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29.9.23

गुज़रात का गरबा विश्व-व्यापी हो गया

 



जबलपुर का गरबा फोटो अरविंद यादव जबलपुर
जबलपुर का गरबा फोटो अरविंद यादव जबलपुर


`गुजरात के व्यापारियों एवं प्रवासियों  ने सम्पूर्ण भारत ही नहीं बल्कि  विश्व को अपनी संस्कृति से परिचित कराया इतना ही नहीं  उसे  सर्व प्रिय भी बना दिया.

गरबा गुजरात से निकल कर भारत के सुदूर प्रान्तों तथा विश्व के उन देशों तक जा पहुंचा है जहाँ भी गुजराती परिवार जा बसे हैं , 

एक  महिला मित्र प्रीती गुजरात सूरत से हैं उनको मैंने कभी न तो देखा किंतु   कला रुझान को परख कर पहले आरकुट फिर फेसबुक पर  मित्र बन गयीं हैं ,वे मुझसे अक्सर गुजरात के  सूरत, गांधीनगर, भरूच, आदि के बारे में अच्छी जानकारियाँ देतीं है . मेरे   विशेष आग्रह पर मुझे सूरत में   हुए गरबे का फोटो सहजता से भेज दिए .

एक लेखिका  गायत्री शर्मा बतातीं हैं कि  "गरबों की शान पारंपरिक पोशाकों से  चार-गुनी हो जाती है. इनमें महिलाओं के लिए चणिया-चोली और पुरुषों के लिए  केडि़या" गरबा आयोजनों में देखी जा सकती  है।

आवारा बंजारा ब्लॉग  पर प्रकाशित  पोस्ट गरबा का जलवा  में लेखक ने स्पष्ट किया है :-" गुजरात नौवीं शताब्दी में चार भागों में बंटा हुआ था, सौराष्ट्र, कच्छ, आनर्ता (उत्तरी गुजरात) और लाट ( दक्षिणी गुजरात)। इन सभी हिस्सों के अलग अलग लोकनृत्य लोक नृत्यों  गरबा, लास्या, रासलीला, डाँडिया रास, दीपक नृत्य, पणिहारी, टिप्पनी और झकोलिया की मौजूदगी गुजरात के सांस्कृतिक वैभव को मज़बूती प्रदान करती है । 

अब सवाल यह उठता है कि करीब करीब मिलती जुलती शैली के बावजूद  सिर्फ़ गरबा या डांडिया की ही नेशनल या इंटरनेशनल छवि क्यों बनी। शायद इसके पीछे इसका – गरबे के आकर्षक परिधान एवं नवरात्री पूजा-पर्व है।"

एक दूसरा  सच यह भी है कि- व्यवसायिता का तत्व गरबा को प्रसिद्द कर रहा है. फिल्मों में गरबे को , एवं चणिया-चोली केडि़या के आकर्षक उत्सवी परिधान की मार्केटिंग रणनीति ने गरबे  को वैश्विक बना दिया है.”

दूसरी ओर अंधाधुंध व्यवसायिकता से नाराज  ब्लॉग लेखक संजीत भाई की पोस्ट में गरबे की व्यावसायिकता से दूर रखने की वकालत की गई है. 

ब्लॉग पोस्ट पर  भाई संजय पटेल की  टिप्पणी उल्लेखनीय है कि  "संजीत भाई;गरबा अपनी गरिमा और लोक-संवेदना खो चुका है । उनका कहना है कि मैने तक़रीबन बीस बरस तक मेरे शहर के दो प्रीमियम आयोजनो में बतौर एंकर शिरक़त की . अब दिल खट्टा हो गया है. सारा तामझाम कमर्शियल दायरों में सिमटा हुआ लगता  है. पैसे का बोलबाला है इस पूरे खेल में और धंधे साधे जा रहे हैं.'' 

