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16.1.22

कहानी आचार्य चंद्रमोहन जैन लेखक पंडित सुरेंद्र दुबे

ओशो की आलोचना क्यों? इस प्रश्न का उत्तर स्वयं ओशो में छिपा है। वह यह कि ओशो अपने समय के सबसे बड़े आलोचक थे। कोई ऐसे-वैसे आलोचक नहीं बल्कि बड़े ही सुतार्किक समालोचक। जिन्होंने कुछ भी अनक्रिटिसाइज़्ड नहीं रहने दिया। उन्होंने अपनी सदी ही नहीं बल्कि पूर्व की सदियों तक में व्याप्त विद्रूपताओं पर जमकर कटाक्ष किया। उनके बेवाक वक्तव्यों में अतीत और वर्तमान ही नहीं भविष्य के सूत्र भी समाहित होते थे। यही उनकी दूरदर्शिता थी, जो उन्हें कालजयी बनाती है। उन्होंने निर्भीकतापूर्वक परम्परागत धर्मों की जड़ों पर वज्रप्रहार तक से गुरेज़ नहीं किया। इस वजह से कट्टरपंथियों-रूढिवादियों का भयंकर विरोध भी झेला। राजनीति व राजनीतिज्ञों का खुलकर माखौल उड़ाया।जिसके कारण उच्च पदासीनों की वक्रदृष्टि तक पड़ी। जिससे ओशो कभी विचलित नहीं हुए। वे किसी त्रिकाल-दृष्टा की भाँति अडिग भाव से अपने पथ पर बढते चले गए। कभी न तो विरोधियों की परवाह की, न ही समर्थकों को मनमानी करने दी। वस्तुत: उनका अपना आत्मानुशासन था, जिसके बावजूद स्वातंत्र्य उनका मूल स्वर था। जरा देखिए, उन्होंने कितनी अद्भुत देशना दी- "सम्पत्ति से नहीं,स्वतंत्रता से व्यक्ति सम्राट बनता है, मेरे पास मैं हूँ, इससे बड़ी कोई सम्पदा नहीं।" इतने महान ओशो की समालोचना का भार मैंने अपने कान्धों पे उठाया है। यह कोई आसान कार्य नहीं। आपको सिर्फ ओशो की समालोचना को पढते रहना है, यही मेरे श्रम का उपयुक्त मूल्य है।
जगत के ओशो, जबलपुर के आचार्य रजनीश, जो 19 जनवरी 1990 को शाम 5 बजे तक देह में थे। चूँकि आत्मा अजर-अमर-अविनाशी है, अत: देह से मुक्त हो जाने के बावजूद उनके अब भी अस्तित्व में बरकरार होने से इनकार नहीं किया जा सकता। कमोवेश यह ओशो का ही नहीं बल्कि प्रत्येक व्यक्ति का सत्य है। क्योंकि सभी मूलत: सिर्फ शरीर नहीं चिरन्तन शाश्वत आत्मतत्व हैं। आत्मा ठीक वैसे ही अनादि है, सदा से है और सदा रहेगी जैसे परमात्मा और ब्रह्मांड का भौतिक रहस्य अर्थात प्रकृति। इसलिए जाने वाले के प्रति जैसे शोक व्यर्थ है, वैसे ही मोह भी। ऐसा इसलिए क्योंकि मोहजनित 'राग' ही 'बन्धन' का कारण है, जबकि 'विराग' ही 'मुक्ति' का साधन। जो देहमुक्त होकर चले गए भावुक मनुष्य द्वारा प्रेम के वशीभूत उनका पुण्य-स्मरण करते रहना स्वाभाविक सी बात है, किन्तु मोह व राग का बना रहना घातक है। मेरे विचार से सच्चा प्रेम वही है, जो राग रहित हो, जिसका आधार मोह न हो। प्रेम तो बस प्रेम हो, सहज, सरल, निश्छल। ऐसा होने पर ही वह प्रेमी और प्रेमपात्र दोनों के लिए मुक्ति का कारक बनेगा अन्यथा बन्धन। आध्यात्मिक दृष्टि से मुक्ति के लिए इस अहम सूत्र को गहराई से समझना, स्मरण रखना और आचरण में उतारना अति आवश्यक है। फिर दोहराए देता हूँ कि प्रेम और राग में मूलभूत विभेद है, प्रेम मुक्ति का जबकि राग बन्धन का कारण बनता है। आज देखता हूँ कि ओशो जैसी विराट देशना के अध्येता और उनकी ध्यान विधियों के अनुरुप साधनारत देश-दुनिया में फैले करोडों संन्यासी 'ओशोवादी' होने जैसी संकीर्ण मनोवृत्ति के शिकार हो गए हैं। यह सब देख कर मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं है, क्योंकि जिन ओशो ने अपनी शरण में आने वाले आध्यात्मिक रुप से प्यासे व्यक्तियों से उनका जन्मजात पुराना धर्म-जाति आदि परिचय एक झटके में छीनकर 'नए मनुष्य' की संरचना के लिए अभूतपूर्व 'नव-संन्यास' दिया, वे भी उसी अतत: उसी मूढ़ता के शिकार हो गए हैं, जिसके विरोध में बीसवीं सदी के सम्बुद्ध रहस्यदर्शी ओशो सामने आए थे। ओशो ने 'साधक' और 'परमात्मा' के बीच से धर्म-अध्यात्म के ठेकेदारों को हटाने का क्रान्तिकारी कारनामा किया था। यह स्वच्छ-ताजी हवा का एक अतीव आनंददायक झौंका था। लेकिन उनके देहमुक्त होते ही ओशो के अधिकारी स्वयं वही करने