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21.3.12

ज्ञान जी को कविता का बहुत गहरा ज्ञान है : मनोहर बिल्लौरे


                        बात उन दिनों की है जब  ज्ञानरंजन  जी नव-भास्कर का संपादकीय पेज देखने जाते थे। सन याद नहीं। तब वे अग्रवाल कालोनी (गढ़ा) में रहा करते थे. सभी मित्र और चाहने वाले अक्सर शाम के समय, जब उन के निकलने का समय होता, पहुँच जाते. चंद्रकांत जी दानी जी मलय जी, सबसे वहाँ मुलाकात हो जाती। आज इंद्रमणि जी याद आ रहे हैं। वे भी अपनी आवारा जिन्दगी में ज्ञान जी के और हमारे निकट रहे और अपनी आत्मीय उपसिथति से सराबोर किया।
उस समय जब ज्ञान जी ने संजीवनीनगर वाला घर बदला और रामनगर वाले निजी नये घर में आये तब काकू (सुरेन्द्र राजन) ने ज्ञान जी का घर व्यवसिथत किया था. जिस यायावर का खुद अपना घर व्यवसिथत नहीं वह किसी मित्र के घर को कितनी अच्छी तरह सजा सकता है, यह तब हम ने जाना, समझा। ज्ञानरंजन की बदौलत हमें काकू (सुरेन्द्र राजन) मिले. मुन्ना भाइ एक और दो में उनका छोटा सा रोल है। बंदिनी सीरियल में वे नाना बने हैं। उन्हें तीन कलाओं में अंतर्राष्ट्रीय अवार्ड मिले है। वे कहते हैं कि फिल्म में काम हम इसलिये करते हैं ताकि महानगर में रोटी, कपड़ा और मकान मिलता रहे।
ज्ञानरंजन जी,
प्रमुख और जरूरी सामान घर आ चुका था। केवल कुछ पुस्तकों और पत्रिकाओं के पुराने बंडल भर आना बाकी थे। उस समय गर्मी की छुट्टियां चल रही थीं। मैंने काम की मस्ती में यह काम तुरत-फुरत निपटा दिया। उन बंडलों में कुछ पुरानी जर्जर पुस्तकें तथा पुरानी पत्रिकाओं के महत्वपूर्ण और सामान्य अंक  थे। मेरा उनके प्रति सम्मान-भाव तब और उत्साहपूर्ण हो गया, जब उन्होंने मुझे पुरानी पत्रिकाओं के वे बंडल रखने और उपयोग करने के लिये दे दिये। उस समय मेरी श्रम के प्रति आस्था देखकर उन्होंने एक वाक्य बहुत विश्वास  के साथ कहा था - ''यह उत्साह यदि बनाये रख सके तो बहुत आगे जाओगे। बाद में कितना विपरीत समय आया. संघर्ष की कितनी परिसिथतियों से गुजरना पड़ा, ऐसे समय में हमेषा उनका संबल साथ रहा और किसी तरह उनसे उबरता रहा. समय के गर्भाशय में क्या कुछ पल रहा है कैसे बताया जा सकता है?
और सच में तब से मैंने आर्थिक प्रगति भले न की हो परंतु मानसिक प्रगति निषिचत रूप से थोड़ी ही सही करता रहा हूँ। बाद में संयोगवष उन्होंने मेरी एक कविता सुनकर 'पहल के 46 वें अंक में तीन-चार और कविताओं के साथ प्रकाषित की थीं। उस समय तक मेरी कविताएं किसी साहि्त्यिक पत्रिका में प्रकाशित  नहीं हुइ थी। अखबारों में ज़रूर यहाँ वहाँ छप जाती थीं।