संजय जी की टिप्पणी एक हद तक सही किंतु मैं थोडा सा अलग  सोच रहा हूँ कि व्यवसायिकता में बुराई क्या अगर गुजराती परिधान लोकप्रिय हो रहें है , 

गरबा ही नहीं गिद्दा,भांगडा,बिहू,लावनी,सभी को सम्पूर्ण भारत ने सामूहिक रूप से स्वीकारा है केवल गरबा ही नहीं ये अलग बात है कि गरबा व्यवसायिक प्रतिष्ठानों के सहारे सबसे आगे हो गया ।

इन दिनों अखबार  समूहों  ने भी  गरबे को गुजरात से बाहर अन्य प्रान्तों तक ले जाने की सफल-कोशिश की हैं । 

इंदौर के  गरबा दल की 2008 में  , मस्कट में हुई प्रस्तुति गज़ब थी. . अब कनाडा, बेल्जियम, यूएसए, सहित विश्व के कई देशों में लोकप्रिय हुआ  तो यह भारत के लिए गर्व की बात है ।

सुना है कि- अब तो गरबे के लिए महिला साथी की व्यवस्था भी फीस देकर प्राप्त की जाने लगी है. ।

संजय पटेल जी की शिकायत जायज है. वे गुजराती हैं तथा  गरबे के बदले  स्वरुप से नाराज हैं उनका मत है कि- "चौराहों पर लगे प्लास्टिक के बेतहाशा फ़्लैक्स, गर्ल फ़्रैण्डस को चणिया-चोली की ख़रीददारी करवाते नौजवान,  देर रात को गरबे के बाद (तक़रीबन एक से दो बजे के बीच) मोटरसायकलों की आवाज़ों के साथ जुगलबंदी करते चिल्लाते नौजवान, घर में माँ-बाप से गरबे में जाने की ज़िद करती कमसिन-जवान बेटियाँ इसके अलावा गरबे  के नाम पर लाखों रूपयों की चंदा वसूली, इवेंट मैनेजमेंट के चोचले,  रोज़ अख़बारों में छपती गरबा कर रही लड़के-लड़कियों की रंगीन तस्वीरें, देर रात गरबे से लौटती हुड़दंग मचाती नौजवान पीढी और तो और  डीजे की  कानफ़ोडू आवाज़ें जिनमें से  गुजराती लोकगीतों की मधुरता गुम है. मुम्बईया  फ़िल्मी स्टाइल का संगीत,  बेसुरा संगीत संजय पटेल जी की नाराज़गी की मूल वज़ह है. 

गरबे  के नाम पर बेतहाशा भीड़ से ट्रैफिक जाम,  ...लोगों के लिए कष्ट देने वाला साबित हुआ है.

 रिहायशी इलाक़ों के मजमें धूल,ध्वनि और प्रकाश का प्रदूषण बीमारों, शिशुओं,नव-प्रसूताओं को तकलीफ़ देता है. उस पर नेतागिरी के जलवे । मानों जनसमर्थन जुटाने  के लिये एक राह  खुल गई हो 

नवरात्रों में देवी की आराधना प्रमुख है .अब यह भक्ति-आराधना आयोजनों की चमक-दमक के बीच खो सी गई है.  

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न्यूयार्क के ब्लॉगर भाई चंद्रेश जी ने इसे अपने ब्लॉग Chandresh's IACAW Blog (The Original Chandresh), गरबा शीर्षक से पोष्ट छापी है जो देखने लायक है कि न्यूयार्क के भारत वंशी गरबा के लिए कितने उत्साही हैं

6.10.22

"हाँ भई..नमक का दरोगा है गुजरात..!"