लगे आजीवन ओशो जिसके मुखालिफ रहे। दुर्भाग्य ये कि ओशोवाद, ओशोधर्म, ओशोसम्प्रदाय जैसी संकीर्णता सिर उठा चुकी है। ओशो के दीवाने-परवाने-मस्ताने अपने दिल-दिमाग की खिड़कियां, गवाक्ष, वातायन सभी द्वार बन्द किए हुए हठधर्मी सा हास्यास्पद व्यवहार करने लगे हैं। वे पूरी तरह आश्वस्त से हो गए हैं कि अब ओशो से बेहतर 'बुद्ध-पुरुष' का उद्भव इस पृथ्वी पर असम्भव है। ओशो ही भूतो न भविष्यति थे, किस्सा खत्म। हम ओशो कृपाछत्र के तले आत्मज्ञान अर्जन की साधना में रत रहकर सम्बुद्ध होने में जुटे रहें, इस तरह ओशो की धारा के सम्बुद्ध बढ़ते रहें, कोई स्वतंत्र बुद्ध अब मुमकिन नहीं। ओशो के सील-ठप्पे के बिना बुद्धत्व का सर्टिफिकेट मान्य नहीं होगा। सर्वाधिकार सुरक्षित। कॉपीराइट हमारा। खबरदार! किसी ने एकला चलो रे गीत गुनगुनाने की हिमाकत की तो वह मिसफिट करार दे दिया जाएगा, उसकी आध्यात्मिक साधना प्रश्नवाचक हो जाएगी।
ओशो एक इंटरनेशनल ब्रांड हैं, जो जबलपुर से उछाल मारकर देश-दुनिया में छा गए। जबलपुर को अपनी जिन विशेषताओं पर नाज है, नि:संदेह उनमें वे प्रथम पंक्ति में आते हैं। तीस साल पहले देह मुक्त हो चुकने के बावजूद वे आज भी अपने विचारों के जरिए जीवन्त बने हुए हैं। वीडियो में उनको बोलते देखा जा सकता है। ऑडियो में उनकी आवाज़ सुनी जा सकती है। किताबों में उनकी बातें पढ़ी जा सकती हैं। तस्वीरों में उनके दर्शन किए जा सकते हैं। स्मार्ट मोबाइल में एक क्लिक पर उनके विचार जाने जा सकते हैं। इन सभी तरीकों से लोग उनसे जुड़ सकते हैं। उनके विचारों से प्रेरणा ग्रहण कर सकते हैं। यह बाहरी स्तर की बात है। आन्तरिक स्तर में ओशो कम्यून व विभिन्न ओशो आश्रम आते हैं। साधारण जिज्ञासुओं द्वारा भी इसमें ध्यान के लिए प्रवेश किया जा सकता है। कमलपत्रवत नृत्य उत्सव-महोत्सव का आनंद लिया जा सकता है। ओशो लायब्रेरी की सदस्यता लेकर किताबें पढ़ी जा सकती हैं। ओशो जगत के बाहरी व आन्तरिक स्तर के बाद एक तीसरा स्तर आता है, जहाँ लोग अनुयायी बन जाते हैं। आध्यात्मिक प्यास, ऊहापोह भरी मानसिक अवस्था, ओशो-प्रेम के ज्वर, स्व-प्रेरणा या फिर किसी ओशोवादी से प्रभावित या वशीभूत होकर संन्यास ले लेते हैं। हालांकि ज्यादातर ओशो वर्ल्ड का ग्लैमर भी उसका हिस्सा बन जाने की एक बड़ी वजह होता है। यहाँ वह सब आसानी से मुहैया हो सकता है, जो बाहर समाज में पा लेना अपेक्षाकृत कठिन है। इस तरह के लोग बिना गहरी प्यास के मरूंन चोला और ओशो की तस्वीर वाली माला धारण कर लेते हैं। यहीं से घर कर जाती है-संकुचन की बीमारी। जो त्रासदी की भूमिका बनती है। अब ओशो-रंग दिल-दिमाग में इस कदर छा जाता है कि परमात्मा विस्मृत सा हो जाता है। ओशो के प्रति घनीभूत प्रेम शीघ्र ही कट्टर ओशो-भक्त बना देता है। स्वयं की सोच-समझ और स्वविवेक गुजरे जमाने की चीज़ होकर रह जाते हैं। रही सही कसर ओशो-जगत में सहजता से उपलब्ध दैहिक-आकर्षण पूरी कर देता है। इस तरह अधिकतर संन्यासी 'गए थे हरि भजन को ओटन लगे कपास' की विडम्बना के शिकार हो जाते हैं। आत्मज्ञान या सम्बोधि की बात दूर छिटक जाती है, ध्यान-योग से पहले मन भटकाव के बियावान जंगल में दाखिल हो जाता है। जोरबा के चक्कर में बुद्धा हवा हो जाता है। नया मनुष्य दूर की बात है, पुराना मनुष्य और पुराना होकर आदमी की क्षुद्र हैसियत में जकड़ देता है। आखिर में न खुदा मिला न बिसाले सनम यानि न घर के रहे न घाट के वाली त्रिशंकु अवस्था हो जाती है। सिर्फ ओशो-ओशो की जुगाली करते रहना ही शेष रह जाता है। स्वयं के स्तर पर नई खोज का रास्ता बन्द सा हो जाता है। मौलिक सोच-समझ शून्य हो जाती है। विडम्बनाग्रस्त मरूंन चोला-मालाधारी व्यक्ति ओशो-साहित्य की चलती-फिरती प्रदर्शनी मात्र रह जाता है। वह बिजूका सरीखा नज़र आने लगता है। यह सब इसलिए होता है, क्योंकि ओशो की पारस-देशना के मर्म को सतह से नीचे उतर कर तलहटी तक छू पाने में असमर्थ अभागा अनुयायी कभी सोना नहीं बन सकता।