रामनगर से मेरा और चंद्रकांत जी का घर मुश्किल से एक किलोमीटर पड़ता है। उनके घर तक अब पैदल जाया-आया जा सकता है। शाम या सुबह की सैर उनके साथ करना संभव है, बल्कि की जाती है। कितनी-कितनी बातें वे बताते जाते हैं पैदल घूमते समय। 'दुनिया-भर की। विषय कोइ भी हो, वे उसका किसी ऐसी रासायनिक विधि से विष्लेषण-संष्लेषण कर निष्कर्ष पेश करते हैं कि संवुष्ट होना ही पड़ता है। तर्क बचते ही नहीं। नयी से नयी, पुरानी से पुरानी कोर्इ भी खास घटना हो उन्हें मालूम रहती है। खबरें अखबारों से नहीं आयेंगी तो फोन से आ जायेंगी। देष से नहीं आयेंगी तो विदेष से आ जायेंगी। उन्हें समाचारों तक जाने की आवश्यकता नहीं। संजीवन अस्पताल के पास, रामनगर अधारताल, जबलपुर के 101, नम्बर घर में बिना खास उपकरणों के खास-खबरें दौड़ती चली आती हैं। यहाँ तक कि लोग खबरें देने सदेह पहुँचते रहते हैं। इस दौरान कितने-कितने भाव उनके चेहरे और देह-भाषा द्वारा प्रकट होते हैं यह बस महसूस करने भर की बात है, बयान करने की नही । कितना प्यार भरा है उनकी डांट और फटकार में यह उनके गहरे साथी ही जान और महसूस कर सकते हैं अन्य कोइ और नहीं। उनके अंदर कितना 'ज्ञान है - इसके अंक और मापक हमारे छोटे पड़ जाते हैं।

बहरहाल, हम शहीद स्मारक में मिलते, कुछ देर वहीं - साहित्यिक-असाहित्यिक गप्पें हांकते। घूमते... फिरते... काफी हाउस या किसी और सुथरे रेस्टारेन्ट में बैठते या चहलकदमी करते हुए कहीं कुछ खाते पीते और लौटते। जब कभी मैं और ज्ञान जी कमानिया गेट की तरफ से घर की ओर लौटते। उन्हें चीजों की अच्छी पहचान है। सर्वश्रेष्ठ, सर्वोत्तम और परफेक्ट उनके अंतरंग शब्द हैं। उनका अनुशासन बड़ा तगड़ा है। कर्इ लोग तो उनसे दूर इसी कारण हो जाते हैं, क्योंकि वे इस पाठषाला के अनुषासन का पालन नहीं कर पाते। स्वावाभिक है लापरवाह और स्वार्थी आदमी उनके पास अधिक देर टिक नहीं पाता। कुछ हैं जो उनके व्यक्तित्व और कृतित्व से घबराकर उनके निकट आने से घबराते हैं।

तो बात कमानिया की चल रही थी। वे खूब खिलाते पिलाते और बातें करते रहते। बस छेड़ भर दिया जाये। कमजोर और गलत, हल्की और थोथी बातें उनके बर्दाष्त के बाहर हैं। ऐसे समय पूरे विश्वास के साथ वह बरस पड़ते हैं. और बेरहमी से हमला करते हैं। पर सब पर नहीं अपनों पर, अपने दोस्तों पर। यह उनकी आदत में शुमार है।  लौटते समय साइकिल रिक्षे पर बैठने से पहले वे कभी चने, कभी मूंगफली, या कोइ इसी तरह का, कुछ और टाइम-पास जो अच्छा भर नहीं,  सर्वोत्तम , सर्वोत्कृष्ट हो, वे लाते और इस तरह हम कुछ खाते-पीते साइकिल रिक्शे पर बैठकर घर की ओर लौटते। रास्ते भर कुछ न कुछ बातें होती रहतीं। कभी रिक्षे वाले से वे बातें करने लगते या उससे कुछ पूछते। वे बताया करते - 'बिल्लौरे जी मेरे पास कुछ नहीं था। न घर न फर्नीचर, न किसी तरह का कोर्इ भी ग्रहस्थी का सामान... सब किराये का था। धीरे-धीरे सब कुछ नये सिरे से एक-एक कर जोड़ना पड़ा...।