तथ्य संकलन एवं प्रस्तुति:गिरीश बिल्लोरे
        एक प्रोफेसर के एक ट्वीट ने हंगामा बरपा दिया है। महामहिम राष्ट्रपति  ने जब कहा कि भारत की 70% आबादी गुजरात का नमक खाती है। तो इस बात को अन्य अर्थों में ले जाते हुए पॉलिटिकल रंगों में रंगने की कोशिश करने वाले एक राजनीतिक दल के नेता ने महामहिम के वक्तव्य की न सिर्फ आलोचना की बल्कि उनके विरुद्ध अनाप-शनाप बातें  ट्विटर पर कर दीं।
मित्रों, वास्तव में भारत में नमक का दरोगा अगर है तो वह गुजरात ही है। गुजरात के जामनगर, मीठापुर, झाखर, चैरा, भावनगर, राजुला, गांधीधाम, कांधला, मालिया और लावणपुर.  सहित 15 जिलों में दैनिक उपयोग के नमक का उत्पादन होता है। जबकि तमिलनाडु में तूतीकोरिन, वेदारानयम, कोवलांग. आंध्र प्रदेश में चिन्नागंजम, इसकापल्ली, कृष्णापट्टम, काकीनाड़ा और नौपाडा. महाराष्ट्र में भांडप, भायंदतर और पालघर. ओडिसा में गंजम और सुमादी. पश्चिम बंगाल में कोंतेई

राजस्थान में झीलों  सांभर, नेवा, राजस, कुच्चाम, सुजानगढ़ और फलोदी हैं आदि झीलों में नमक की मौजूदगी है.
   जमीन के नमक उत्पादन कच्छ के रण में कारागोंडा, धरंगधारा और संथालपुर मैं होता है.
   पहाड़ियों पर भी नमक का उत्पादन किया जाता हिमाचल प्रदेश में  इसका उत्पादन होता है।
विश्व में नमक का उत्पादन करने वाले प्रथम तीन देशों में अमेरिका चीन और भारत का नाम है। भारत में सर्वाधिक नमक गुजरात के समुद्र तटीय इलाकों से उत्पादित होता है जिसकी आपूर्ति भारत की 70% आबादी के लिए की जाती है। पूरे देश में 11799 यूनिट है.
    
