकर कहती हूं कि आपके उपहार स्वीकार करते हुए मेरे दिल को दुख होता है. मैं जानती हूं कि आपको इनके लिए कितनी क़ुर्बानी करनी पड़ती है. अपने लिए ज़रूरी कितनी चीज़ों से मुंह मोड़ना और इंकार करना पड़ता है. कितनी बार आपसे यह कह चुकी हूं कि मुझे कुछ भी, बिल्कुल कुछ भी नहीं चाहिए कि मैं आपकी अब तक कि कृपाओं का बदला चुकाने में असमर्थ हूं. क्या ज़रूरत थी ये गमले भेजने की? गुल मेहंदी के पौधे तो ख़ैर ठीक हैं, लेकिन जिरेनियम भेजने की क्या ज़रूरत थी? असावधानी से कोई एक शब्द मुंह से निकल जाने की देर है, मिसाल के तौर पर जिरेनियम के बारे में और आप उसे फ़ौरन ख़रीदने चल दिए. सच बताइए, महंगे हैं न? कितने सुंदर फूल हैं उसमें लाल रंग के, क्रॉस वाले. कहां मिल गया आपको जिरेनियम  का ऐसा गमला? मैंने उसे खिड़की के बीचोबीच ऐसी जगह पर रख दिया है कि उस पर सबकी नज़र प़डे, फ़र्श पर एक बेंच रख दूंगी और उस पर दूसरे गमले सजा दूंगी. बस, ख़ुद मुझे कुछ अमीर हो जाने दीजिए. फ़ेदोरा की ख़ुशी का तो कोई ठिकाना ही नहीं. हमारे कमरे में तो अब मानो स्वर्ग की बहार है, साफ़-सुथरा, रौशन. और मिठाइयां भेजने की क्या ज़रूरत थी. हां, मैंने आपके पत्र से अभी यह अंदाज़ा लगाया है कि आपके यहां कुछ  गड़बड़ ज़रूर है-वहां स्वर्ग है, बसंत है, महक-लहक है और पक्षी चहचहाते हैं. आप चाहे कुछ भी क्यों न कहें, मेरी आंखों में धूल झोंकने, मुझे यह दिखाने के लिए अपनी आमदनी का बेशक कैसा ही हिसाब क्यों न पेश करें कि वह सारी आप ख़ुद पर ही ख़र्च करते हैं, आप मुझसे कुछ भी नहीं छुपा सकते. बिल्कुल सा़फ़ है कि आप मेरी ख़ातिर अपनी ज़रूरतों को पूरा करने से इंकार करते हैं.
महान रूसी समालोचक विस्सारिओन बेलीन्की ने अपने लेख 1846 के रूसी साहित्य पर दृष्टि में फ्योदोर दोस्तोयेवस्की के बारे में लिखा था-रूसी साहित्य में श्री दोस्तोयेवस्की के समान तेज़ी से, इतनी जल्दी से ख्याति पाने का मिसाल नहीं है.
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25.7.12

दो जून की रोटी को मोहताज सांस्कृतिक दूत ये सपेरे : फ़िरदौस ख़ान



चित्र साभार : चौथी दुनिया
भारत विभिन्न संस्कृतियों और परंपराओं का देश है. प्राचीन संस्कृति के इन्हीं रंगों को देश के एक हिस्से से दूसरे हिस्से में बिखेरने में सपेरा जाति की अहम भूमिका रही हैलेकिन सांस्कृतिक दूत ये सपेरे सरकारप्रशासन और समाज के उपेक्षित रवैये की वजह से दो जून की रोटी तक को मोहताज हैं. 