10.9.14

मर्मस्पर्श (कहानी)

       "गुमाश्ता जी क्या हुआ भाई बड़े खुश नज़र आ रहे हो.. अर्र ये काज़ू कतली.. वाह क्या बात है.. मज़ा आ गया... किस खुशी में भाई..?"
        "तिवारी जी, बेटा टी सी एस में स्लेक्ट हो गया था. आज  उसे दो बरस के लिये यू. के. जाना है... !" लो आप एक और लो तिवारी जी.. 
       तिवारी जी काज़ू कतली लेकर अपनी कुर्सी पर विराज गये. और नक़ली मुस्कान बधाईयां देते हुए.. अका़रण ही फ़ाइल में व्यस्त हो गए. सदमा सा लगता जब किसी की औलाद तरक़्की पाती, ऐसा नहीं कि तिवारी जी में किसी के लिये ईर्षा जैसा कोई भाव है.. बल्कि ऐसी घटनाओं की सूचना उनको सीधे अपने बेटे से जोड़ देतीं हैं. तीन बेटियों के बाद जन्मा बेटा.. बड़ी मिन्नतों-मानताओं के बाद प्रसूता... बेटियां एक एक कर कौटोम्बिक परिपाटी के चलते ब्याह दीं गईं. बचा नामुराद शानू.. उर्फ़ पंडित संजय कुमार तिवारी आत्मज़ प्रद्युम्न कुमार तिवारी. दिन भर घर में बैठा-बैठा किताबों में डूबा रहता . पर क्लर्की की परीक्षा भी पास न कर पाया. न रेल्वे की, न बैंक की. प्रायवेट कम्पनी कारखाने में जाब लायक न था. बाहर शुद्ध हिंदी घर में बुंदेली बोलने वाले लड़का मिसफ़िट सा बन के रह गया. किराना परचून की दुक़ान पर काम करने वाले लड़कों से ज़्यादा उसकी योग्यता का आंकलन न तो तिवारी जी ने किया न ही दुनियां का कोई भी कर सकता है. शुद्ध हिंदी ब्रांड युवक था जो उसकी सबसे बड़ी अयोग्यता मानी जाने लगी. तिवारी जी एक दिन बोल पड़े- संजय, तुम्हारे जैसो नालायक दुनियां में दिन में टार्च जला खैं ढूढो तो न मिलहै. देख गुमाश्ता, शर्मा, अली सबके मौड़ा बड़ी बड़ी कम्पनी मैं चिपक गए और तैं हमाई छाती पै सांप सरीखो लोट रओ है. आज लौं. सुनत हो शानू की बाई.. हमाई किस्मत तो लुघरा घांईं या हो गई.. मोरी पेंशन खा..है और  हम हैं सुई ..
भीख मांग है.. पंडत की औलाद जो ठहरो. एम ए पास कर लओ मनौं कछु काबिल नै बन पाओ जो मौड़ा
                                             शानू की मां बुदबुदाई.. "को जानै का का गदत बक़त रहत हैं.मना करो हतो कै सिरकारी स्कूल में न डालो नै माने कहत हते सरकारी अदमी हौं उतई पढ़ै हों.. लो आ गयो न रिज़ल्ट..अब न बे मास्साब रए न स्कूल.. अब भोगो एम ए पास मौड़ा इतै-उतै कोसिस भी करत है तो अंग्रेजी से हार जाउत है."
      अब तुम कछू कहो न.. बाम्हन को मौड़ा है.. कछु कर लै हे.. मंदिर खुलवा दैयो..
"तैं सुई अच्छी बात कर रई है. मंदर खुलावा हौं.. मंदर कौनऊ दुकान या 
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                         धीरे धीरे सब तिवारी दम्पत्ति के जीवन में तनाव   कढ़वे करेले की मानिंद घुलने लगा. पीढ़ा तब और तेज़ी से उभर आती जब कि गुमाश्ता जी टाइप का कोई व्यक्ति अपनी औलाद की तरक़्क़ी की काज़ू-कतली खिलाता. शानू का नाकारा साबित होना निरंतर जारी है. उधर एक दिन तिवारी जी को दिल की बीमारी से घेर लिया. काजू-कतलियां.. रोग का प्रमुख कारण साबित हो रहीं थीं.. अब तो प्रद्युम्न तिवारी को काज़ू-कतली से उतनी ही  घृणा होने लगी  थी जितना कि चुनाव के समय उम्मीदवारों को आपस में घृणा हो जाती है. 
                     शाम घर लौटेते तिवारी जी के पांव तले शानू गिरा पैरों को धोक देते हुए बोला- पिताजी, मैंने शिक्षा कर्मी की परीक्षा पास कर ली. अब व्यक्तिगत -साक्षात्कार शेष है. शुद्ध हिंदी बोलने वाले विप्र पुत्र को विप्र ने हृदय से लगा लिया. आंखें भीग गईं. सिसकते सुबक़ते बोले - जा, काज़ू कतली ले आ कल सुबह आफ़िस ले जाऊंगा..
सानू- पिताजी, अभी नहीं,  व्यक्तिगत -साक्षात्कार के बाद परिणाम आ जाए. तिवारी जी ने सहमति स्वरूप सहमति वाली मुंडी मटका दी.
                घटना ने परिवार को उत्साह से सराबोर कर दिया . बहनों-बेटियों नातेदारों को फ़ोन करकर के सूचित किया तिवारी जी को लगा कि उनको दुनिया भर की खुशियां मिल गईं. 