 जबकि आयुर्वेद मैं सबसे महत्वपूर्ण एवं व्रत उपवास करने वाले हर भारतीय साधक के मुंह में जाने वाला नमक जिसे हम सेंधा नमक के नाम से जानते हैं पाकिस्तान से ही आता है। इस लिहाज से तो हम सब पाकिस्तान का नमक खाते हैं। सेंधा नमक को लेकर पाकिस्तान और भारत के बीच एक ऐसी संधि है किसी भी परिस्थिति में इस नमक का आयात न तो भारत रोक सकता न ही पाकिस्तान निर्यात रोक सकता है। सेंधा नमक चट्टानी नमक होता है। आप सोच रहे होंगे कि भारत में सेंधा नमक का उत्पादन बिल्कुल नहीं होता ऐसा नहीं है,
सेंधा नमक राजस्थान के सांभर नामक झील से प्राप्त होता है। परंतु पाकिस्तान में सेंधा नमक के उत्पादन के सापेक्ष भारत में इसकी उत्पादन क्षमता और गुणवत्ता उतनी नहीं है जितनी पाकिस्तान से आने वाले नमक में है।
नमक को लेकर भारतीय फिल्म शोले का एक डायलॉग मुझे याद आ रहा है तेरा क्या होगा कालिया? सरदार मैंने आपका नमक खाया। तो फिर आपको याद होगा कि सरदार ने क्या कहा अब गोली खा. इसी तरह मुंशी प्रेमचंद नमक का दरोगा कहानी लिखकर ईमानदारी की पराकाष्ठा का आकलन प्रस्तुत किया था। कुछ लोग सैलरी मिलते ही सबसे पहले नमक खरीदते हैं। जबकि कुछ खीर में मिठास की समृद्धि को बढ़ाने के लिए चुटकी भर नमक डाल देते हैं। नमक कभी किसी के हाथ में नहीं दिया जाता वरना उस व्यक्ति से झगड़ा हो जाता है । नमक हलाल नमक हराम ई जैसे शब्द बड़े मायने रखते हैं। जबकि कुछ लोग ऐलान करते हुए सीना तान कर यह कहते हुए सुने गए कि-"मैंने तुम्हारा नमक थोड़ी खाया है जो तुम्हारी गुलामी करूंगा ..?"
   नमक का सीधा संबंध नैतिकता से जोड़ा जाता है यह सही है कि भारत में कुल खपत होने वाली नमक की मात्रा का लगभग 70% से अधिक हिस्सा गुजरात से आता है। गांधी और वर्तमान प्रधानमंत्री भी गुजरात से आते हैं गुजरात में महात्मा जी ने  नमक सत्याग्रह प्रारंभ किया था। भारत में नमक का उत्पादन बहुत पुराना है। आयुर्वेद में भी नमक के इस्तेमाल का विवरण प्राप्त है। कहने का अर्थ यही है कि-" सच में गुजरात भारत में नमक का दरोगा है। नमक को लेकर कुछ अवधारणाएं कुछ मिथक तथा कुछ भ्रांतियां हैं..! परंतु हमारे पॉलिटिकल विचारक अध्ययन करते हैं और बातें अधिक करते हैं। विगत 2 दिनों से एक विद्वान प्रोफ़ेसर जो पॉलिटिकल भी हैं ने महामहिम राष्ट्रपति जी के बयान पर सवाल खड़ा करने के लिए  ट्वीट कर दिया। इस समय उनके कारण सोशल मीडिया के प्लेटफार्म ट्विटर का माहौल नमकीन सा हो गया है। इसके साथ साथ लोगों को बात करने का मौका भी नहीं दिया। जब तक पूरी जानकारी न हो तब तक हमें कुछ बोलना अथवा लिखना नहीं चाहिए। अब प्रोफेसर डॉ उदित राज के ट्वीट को ही देख लीजिए महामहिम पर सवाल उठाकर वह अब जनता के आकर्षण का केंद्र बन गए हैं। दशहरा मना कर फुर्सत हुई जनता सोशल मीडिया पर टिकलियां फोड़ते नजर आ रही है ।


  

17.5.14

मोदी विजय पर एक ग़ैर सियासी टिप्पणी “सम्मोहक चाय वाला...!”