ऐसा नहीं है कि वे, उनके मित्र साहित्य या संस्कृति, कला या समाज से जुड़े सकि्रयतावादी ही रहते हों और वे केवल ऐसे ही उत्कृष्ट लोगों से सबंध रखते हों। उनके घर का माली, पहल-पैकर, बाइन्डर, कामवाली, दूकान का नौकर या कोइ और अन्य नया पुराना सामान्य व्यकित हो, वह प्यार करते हैं, टूटकर; और आपको झुकना पड़ता है नीचे अपने आप, स्वयंमेव। सहायता के लिये उनकी दोनों बाहें, खुली रहती हैं। उनके अंदर ममत्व है। कोइ उनसे जुड़कर उनसे अलग हो पाये यह अपवाद ही हो, तो हो, नियम या सिद्धांत तो बिल्कुल नहीं है। हाँ एक बात ज़रूर है -  कोइ   स्वार्थी, लंपट, धोखेबाज, चालबाज, लेंड़ू किस्म का जीव क्या ऐसी कोर्इ चीज भी उनके पास क्षण भर टिक नहीं सकती। वे उसे भगायेंगे या दुत्कारेंगे नहीं, पर ऐसा कुछ ज़रूर करेंगे कि सामने वाले की हिम्मत आँख मिलाने की नहीं होगी। वे स्पष्ट वक्ता हैं। अपने सिद्धांतों में पूरी तरह ढले। जिसे उनके अनु्शासन में रहना है पूरे मान से रहे, वरना...!

ज्ञान जी को कविता का बहुत गहरा ज्ञान है। उन्होंने कहीं लिखा है - 'मैं कहानी लिखने के पहले कविताएं जोर-जोर से पढ़ता था। उनसे दनिया भर की कविता के बारे में बात कर लो, राय ले लो, उनकी टिप्पणी सुन लो। किसी भी भाषा के पुरातन और नव्यतम कवि के बारे में बात कर लो, वे विशिष्टताएं बताने लगेंगे। जो खास है, उनके पास है। नहीं है तो आ जायेगा।

कुछ बातें सुननयना जी के बारे में। भाभी जी के घर कोर्इ पीये भले न, खाये बिना जा नहीं सकता। ज्ञान जी जब कभी घर पर नहीं मिलते तो उनसे देर तक बातें की जा सकती हैं। यदि आप आते, जाते रहते हैं। पता नहीं खाने का शौक उन्हें कितना है, पर बनाने का - और उसे कई  लोगों को खिलाने-पिलाने का उन्हें बड़ा शौक है। आप कुछ न कुछ ऐसा जरूर खाकर आयेंगे जो संभवत: पहले कभी आपने कहीं और न खाया-पिया होगा। कुकिंग से उन्हें बड़ा प्रेम है। हमें उस घर में  बड़ा सुकून मिलता है। उनका व्यक्तित्व उनके घर में पूरी तरह रौशन है। ज्ञान की तरह।
आलेख - मनोहर बिल्लौरे,1225, जेपीनगर, अधारताल,जबलपुर 482004 (म.प्र.)मोबा. - 8982175385
प्रस्तुति गिरीश बिल्लोरे मुकुल जबलपुर म.प्र. 

17.6.11

“ज्ञानरंजन जी से मिलकर …!!”