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     आज़ का दौर खुशियों और कपूर के लिये अनूकूल नहीं. हौले हौले पर्सनल इंटरव्यू का दिन आया . अब तक पराजित हुए शानू ने पूछा - पिताजी, यदि आज़ मैं न चुना गया तो.. ?
पिता ने कहा -बेटा, शुभ शुभ बोलो, तुम पक्का सलेक्ट होगे. 
शानू ने कहा- पर   मान लीजिये न हो पाया तो .......
 तो .. तो ठीक है.. घर मत आना.. आना तब जब बारोज़गार हो.. हा हा.. अरे बेटा कैसी बात करते हो.. 
            "घर मत आना" संजय के मर्म पर चिपका हुआ द्रव्य सा था... जो बार बार युवा नसों में बह रहे लहू में ज़रा ज़रा सा घुलता.. और संजय उर्फ़ शानू के ज़ेहन को जब जब भी चोट करता तब तब  संजय सिहर उठता .. शाम को जनपद पंचायत के दफ़्तर में लगी लिस्ट में अपना नाम न पाकर .. संजय ने जेब टटोला जेब में एक हज़ार रुपए थे जो काफ़ी थे जनरल डिब्बे की टिकट और रास्ते में रोटी खरीदने के लिये. घर न पहुंच संजय   गाड़ी में जा बैठा.   गाड़ी की दिशा उसे मालूम थी वो जान चुका था कि वो दिल्ली सुबह दस ग्यारह बजे पहुंच जाएगा. वहां क्या करना है इस बात से अनभिग्य था. 
                                     और इस तरह  शाम संजय कुमार तिवारी के घर वापस न आने से तय हो गया  
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          अल्ल सुबह रेल हबीबगंज रेल्वे स्टेशन पर जा रुकी. टिकट तो इंदौर तक का था पर संजय ने सोचा कि पहले यहीं रुका जाए. फ़िर अगर भाग्य ने सहयोग न किया तो आगे चलेंगे. स्टेशन के बाहर उतरकर शानू ने दो कप चाय पीकर सुबह का स्वागत किया . संकल्प ये था कि कोशिश करूंगा शाम तक कोई मज़दूरी वाला काम मिले तब कुछ खाऊं . दिन भर मशक्क़त के बाद भी काम न मिला तो शाम एक चादर खरीद लाया बस स्टेशन पर  सो गया. उसकी जेब के एक हज़ार रुपये खर्च के ताप से घुल के अब सिर्फ़ तीन सौ हो चुके थे. सामने पराठे वाले से एक परांठा खरीदा. खाया और स्टेशन पर सो गया. शक्लो-सूरत से सभ्य सुसंस्कृत दिखने की वज़ह से जी आर पी वाले ने तलाशी के वक़्त उससे कोई पूछताछ न की. एक ऊंचा-पूरा युवा तेज़स्वी चेहरा लिये सुबह उठा और फ़िर गांव की आदत के मुताबिक निकल पड़ा सुबह की सैर को.
            तय ये किया कि रोटी का इंतज़ाम किया जाए. चाहे मज़दूरी क्यों न करनी पड़े . सैर करते कराते  शक्तिनगर वाले मंदिर के पास पहुंचते ही देव दर्शन की आकांक्षा जोर मारने लगी. आदत के मुताबिक विप्र पुत्र ने शिव के सामने जाकर सस्वर शिव महिम्न स्त्रोत का पाठ किया. उसके पीछे भीड़ खड़ी हो गई. भीड़ में बुज़ुर्गों की संख्या अधिक थी. लाफ़िंग-क्लब के सदस्य सदाचारी युवक को अवाक देख रहे थे. एक बोला-पंडिज्जी, किस फ़्लेट में आएं हैं..?
“हा हा, फ़्लेट, न दादा जी न.. शहर मे आज़ ही आया हूं. मज़दूरी के लिये..”
मज़दूरी......?
जी हां मज़दूरी....... ! और क्या हिंदी मीडियम से एम ए पास करने वाला क्या किसी कम्पनी के क़ाबिल होता है.
            बुज़ुर्गों की पारखी आंखों ने उसे पहचान लिया ... लाफ़िंग क्लब की गतिविधि से  लौटने तक रुकने का कह के सारे बुजुर्ग मंदिर परिसर में खाली मैदान जैसे हिस्से में हंसने का अभ्यास करने लगे. शानू खड़ा खड़ा वहीं से उनकी गतिविधियां देख रहा था. कुछ  बुज़ुर्गों के पोपले  चेहरे  उसे गुदगुदा रहे थे.
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बेकार नाकारा किंतु जीवट शानू अपनी जगह बनाने के गुंताड़े में कस्बे से पलायन तो कर आया पर केवल मज़दूर बनने से ज़्यादा योग्यता उसे अपने आप में महसूस नहीं कर पा रहा था. छलनी हृदय में केवल जीत की लालसा पता नहीं कैसे बची थी . शायद संघर्ष के संस्कार ही वज़ह हों.. सोच मंदिर से जाने के लिये बाहर निकल ही रहा था कि- सारे बूढ़े बुज़ुर्ग उसके  क़रीब आ गये. सबने उसे रोका और मंदिर में पूजा और देखभाल की ज़िम्मेदारी सम्हालने की पेशक़श कर डाली.. 
क्रमश: अगले अंक तक ज़ारी   