देश के सभी हिस्सों में सपेरा जाति के लोग रहते हैं. सपेरों के नाम से पहचाने जाने वाले इस वर्ग में अनेक जातियां शामिल हैं. भुवनेश्वर के समीपवर्ती गांव पद्मकेश्वरपुर एशिया का सबसे बड़ा सपेरों का गांव माना जाता है. इस गांव में सपेरों के क़रीब साढ़े पांच सौ परिवार रहते हैं और हर परिवार के पास कम से कम दस सांप तो होते ही हैं. सपेरों ने लोक संस्कृति को न केवल पूरे देश में फैलायाबल्कि विदेशों में भी इनकी मधुर धुनों के आगे लोगों को नाचने के लिए मजबूर कर दिया. सपेरों द्वारा बजाई जाने वाली मधुर तान किसी को भी अपने मोहपाश में बांधने की क्षमता रखती है.
डफलीतुंबा और बीन जैसे पारंगत वाद्य यंत्रों के जरिये ये किसी को भी सम्मोहित कर देते हैं. प्राचीन कथनानुसार भारतवर्ष के उत्तरी भाग पर नागवंश के राजा वासुकी का शासन था. उसके शत्रु राजा जन्मेजय ने उसे मिटाने का प्रण ले रखा था. दोनों राजाओं के बीच युध्द शुरू हुआलेकिन ऋषि आस्तिक की सूझबूझ पूर्ण नीति से दोनों के बीच समझौता हो गया और नागवंशज भारत छोड़कर भागवती (वर्तमान में दक्षिण अमेरिका) जाने पर राजी हो गए. गौरतलब है कि यहां आज भी पुरातन नागवंशजों के मंदिरों के दुर्लभ प्रमाण मौजूद हैं.
स्पेरा परिवार की कस्तूरी कहती हैं कि इनके बच्चे बचपन से ही सांप और बीन से खेलकर निडर हो जाते हैं. आम बच्चों की तरह इनके बच्चों को खिलौने तो नहीं मिल पातेइसलिए उनके प्रिय खिलौने सांप और बीन ही होते हैं. बचपन से ही सांपों के सानिंध्य में रहने वाले इन बच्चों के लिए सांप से खेलना और उन्हें क़ाबू कर लेना ख़ास शग़ल बन जाता है.

सिर पर पगड़ीदेह पर भगवा कुर्तासाथ में गोल तहमदकानों में मोटे कुंडलपैरों में लंबी नुकीली जूतियां और गले में ढेरों मनकों की माला और ताबीज़ पहने ये लोग कंधे पर दुर्लभ सांप और तुंबे को डाल कर्णप्रिय धुन के साथ गली-कूचों में घूमते रहते हैं. ये नागपंचमीहोलीदशहरा और दिवाली के  मौक़ों पर अपने घरों को लौटते हैं. इन दिनों इनके अपने मेले आयोजित होते हैं.

मंगतराव कहते हैं कि सभी सपेरे इकट्ठे होकर सामूहिक भोज 'रोटड़ाका आयोजन करते हैं. ये आपसी झगड़ों का निपटारा कचहरी में न करके अपनी पंचायत में करते हैंजो सर्वमान्य होता है. सपेरे नेपालअसमकश्मीरमणिपुरनागालैंड और महाराष्ट्र के दुर्गम इलाकों से बिछुड़ियाकटैलधामनडोमनीदूधनागतक्षकए पदमदो मुंहाघोड़ा पछाड़चित्तकोडियाजलेबियाकिंग कोबरा और अजगर जैसे भयानक विषधरों को अपनी जान की बाजी लगाकर पकड़ते हैं. बरसात के दिन सांप पकड़ने के लिए सबसे अच्छे माने जाते हैंक्योंकि इस मौसम में सांप बिलों से बाहर कम ही निकलते हैं.