यह आलेख पुन: प्रकाशित करते हुए हर्षित हूं
साभार: ’छाया’ब्लाग से  


               ज्ञानरंजन जी  के घर से लौट कर बेहद खुश हूं. पर कुछ दर्द अवश्य अपने सीने में बटोर के लाया हूं. नींद की गोली खा चुका पर नींद आयेगी मैं जानता हूं. खुद को जान चुका हूं.कि उस दर्द को लिखे बिना निगोड़ी नींद आएगी.  एक कहानी उचक उचक के मुझसे बार बार कह रही है :- सोने से पहले जगा दो सबको. कोई गहरी नींद सोये सबका गहरी नींद लेना ज़रूरी नहीं. सोयें भी तो जागे-जागे. मुझे मालूम है कि कई ऐसे भी हैं जो जागे तो होंगें पर सोये-सोये. जाने क्यों ऐसा होता है
          ज्ञानरंजन  जी ने मार्क्स को कोट किया था चर्चा में विचारधाराएं अलग अलग हों फ़िर भी साथ हो तो कोई बात बने. इस  तथ्य से अभिग्य मैं एक कविता लिख तो चुका था इसी बात को लेकर ये अलग बात है कि वो देखने में प्रेम कविता नज़र आती है :- 
प्रेम की पहली उड़ान है
तुम तक मुझे बिना पैरों 
के ले  आई..!
तुमने भी था स्वीकारा मेरा न्योता
वही  मदालस एहसास
होता है साथ    
तुम जो कभी कह सके
जोखम कभी सुन सके
उसी प्रेमिल संवाद की तलाश थी
प्रेम जो देह से ऊपर
प्रेम जो ह्रदय की धरोहर  
उसे संजोना मेरी तुम्हारी जवाबदारी 
नहीं हैं हम पल भर के अभिसारी 
उन दो तटों सी जी साथ साथ रहतें हैं 
बीच  उनके जाने कितने धारे बहते हैं 
अनंत तक साथ साथ 
होता है  मिलने का विश्वास 
   एक  विवरण जो ज्ञानरंजन जी ने सुनाया उसी को भुला नही पा रहा हूं वो कहानी बार बार कह रही है सबको बताओगे मुझे सबों तक ले चलो तो कहानी की ज़िद्द पर प्रस्तुत है वही ज़िद्दी कहानी
          “ एक राजा था, एक रानी थी, एक राज्य तो होगा ही .रानी अक्ल से साधारण, किन्तु  शक्ल से असाधारण रूप से सामान्य थी. वो रानी इस लिये थी कि एक बार आखेट के दौरान राजा बीमार हो गया. बीमार क्या साथियों ने ज़हर दे दिया मरा जान के छोड़ भी दिया. सोचा मर तो गया है भी मरा होगा तो   कोई जंगली जानवर का आज़ का भोजन बन जाएगा. बूढ़ी मां के लिये बूटियां तलाशती एक वनबाला ने उस निष्प्राण सी देह को देखा. वनबाला ने छुआ जान गई कि कि अभी इस में जीवन शेष है. सोचा मां की सेवा के साथ इसे भी बचा लूं पता नहीं कौन है . जी जाए तो ठीक जिये तो मेरे खाते में एक पुण्य जुड़ जाएगा . बूटी खोजी और बस उसे पिलाने की कोशिश  . शरीर के भीतर कैसे जाती बूटी बहुत जुगत भिड़ाती रही फ़िर  के ज़रिये बूटी का सत डाल दिया उसकी नाक में. इंतज़ार करती रही कब जागे और कब वो मां के पास वापस जाए . आधी घड़ी बीती थी कि राज़ा को होश ही गया. राजा ने बताया कि उसने शिकार की तलाश में भूख लगने पर आहार लिया था ,