13.10.13

सुनहरे पंखों वाली चिड़िया और पागल

पता नहीं किधर से आया है वो पर बस्ती में घूमता फ़िरता सभी देखते हैं. कोई कहता है कि बस वाले रास्ते से आया है किसी ने कहा कि उस आदमी की आमद रेल से हुई है. मुद्दा साफ़ है कि बस्ती में अज़नबी आया अनजाना ही था. धीरे धीरे लोगों उसे पागल की उपाधी दे ही दी. कभी रेल्वे स्टेशन तो कभी बस-अड्डॆ जहां रोटी का जुगाड़ हुआ पेट पूजा की किसी से चाय पीली किसी से पुरानी पैंट किसी से कमीज़ ली नंगा नहीं रहा कभी . रामपुर गांव की मंदिर-मस्ज़िद के दरमियां पीपल के पेड़ पर बैठे पक्षियों से यूं बात करता मानों सब को जानता हो . कभी किसी कौए से पूछता – यार, तुम्हारा कौऊई-भाभी से तलाक हो गया क्या.. ? आज़कल भाभी साहिबा नज़र नहीं आ रहीं ? ओह मायके गईं होंगी.. अच्छा प्रेगनेट थीं न.. ! मेरी मम्मी भी गई थी पीहर जब मेरा जन्म होने वाला था.
                 उसे किसी कौए ने कभी भी ज़वाब नहीं दिया पर वो था कि उनकी कांव-कांव में उत्तर खोज लेता था संतुष्ट हो जाता था. वो पागल है कुछ भी कर सकता है कुछ भी कह सकता है. हां एक बात तो बता दूं कि उसे सुनहरे पंख वाली चिड़िया खूब पसंद थी हर सुबह चुग्गा चुनने जाने के पहले पागल की पोटली के इर्द गिर्द पड़े दाने सबसे पहले चुगती फ़िर फ़ुर्र से उड़ जाती शाम को आती टहनियों में कहीं छुप जाती. सब जानते हैं पागल सोते नहीं पर वो सोता था . यानी पागल तो न था पर सामान्य भी नहीं था. यानी पूरा मिसफ़िट था फ़िट होता तो कुछ कामकाज़ करता दो रोटी कमाने की जुगत जमाता उसके एक बीवी होती एक दो बच्चे होते, नाई की दूक़ान पर सियासती तप्सरा करता. खुद दफ़्तर से बिना काम-काज़ किये शहर की बज़बज़ाती नालियों की वज़ह खोजता नगर निगम के अफ़सरों से लेकर मेयर तक को कोसता  पर वो ऐसा नहीं था.  जाने क्या क्या कहता रहता था कभी अंग्रेज़ी में तो कभी संस्कृत में . वो पढ़ा-लिखा था  पर कुछ भी बांचते किसी ने नहीं देखा उसे अखबार भी नहीं.. बांचता था तो कभी आकाश कभी कभी ज़मीन .
 एक दिन तो उसने हद ही कर डाली दारू बाज़ रिक्शे वालों के पास जा बैठा लगा समझाने धर्म आध्यात्म की परिभाषा. धार्मिक सहिष्णुता के नफ़े. अब बताओ असलम और कन्हैया को इस उपदेश की ज़रूरत क्या थी वो तो मधुशाला की रुबाई को बिना बांचे ही जी रहे थे.. हम पियाला हम निवाला असलम और कन्हैया ही नहीं आप भी उसको पागल ही कहते अगरचे देखते तो. पागल तो था ही वो .
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 अल्ल सुबह बस्ती में बात बे बात के कौमी दंगा भड़का पागल तब मंदिर मस्ज़िद के दरमियां वाले पीपल के नीचे पोटली पे सर रख के सोया था कि आल्ला-ओ-अक़बर जै श्रीराम के नारे लगाते लोग एक दूसरे  की जान लेते उसे नज़र आए. 
              पागल  के मानस पर जाने कौन सा आघात लगा कि वो गश खाकर गिर पड़ा लोग बदहवास भागम भाग कर रहे थे . कोई किसी को गाली गुफ़्तार नहीं कर रहा था फ़िर भी उन्माद था कि सातवें आठवें आसमान तक विस्तार पा रहा था. घरॊं  से उभरता धुआं  उन्माद की गवाही दे रहा था. बस चील-कौए न आ पाए . बाक़ी वो सब कुछ हुआ जो होता है दंगों में.. अक्सर . किसी की बंदूक चली कि  सुनहरे पंखों वाली चिड़िया पीपल से आ गिरी उस पागल की पोटली के पास जहां अक्सर फ़ुदुक-फ़ुदुक आती थी रात को भोजन से बिखरे चावल-रोटी के टुकड़े चुगने पागल भी चुपचाप  सुनहरे पंखों वाली चिड़िया को बिना डिस्टर्ब किये चुगने देता था. चुपचाप पड़ा रहता था हिलता डुलता भी न था कि कहीं उड़ न जाए डर के सुनहरे पंखों वाली चिड़िया...!
दोपहर तक दंगा शांत हो चुका था पुलिस के सायरन बजते सुनाई देने लगे थे. एक गाड़ी बेहोश पागल के ऐन पास आके रुकी ..
लगता है ये मर गया......!
न देखिये सांस चल रही है.... ! दूसरे ने कहा
चौथा सिपाही  बोला – चलो इसे अस्पताल ले चलो .. मर न जाए.. कहीं..
उसे पीछे चल रही एंबुलेंस में डालने उठाया ही था कि पागल दीर्घ बेहोशी टूटी.. पास पड़ी  चिड़िया को देख चीखा – “ओह, मेरी बेटी .... ये क्या हुआ.. किसने किया .. चीख चीख के कलपते देख पुलिस वाला गाली देते हुए बोला- “स्साला इधर इत्ती लाशें पटी पड़ी हैं ये हरामज़ादा चिड़िया के लिये झीख रहा है..”
साथ खड़ा अफ़सर सिपाही की बदतमीज़ी पर खीज़ गया पर कुछ बोला नहीं उसने ... तभी स्थानीय चौकी का  कांस्टेबिल बोला- “हज़ूर, ये तो पागल है.. चलिये आगे देखते हैं..!” जीप सायरन बज़ाती आगे चल पड़ी उसके पीछे नीली बत्ती वाली सरकारी एंबुलेंस.
विलाप करता हुआ पागल चिड़िया को दफ़नाने जा रहा था कि उसे वो कुछ चेहरे नज़र आए जो दंगे के शुरुआती जयघोष में शामिल दिखे थे उसे..फ़िर उसने सोचा “सुनहरे पंखों वाली चिड़िया बेटी को जला आऊं वहां भी कुछ ऐसा ही हुआ.. बस फ़िर क्या था उसने नर्मदा के प्रवाह में प्रवाहित कर दी उस सुनहरे पंखों वाली चिड़िया बिटिया की देह .. !