 गुजरात के बड़नगर रेल्वे-स्टेशन पर  एक चाय बेचने वाले का बेटा .जो खुद चाय बेचता.. शीर्ष पर जा बैठा भारतीय सांस्कृतिक आध्यात्मिक और धार्मिक आख्यानों में चरवाहे कृष्ण वनचारी राम.. को शीर्ष तक देखने वालों के लिये कोई आश्चर्य कदाचित नहीं . विश्व चकित है.. विरोधी भ्रमित हैं .. क्या हुआ कि कोई अकिंचन शीर्ष पर जा बैठा .. ! भ्रम था उनको जो मानते हैं.. सत्ता धनबल, बाहुबल और छल से पाई जाती है... ! क्या हुआ कि अचानक दृश्य बदल गए .. लोगों को क्या हुआ सम्मोहित क्यों हैं.. इस व्यक्ति का सम्मोहक-व्यक्तित्व सबको कैसे जंचा.. सब कुछ  ज़ादू सरीखा घट रहा था.. मुझे उस दिन आभास हो गया कि कुछ हट के होने जा रहा है.. जब उसने एक टुकड़ा लोहे का मांग लौह पुरुष की प्रतिमा के वास्ते चाही थी. संकेत स्पष्ट था ... एक क्रांति का सूत्रपात का जो एक आमूलचूल परिवर्तन की पहल भी रही है.
                    कितना महान क्यों न हो प्रेरक किंतु जब तक प्रेरित में ओज न हो तो परिणाम शून्य ही होना तय है. इस अभियान में मोदी जी के पीछे कौन था .... ये सवाल तो मोदी जी या उनके पीछे का फ़ोर्स ही बता सकता है किंतु मोदी में निहित अंतस के फ़ोर्स पर हम विचार कर सकते हैं कि मोदी में एक ज़िद थी खुद को साबित करने की. नरेंद्र मोदी जी ने बहुत आरोह अवरोह  देखे हैं.. चाय की केतली कप-प्लेट और चाय ले लो चाय की गुहारना उनके जीवन का पहला एवम महत्वपूर्ण पाठ्यक्रम था. दो वर्ष का हिमालय प्रवास आध्यात्मिक उन्नयन के लिये था जो उनका दूसरा महत्वपूर्ण पाठ्यक्रम कहा जा सकता है.  
तभी तो उनकी , उनके  अन्य प्रतिस्पर्धियों किसी तरह की तुलना गैरवाज़िव हो चुकी है. राहुल जी को निर्माण के उस कसाव से न गुज़रने की वज़ह से उनमें पूरे इलेक्शन कैंपेनिंग में सम्मोहित करने वाला भाव चेहरे पर नज़र न आया. न ही केज़रीवाल न कोई और भी ... आप वीडियो क्लिपिंग्स देखें तो नमो की संवादी शैली आपको मोहित करती लगेगी ऐसा असर तत्कालीन प्रधानमंत्री त्रय  श्रीयुत अटलबिहारी बाजपेई, चंद्रशेखर जी एवम  स्व.इंदिरा जी छोड़ा करते थे . मुझे अच्छी तरह याद है अटलजी, इंदिरा जी और श्री चंद्रशेखर जी जिनको सुनने जनमेदनी स्वेच्छा से उमड़ आती थी. डेमोक्रेटिक संदर्भ में देखा जावे तो – अच्छा, वक़्ता के वक्तव्य में केवल शब्द जाल का बुनकर हो ऐसा नहीं है. आवाम अपने लीडर में परिपक्क्वता देखना चाहती है . उसके संवादों में खुद का स्थान परखती है. उसका सामर्थ्य अनुमानती है तब चुनती है. मेरे इर्द-गिर्द कई लोग आते हैं जो चुगली करता है निंदा करता है उससे मेरा रिश्ता न जाने क्यों टूट जाता है जो कर्मशील होता है उसे पढ़ लेता हूं उसपर विश्वास करता हूं.. मुझ सरीखे करोड़ों होंगे जो कर्मशीलता को परखते होंगें .
कर्मशीलता का संबंध आत्मिक उत्कंठा से है जो भाव एवम बुद्धि की धौंकनी में तप कर जब शब्द बनती है और ध्वनि पर सवार होकर विस्तारित होती है तो एक सम्मोहन पैदा होता है. आरोप,चुगलियां, हथकण्डे, अनावश्यक (कु) तर्कों से सम्मोहन पैदा ही नहीं होता. प्रज़ातांत्रिक संदर्भों में सम्मोहन पैदा करने वाला केवल कर्मठ ही हो सकता है.  अन्य किसी में सामर्थ्य संभव ही नहीं. वक्ता के रूप में मैने भी सैकड़ों बार देखा है श्रोताओं को सम्मोहित करना आसान नहीं . इसके लिये वक्तव्य के कंटेंट में फ़ूहड़ता और मिथ्या अस्वीकार्य कर दी जाती है. मुझे याद नहीं कि इंदिरा जी, बाजपेई जी, चंद्रशेखर जी, के भाषणों में लांछनकारी शब्द रहे थे. उनके संवाद शांत और अनुशासित हुआ करते थे. अटल जी बोलते तो एक एक शब्द अगले शब्द के प्रति जिग्यासु बना देता था. और फ़िर शब्दावली जब पूरा कथन बनती कथन जब पूरा भाषण बनते तो पांव पांव घर लौटते पूरा भाषण मानस पर अंकित हो जाता था. ऐसा लगता था कि किसी राजनीतिग्य को नहीं किसी विचारक को सुन कर लौट रहा हूं. अस्तु कर्म अनुशीलन और चिंतन से ओतप्रोत अभिव्यक्ति का सम्मोहन नमो ने बिखेरा और इसी फ़ोर्स ने एक विजय हासिल की है... आप मेरी राय से असहमत भी हो सकते हैं .. पर मेरी तो यही राय है.