वनबाला समझ गई की राजा खुद शिकार हुआ है . उसने कहा – ”राजन, आप अब यहीं रहें मैं आपके महल में जाकर पुष्टि कर लूं कि षड़यंत्र में जीते लोग क्या कर रहे हैं. आप मेरा ऋण चुकाएं. मेरी बीमार मां की सेवा करें. गांव से कंद मूल फ़ल लेकर राजधानी में बेचने निकली. वहां देखा राजभवन बनावटी शोक में  डूबा था. राजपुरोहित ने प्रधान मंत्री से सलाह कर राजा के मंद-बुद्धि भाई को राजा बना दिया था. सच्चे नागरिक उन सत्ताधारियों के प्रति मान इस कारण रख रहे थे क्योंकि उनने प्रत्यक्ष तया सत्ता तो छीनी थी. राजा के असामयिक नि:धन से जनता दु:खी थी. वनबाला ने राजपुरोहित और प्रधान-मंत्री के व्यक्तित्व का परीक्षण किया. ज़ल्द ही जान गई.. वे महत्वाकांक्षी विद्वान हैं. साथ हिंसक भी हैं.राजपुरोहित की पड़ताल में उस कन्या ने पाया कि राज़ पुरोहित तो राजा का वफ़ादार था अपनी पत्नि-पुत्री का ही . उसकी घरेलू नौकरानी बन के देखा था उसने पुरोहित पुत्री के सामने पत्नी पर कोड़े बरसाते हुए. पुत्री भी कम दु:खी थी. पिता की जूतियों से गंदगी साफ़ करती थी. पिता के वस्त्र भी धोती यानी हर जुल्म सहती. वन बाला समझ चुकी थी  जिस देश का विद्वान ही ऐसी हरकतें करे ,वहां जहां नारी का सम्मान हो वो देश देश नहीं नर्क हो जावेगा. बस अचानक एक रात बिना कुछ कहे पुरोहित की नौकरी से भाग के वन गई वापस. राज़ा को हालात बताए. और फ़िर राजा को साथ में शहर फ़िर ले आई अपने  प्रिय राजा को देख जनता में अदभुत जोश उमड़ गया. ससम्मान फ़िर राजा ने गद्दी पर बैठाया महल की कमान सम्हाली वनबाला ने फ़िर वो रानी बनी. ये थी वो कहानी जो कभी मां ने सुनाई ही- एक राजा था, एक रानी थी,यहीं से शुरु होती थी मां की कहानियां. मुझे नहीं मालूम था क्यों सुनाई थी सव्यसाची ने ये कहानी पर आज़ पता चला कि क्यों सुनाई थी.ये एक लम्बा सिलसिला है रुकेगा बहीं सब जानते हैं
                  इस कहानी का प्रभाव मेरे मानस पर गहरा है . पर जिसे नानी-दादी-मां कहानी नहीं सुना पातीं उसके हालत पर गौर करें एक कहानी ये भी है:-
                 एक बात जो मुझे बरसों से चुभ रही है जो शक्तिवान है उसे भगवान मान लेतें हैं शक्ति बहुधा मूर्खों के हाथों में पाई जाती है. जिनकी आंखों में तो विज़न नहीं ही होती है होता मानस में रचनात्मकता. एक दिन एक मूर्ख ने भरी सभा में कंधे उचका-उचका केपाप-पुण्यकी परिभाषा खोज़ रहा था.कुछ मूर्ख भय वश उत्तर भी खोजने लगे कुछ ने दिये भी उत्तर शक्ति शाली था सो नकार दिया उसने . उसे आज़ भी उसी उत्तर की तलाश है इसी खोज-तपास में वह जो भी कर रहा होता है एक सैडिस्ट की तरह करता है. यदी कहीं कोई भगवान है तो ऐसों को समझ दे बेचारा पाप-पुण्य के भेद क्यों खोजे………शायद मां से उसे ऐसी कहानियां सुनी होंगीं जो उसे जीवन के भेद बताती. इसका दूसरा पहलू ये है कि उसे मालूम है जीना भी एक कला है वो एक कलाकार. वो कलाकार जो हंस की सभा में हंस बनके शब्दों का जाल बुनता है कंधे उचकाता है और ऐसे काम करता करता है मनोवैग्यानिक-नज़रिये से केवल एक सैडिस्ट ही कर सकता है. इस किरदार को फ़िर कभी शब्दों में उतारूंगा आज़ के लिये बस इतना ही  

गिरीश “मुकुल”
इसे बांचिये यहां भी :-"प्रगतिशील ब्लॉग लेखक संघ

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