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अगली सुबह से पागल दो पत्थर आराधना भवन  पर दो पत्थर साधना भवन पर फ़ैंकने लगा . धीरे धीरे लोग इस बात के  आदी हो गये.. सब जानते थे कि -..”वो तो पगला है..”
          लगातार चलने वाले इस  क्रम देख मैने पूछा –“भाई, ये क्यों करते हो ?”
पागल बोला-“ मेरी सुनहरे पंखों वाली चिड़िया बिटिया को मारने वाले इन्ही में से निकले थे. मुजे मालूम है.. इसमें कोई ऐसा व्यक्ति रहता है जो .. उन्माद फ़ैलाता है.. कभी न कभी तो बाहर आएगा सुनहरे पंखों वाली चिड़िया बिटिया की मौत का हिसाब पूरा कर लूंगा.. सच्ची में बाबूजी ..
मै- भई, ये हरे झंडे वाली जगह जो है खाली है.. वहां सब मिल के अल्लाह  सबके भले के लिये  प्रार्थना करते हैं. जिसे नमाज़ कहते हैं.. और वहां केवल मूर्ति है.. जिसकी पूजन करते हैं लोग..
पागल- तो, लोगों को किसने उन्मादी बनाया तुम झूठे हो बाबू.. झूठ मत कहो..
        पागल को कौन समझाए कि मैने झूठ नहीं कहा सचाई ही कही है. दंगे मंदिरों मस्ज़िदों में से नहीं ऊगते दंगे ऊगते हैं.. ज़ेहन से जहां अक़्ल होती है.. जो हर चीज़ को ज़ुर्म बना देने की ताक़त रखती है.

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15.1.13

और हमारा मुंह खुला का खुला रह गया



और हमारा मुंह खुला का 

खुला रह गया

धीरे धीरे राम धुन पे शव यात्रा जारी थी. लोग समझ नहीं पा रहे थे कि गुमाश्ता बाबू जो कल तक हंसते खिल खिलाते दुनियादारी से बाबस्ता थे अचानक लिहाफ़ ओढ़े के ओढ़े बारह बजे तक घर में क़ैद रहे .  रिसाले वाले गुमाश्ता बाबू के नाम से प्रसिद्ध उन महाशय का नाम बद्री प्रसाद गुमाश्ता था. अखबार से उनका नाता उतना ही था जितना कि आपका हमारा तभी मुझे "रिसाले वाले" उपनाम की तह में जाने की बड़ी ललक थी. अब्दुल मियां ने बताया कि दिन भर गुमाश्ता जी के हाथ में अखबार हुआ करते हैं . उनका पेट एक अखबार से नहीं भरता. अर्र न बाबा वो अखबार खाते नहीं पढ़ते है. देखो क़रीम के घर जो अखबार आता है उन्हीं ने लगवाया विश्वनाथ के घर भी और गुप्ता के घर भी.मुहल्ले में  द्वारे द्वारे सुबह सकारे उनकी आमद तय थी. शायद ही गुमाश्तिन भाभी ने उनको कभी घर में चाय पिलाई हो ? अक्सर उनकी चाय इस उसके घर हुआ करती थी होती भी क्यों न पिता ने उनको बेचा जो था 1970 के इर्द-गिर्द गुमाश्ता जी की बिक्री दस हज़ार रुपयों में हुई थी तब वे तीसेक बरस के होंगे. और तब से आज़ तक वे घर जमाई के रूप में गुमाश्तिन भाभी के घर के इंतज़ाम अली ही रहे उससे आगे उनकी पदोन्नति ठीक वैसे ही नहीं हो सकी जैसे एक ईमानदार की अक्सर नहीं हुआ करती.. कभी कभार हो भी जाती है.. गुमाश्तिन भाभी चाहतीं तो बद्री प्रसाद गुमाश्ता का ओहदा बढ़ सकता था बकौल  गुमाश्ता जी-’हमाई किस्मत में जे सब कहां कि हम किसी भी नतीज़े को घर पे लागू करें. 
        वास्तव में गुमाश्ता जी का विवाह जबरिया किंतु कारगर कोशिश थी. पिता भी  नाकारा बेटे से कुछ हासिल किये बिना रहना नहीं चाहते थे. उधर रेहाना सुल्तान की फ़िल्में देख देख बिगड़ रही बेटी के लिये भी कोई ढंग का लड़का चाहिये था गुमाश्तिन के पिता को राम ने जोड़ी मिला तो दी परंतु  गुमाश्तिन को पसंद न थे गुमाश्ता जी सतफ़ेरा पति छोड़ा भी न जा सके है सो भई गुमाश्तिन ने भी दिल का खजाना उनसे ही भरने की कोशिश की पर बेमेल विवाह ही था वे थीं फ़िल्मी स्वप्नों से भरी सुंदरी  और वो थे बुद्धू कालीदास बनाने की खूब कोशिश की पर न बन पाए. एक प्रायवेट स्कूल के मास्टर बना दिये गये मास्टर बनाने के पहले ससुर जी ने बोला-’सुनो दामाद जी, हमाई इज्जत मट्टी में मत मिलैयो. आज्ञाकारी तो थे ही निची मुंडी कर हां कही पर सुनाई न दी ससुर जी मुंडी के ऊपर से नीचे होने से समझ गये कि दामाद उनकी इज़्ज़त बरकरार रखेंगें. 
      पर उन दिनों शरद यादव की ऐसी आंधी चली की देश के लिये कुछ नया करने की जुगत में बद्री प्रसाद भी विज्ञप्ति वीर बन गए. मैनेजमेंट दूसरी पार्टी वालों का था सो नौकरी चली गई. बहुत दिनों तक भाई उनके डंडे-झण्डे लगाते बिछायत करते कराते अपने सुनहरे कल के सपने में खोये रहे तब से बीवी की  नज़रों से गिर गये . ऐसे गिरे कि बस मत पूछो उनको अपचारी घोषित कर दिया गुमाश्तिन ने.तब से  गुमाश्तिन ने सुबह की चाय तो क्या नहाने को गरम पानी तक न दिया होगा . तब तक जोड़े की गोद में एक और गुमाश्ता आ चुका था. गुमाश्तिन भाभी ने बेटे के पिता के खट जबलईपुर ब्रांड बापत्व से परे रखने की ग़रज़ से बड़े भाई के कने दिल्ली रवाना कर दिया  
    याद आया एक शाम न शाम न थी वो रात के दस बजे थे इक्का दुक्का दारूखोर सड़क पे गाली गुफ़्तार करता गुजर रहा था बद्री को पान खाने की तलब लगी. बाहर निकले ही थे कि भीतर से एक आवाज़ भी साथ साथ निकली-’ जाओ, घूमो फ़िरो फ़िर रात दो बजे तक लौटना..! न जाओगे तो मालवीय जी की मूर्ती कोई चुरा लेगा..  शहर कोतवाली की जिम्मेदारी जो है..! 
      गुमाश्तिन के ये डायलाग पहली बार बाहर गूंजे थे  फ़िर तो जब ये आवाज़ न सुनाई दे तो जानिये कि गुमाश्तिन भाभी या तो बीमार हैं या आऊट आफ़ सिटी. 
   तो मित्रो  हां गुमाश्तिन भाभी के "वो" आज़ अचानक गुज़र गये..? और गुमाश्तिन जी आऊट आफ़ कंट्री 
क्या हुआ ... अर्र... बाप रे... भाभी कहां है.. और बच्चे...... कैसे हुआ.. हे राम.. बेचारे.......... 
 इधर उधर से पता साजी करने पर पता लगा कि भाभी अपने विदेशी बेटे के पास एक महीने से गई हैं. क्रिया करम के लिये एक रिश्ते का भाई हाज़िर हुआ. एक दिन में बद्री की बरसी तक निपटा दी.
  तीन महीने बाद......
गुमाश्तिन का बेटा शहर आया मुहल्ले भर के लोगों को घर बुलवाया सबको आभार कहा कि- आपने हमारे पिता जी आखिरी तक साथ  दिया हम न आ सके इस बात का हमें रंज है. मां ने सबको धन्यवाद देने के लिये भेजा है.पिता की स्मृति में वो विदेशी अपने साथ  उपहार लाया सारे मुहल्ले वालों के लिये .संस्कारवश किसी ने ना नुकुर न की ... धन्यवाद के बोल बोलता गुमाश्ता जी का कुल दीपक ने जो भी बोला मुझे तो लगा वो कह रहा है- Thank's .. काश आप न होते तो मुझे आना पड़ता नुकसान हो जाता मुझे .      
                          गुमाश्ता के कुलदीपक ने पूरी ईमानदारी और प्रोफ़ेसनली मुहल्लेदारी निबाही आखिर संस्कारवान लड़का जो था. सब कह रहे हैं .. इस स्मृति भैंट को ग्वारीघाट में बांट देते हैं किसी बुद्धिमान की सलाह पर मुहल्ले वाले मंदिर पर उन दीपकों को भेजा गया.. पुजारी रोज जगाता है निट्ठल्ले बद्रीप्रसाद गुमाश्ता के स्मृति-दीप.. मंदिर में भगवान के पास. मुहल्ले को खूब याद आते हैं वे.. उनकी सहज मुस्कान 
      कल ही की तो बात है कोई कह रहा था- गुमाश्ता जी के बिना मुहल्ले में शून्यता सी छा गई है. 
      इसे सुन किसी ने कहा:-  ये तो बानगी है आने वाले दिनों में ऐसे कई गुमाश्ते जी मुहल्लों को सूना करेंगे..  
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यशभारत 20.01.2013