6.10.08

गुजरात का गरबा अब शेष भारत और विश्व का हो गया



जबलपुर का गरबा फोटो अरविंद यादव जबलपुर
जबलपुर का गरबा फोटो अरविंद यादव जबलपुर

गुजरात के व्यापारियों एवं प्रवासियों  ने सम्पूर्ण भारत ही नहीं बल्कि  विश्व को अपनी संस्कृति से परिचित कराया इतना ही नहीं  उसे  सर्व प्रिय भी बना दिया.

गरबा गुजरात से निकल कर भारत के सुदूर प्रान्तों तथा विश्व के उन देशों तक जा पहुंचा है जहाँ भी गुजराती परिवार जा बसे हैं , एक  महिला मित्र प्रीती गुजरात सूरत से हैं उनको मैंने कभी न तो देखा किंतु मेरे कला रुझान को परख कर पहले आरकुट फिर फेसबुक पर  मित्र बन गयीं हैं ,जो मुझसे अक्सर गुजरात के  सूरत, गांधीनगर, भरूच, आदि के बारे में अच्छी जानकारियाँ देतीं है . मेरे आज विशेष आग्रह पर मुझे सूरत में आज हुए गरबे का फोटो सहजता से भेज दिए .  

 लेखिका  गायत्री शर्मा बतातीं हैं कि  "गरबों की शान पारंपरिक पोशाकों से  चार-गुनी हो जाती है. इनमें महिलाओं के लिए चणिया-चोली और पुरुषों के लिए  केडि़या" गरबा आयोजनों में देखी जा सकती  है।
आवारा बंजारा ब्लॉग  पर प्रकाशित  पोस्ट गरबा का जलवा  में लेखक ने स्पष्ट किया है :-" गुजरात नौवीं शताब्दी में चार भागों में बंटा हुआ था, सौराष्ट्र, कच्छ, आनर्ता (उत्तरी गुजरात) और लाट ( दक्षिणी गुजरात)। इन सभी हिस्सों के अलग अलग लोकनृत्य लोक नृत्यों  गरबा, लास्या, रासलीला, डाँडिया रास, दीपक नृत्य, पणिहारी, टिप्पनी और झकोलिया की मौजूदगी गुजरात के सांस्कृतिक वैभव को मज़बूती प्रदान करती है ।

अब सवाल यह उठता है कि करीब करीब मिलती जुलती शैली के बावजूद  सिर्फ़ गरबा या डांडिया की ही नेशनल या इंटरनेशनल छवि क्यों बनी। शायद इसके पीछे इसका – गरबे के आकर्षक परिधान एवं नवरात्री पूजा-पर्व है।"

एक दूसरा  सच यह भी है कि- व्यवसायिता का तत्व गरबा को प्रसिद्द कर रहा है. फिल्मों में गरबे को , एवं चणिया-चोली केडि़या के आकर्षक उत्सवी परिधान की मार्केटिंग रणनीति ने गरबे  को वैश्विक बना दिया है.  "

दूसरी ओर अंधाधुंध व्यवसायिकता से नाराज  ब्लॉग लेखक संजीत भाई की पोस्ट में गरबे की व्यावसायिकता से दूर रखने की वकालत की गई है. ,इस पर भाई संजय पटेल की  टिप्पणी उल्लेखनीय है कि  "संजीत भाई;गरबा अपनी गरिमा और लोक-संवेदना खो चुका है । मैने तक़रीबन बीस बरस तक मेरे शहर के दो प्रीमियम आयोजनो में बतौर एंकर शिरक़त की . अब दिल खट्टा हो गया है. सारा तामझाम कमर्शियल दायरों में है. पैसे का बोलबाला है इस पूरे खेल में और धंधे साधे जा रहे हैं.''