हरदेव सिंह बताते हैं कि भारत में महज 15 से 20 फीसदी सांप ही विषैले होते हैं. कई सांपों की लंबाई 10 से 30 फीट तक होती है. सांप पूर्णतया मांसाहारी जीव है. इसका दूध से कुछ लेना-देना नहीं हैलेकिन नागपंचमी पर कुछ सपेरे सांप को दूध पिलाने के नाम पर लोगों को धोखा देकर दूध बटोरते हैं. सांप रोजाना भोजन नहीं करता. अगर वह एक मेंढक निगल जाए तो चार-पांच महीने तक उसे भोजन की ज़रूरत नहीं होती. इससे एकत्रित चर्बी से उसका काम चल जाता है. सांप निहायत ही संवेदनशील और डरपोक प्राणी है. वह ख़ुद कभी नहीं काटता. वह अपनी सुरक्षा और बचाव की प्रवृत्ति की वजह से फन उठाकर फुंफारता और डराता है. किसी के पांव से अनायास दब जाने पर काट भी लेता हैलेकिन बिना कारण वह ऐसा नहीं करता.

सांप को लेकर समाज में बहुत से भ्रम हैंमसलन सांप के जोड़े द्वारा बदला लेनाइच्छाधारी सांप का होनादुग्धपान करनाधन संपत्ति की पहरेदारी करनामणि निकालकर उसकी रौशनी में नाचनायह सब असत्य और काल्पनिक हैं. सांप की उम्र के बारे में सपेरों का कहना है कि उनके पास बहुत से सांप ऐसे हैं जो उनके पितादादा और पड़दादा के जमाने के हैं. कई सांप तो ढाई सौ से तीन सौ साल तक भी ज़िन्दा रहते हैं. पौ फटते ही सपेरे अपने सिर पर सांप की पिटारियां लादकर दूर-दराज के इलाक़ों में निकल पड़ते हैं. ये सांपों के करतब दिखाने के साथ-साथ कुछ जड़ी-बूटियों और रत्न भी बेचते हैं. अतिरिक्त आमदनी के लिए सांप का विष मेडिकल इंस्टीटयूट को बेच देते हैं. किंग कोबरा और कौंज के विष के दो सौ से पांच सौ रुपये तक मिल जाते हैंजबकि आम सांप का विष 25 से 30 रुपये में बिकता है।

आधुनिक चकाचौंध में इनकी प्राचीन कला लुप्त होती जा रही है. बच्चे भी सांप का तमाशा देखने की बजाय टीवी देख या वीडियो गेम खेलना पसंद करते हैं. ऐसे में इनको दो जून की रोटी जुगाड़ कर पानी मुश्किल हो रहा है. मेहर सिंह और सुरजा ठाकुर को सरकार और प्रशासन से शिकायत है कि इन्होंने कभी भी सपेरों की सुध नहीं ली. काम की तलाश में इन्हें दर-ब-दर भटकना पड़ता है. इनकी आर्थिक स्थिति दयनीय है. बच्चों को शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं सुविधाएं नहीं मिल पा रही हैं. सरकार की किसी भी योजना का इन्हें कोई लाभ नहीं मिल सकाजबकि क़बीले के मुखिया केशव इसके लिए सपेरा समाज में फैली अज्ञानता को ज़िम्मेदार ठहराते हैं. वह कहते हैं कि सरकार की योजनाओं का लाभ वही लोग उठा पाते हैंजो पढ़े-लिखे हैं और जिन्हें इनके बारे में जानकारी है. मगर निरक्षर लोगों को इनकी जानकारी नहीं होतीइसलिए वे पीछे रह जाते हैं. वह चाहते हैं कि बेशक वह नहीं पढ़ पाएलेकिन उनकी भावी पीढ़ी को शिक्षा मिले. वह बताते हैं कि उनके परिवारों के कई बच्चों ने स्कूल जाना शुरू किया है.

निहाल सिंह बताते हैं कि सपेरा जाति के अनेक लोगों ने यह काम छोड़ दिया है. वे अब मज़दूरी या कोई और काम करने लगे हैं. इस काम में उन्हें दिन में 100-150 रुपये कमाना पहाड़ से दूध की नदी निकालने से कम नहीं हैलेकिन अपने पुश्तैनी पेशे से लगाव होने की वजह से वह आज तक सांपों को लेकर घूमते हैं.

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