19.2.11

संगीता पुरी जी की कहानी मेरी जुबानी:अर्चना चावजी (पाडकास्ट)

साभार: "स्वार्थ"ब्लाग से
               आज इस व्‍हील चेयर पर बैठे हुए मुझे एक महीने हो गए थे। अपने पति से दूर बच्‍चों के सानिध्य में कोई असहाय इतना सुखी हो सकता है , यह मेरी कल्‍पना से परे था। बच्‍चों ने सुबह से रात्रि तक मेरी हर जरूरत पूरी की थी। मैं चाहती थी कि थोडी देर और सो जाऊं , ताकि बच्‍चे कुछ देर आराम कर सके , पर नींद क्‍या दुखी लोगों का साथ दे सकती है ? वह तो सुबह के चार बजते ही मुझे छोडकर चल देती। नींद के बाद बिछोने में पडे रहना मेरी आदत न थी और आहट न होने देने की कोशिश में धीरे धीरे गुसलखाने की ओर बढती , पर व्‍हील चेयर की थोडी भी आहट बच्‍चों के कान में पड ही जाती और वे मां की सेवा की खातिर तेजी से दौडे आते , और मुझे स्‍वयं उठ जाने के लिए फिर मीठी सी झिडकी मिलती। ( आगे=यहां ) संगीता पुरी जी की कहानी का वाचन करते हुए मैं अभिभूत हूं.