संजय जी की टिप्पणी एक हद तक सही किंतु मैं थोडा सा अलग  सोच रहा हूँ कि व्यवसायिकता में बुराई क्या अगर गुजराती परिधान लोकप्रिय हो रहें है , और यदि सोचा जाए तो गरबा ही नहीं गिद्दा,भांगडा,बिहू,लावनी,सभी को सम्पूर्ण भारत ने सामूहिक रूप से स्वीकारा है केवल गरबा ही नहीं ये अलग बात है कि गरबा व्यवसायिक प्रतिष्ठानों के सहारे सबसे आगे हो गया ।
इन दिनों अखबार  समूहों  ने भी  गरबे को गुजरात से बाहर अन्य प्रान्तों तक ले जाने की सफल-कोशिश की हैं । 

इंदौर का गरबा दल , मस्कट में 2008 छा गया था. अब कनाडा, बेल्जियम, यूएसए, सहित विश्व के कई देशों में लोकप्रिय हुआ  तो यह भारत के लिए गर्व की बात है ।

ये अलग बात है कि गरबे के लिए महिला साथी भी किराए उपलब्ध होने जैसे समाचार आने लगे हैं ।
संजय पटेल जी की शिकायत जायज है. वे गुजराती हैं पर गरबे के बदले  स्वरुप से नाराज हैं क्योंकि - "चौराहों पर लगे प्लास्टिक के बेतहाशा फ़्लैक्स, गर्ल फ़्रैण्डस को चणिया-चोली की ख़रीददारी करवाते नौजवान,  देर रात को गरबे के बाद (तक़रीबन एक से दो बजे के बीच) मोटरसायकलों की आवाज़ोंके साथ जुगलबंदी करते चिल्लाते नौजवान, घर में माँ-बाप से गरबे में जाने की ज़िद करती जवान बेटियाँ और के नाम पर लाखों रूपयों की चंदा वसूली, इवेंट मैनेजमेंट के चोचले रोज़ अख़बारों में छपती गरबा कर रही लड़के-लड़कियों की रंगीन तस्वीरें, देर रात गरबे से लौटी नौजवान पीढी न कॉलेज जा रही,न दफ़्तर, उस पर  डीजे की  कानफ़ोडू आवाज़ें जिनमें से  गुजराती लोकगीतों की मधुरता गुम है. मुम्बईया  फ़िल्मी स्टाइल का संगीत,  बेसुरा संगीत संजय पटेल जी की नाराज़गी की मूल वज़ह है.

आयोजनों के नाम पर बेतहाशा भीड़...शरीफ़ आदमी की दुर्दशारिहायशी इलाक़ों के मजमें धूल,ध्वनि और प्रकाश का प्रदूषण बीमारों, शिशुओं,नव-प्रसूताओं को तकलीफ़ देता है. उस पर नेतागिरी के जलवे ।

मानों जनसमर्थन जुटाने  के लिये एक राह  खुल गई हो

नवरात्रों में देवी की आराधना ...वह भक्ति जिसके लिये गरबा पर्व गुजरात से चल कर पूरे देश में अपनी पहचान बना रहा है गायब है ।

देवी माँ उदास हैं कि उसके बच्चों को ये क्या हो गया है....गुम हो रही है गरिमा,मर्यादा,अपनापन,लोक-संगीत।माँ तुम ही कुछ करो तो करो...बाक़ी हम सब तो बेबस हैं !  

 

न्यूयार्क के ब्लॉगर भाई चंद्रेश जी ने इसे अपने ब्लॉग Chandresh's IACAW Blog (The Original Chandresh), गरबा शीर्षक से पोष्ट छापी है जो देखने लायक है कि न्यूयार्क के भारत वंशी गरबा के लिए कितने उत्साही हैं

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