19.5.10

मेरी प्रतिमा की स्थापना

http://www.imagesofasia.com/html/india/images/large/road-sweeper.jpgबात पिछले जन्म की है. मैं नगर पालिका में मेहतर-मुकद्दम था.पांच वार्ड मेरे नियंत्रण में साफ़ सुथरे हुआ करते थे. लोगों से मधुर सम्बंध यानी जब वे गरियाते तो हओ भियाजी कह के उनका आदर करता. सदाचारी होने की वज़ह से लोग भी कल्लू मेहतर का यानी मेरा मान करने लगे.इसका एक और कारण ये था कि मैने सरकारी खज़ाना लूटने वाले एक अपराधी से पैसा बरामद कराया पूरा धन सरकार के अफ़सरों को वापस कराया . इधर परिवार में मैं और दुखिया बाई  ही थे. मेरी  पहली पत्नी दुखिया बाई से हमको कोई संतान न थी सो दूसरी ब्याहने की ज़िद करती थी दुखिया. उसके  आगे अपने राम की एक न चली. सो दुखिया  की एक रिश्तेदारिन को घर बिठाया. यानि दो से तीन तीन से चार होने में बस नौ माह लगे. दुखिया बाई का दु:ख मानों कोसों दूर हो गया. नवजात शिशु को स्नेह की दोहरी छांह मिली. घर में खुशहाली जीवंत खेतों की मानिंद मुस्कुरा रही थी. ग़रीब का सुख फ़ूस के  तापने से इतर क्या हो सकता है. भारतीय गंदगी को साफ़ करते कराते टी.बी. का शिकार हो गये हम. और अचानक गांधी जयंती को हमारी मौत हो गई.  ब्राह्मणों-बनियों-ठाकुरों-लोधियों  की चाकरी करते कराते पचास की उमर में मरना मुझे समझ न आया यम लोक में  हिसाब किताब जारी था. यमराज ने जब मेरे जीवन का हिसाब किया तो पांच बरस पहले मुझे ज़मीन से लाने वाले यमदूत को सस्पैन्ड किया दूसरे वापसे लेके गये तो पता चला कि देह का क्रिया कर्म सम्पन्न हो चुका था. मामला यमराज़ के हाथ से निकल कर विष्णु जी के पास गया. भगवान बोले:-”ग़लती तो चित्र गुप्त की भी है जो मेमो पर साफ़-साफ़ कल्लू देवधर की जगह कल्लू मेहतर लिखे हैं अब कल्लू देवधर पांच साल बाद मरेगा.रहा सवाल कल्लू मेहतर का तो दस साल राजसी ठाठ बाट से स्वर्ग में रखा जाये.”
मैं:-”सरकार, मुझे, यदा कदा घर परिवार को देखने की अनुमति मिले.”
भगवान बोले:-कल्लू जी आपने सदा सत्य और सादगी का  जीवन जिया है आपको पूरी सुविधा दी जावेगी.
https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEikHvi-Gpq0v1MlA-zeUQ7JIVYDP7Blm5Yb2muEVsB-FHhUiVDgnf_WEN8zslgIBzN5EheiXJrY-uIsnFT2hoGGvkLZ51sGc-69qnTLKlF-HaBkMvRv8iRIGoVGRR-J9N1jN5hkxJpC_I6W/s320/3345527-lg.jpghttp://www.bhaskar.com/2010/01/03/images/child1.jpghttp://www.sameera.co.in/images/lady.jpg 

उपरोक्त चित्र गूगल बाबा की मदद से मिले हैं प्रथम प्रस्तोताओ का अग्रिम  आभार 

एक दिन गांव-घर की यादों ने डेरा जमाया . सो स्वर्ग के प्रबंधक देव से आज्ञा लेकर हम पृथ्वी लोक पहुंचे.वहां देखा तो  बहुत उम्दा तरीके से बेटे की परवरिश दोनों माताएं कर रहीं थीं. मेरी पत्नीयों में गहरी आत्मीयता न सौतिया डाह तब थी न अब मुझे उसकी परवरिश पर कोई गलत फहमी न थी. मरते वक्त 10 बरस का बेटा  था अब दिन दूना बढ़ता देख मन खुश था. स्वर्ग से नियमित आता देखता और वापस वहीं  स्वर्ग में ....यह क्रम बरसों चला. अबकी यात्रा में पता चला कि मेरे बेटे का वोटर-कार्ड बन चुका है. अपनी समाज  में पढ़ा-लिखा होने के कारण  उसे नगर पालिका का अध्यक्ष का चुनाव भी लड़ा जीता भी. मेरा सीना फ़ूल के कुप्पा था . 
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जीवन भर कूड़ा करकट गंदगी मैला साफ़ करने में जीवन बीता आज़ बेते को उंचे ओहदे पे देख मन खुश हुआ. सो पालिका की पहली मीटिंग में प्रभू की विशेष अनुमति से पहुंचा. मीटिंग में सी०ई०ओ० ने प्रस्तावित किया कि 
सर, चौराहों के विकास के लिये धन मिला है क्यों न किसी महा पुरुष की मूर्ती भी स्थापित की जावे ?
सदन में काना फ़ूसी हुई पार्षद सेठ दौलत राम ने कहा:- ”सभासदो,मैं साहब के प्रस्ताव से सहमत हूं मूर्ती लगाई जाए " पार्षद जगन ने कहा :”हर चौक  पे गांधी,नेहरू,सरदार पटैल,लक्ष्मी बाई की मूर्ती लगी है. अब किसकी लगाओगे ?
भी मैं यह बताने कि अब किसी मज़दूर की तस्वीर लगाओ पुत्र के मानस में गया . मुझे देखते ही वो चीख पढ़ा ”दादू जी”
लोगों ने सोचा पुत्र "मेरी प्रतिमा की बात कर रहा है. बहुमत से सबने प्रस्ताव पास कर दिया."
पार्षद सेठ दौलत राम की लग बैठी मार्बल का व्यापारी ठहरा सी०ई०ओ० को सेट किया आनन-फ़ानन  टैंडर निकाले आदेश जारी हुए. मूर्ती दो माह बाद आनी थी. 
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दो माह बाद 
मन में उछाह लिये कल्लू राम चौक मैं पहुंचा तो मूर्ति का मुंह किधर हो इस पर अधिकारी बतिया रहे थे. परिषद के नेता भी थे .... सारे लोग एक राय थे की मेरी मूर्ती का चेहरा न तो पालिका की तरफ़ हो न ही पैट्रोल पम्प की तरफ़, न सर्राफ़ा और अनाज़ मंडी की ओर, बस हो तो  पान वाले की दूकान की तरफ़ . जहां डण्डी मारों के ठेले लगे हैं. दलील ये दी जा रही थी ... कल्लू जी अव्वल-दर्ज़े के ईमानदार थे. आम आदमी अगर ईमानदार हो जाए तो दुनिया काया कल्प हो जाएगा ..... एक आदमी कह रहा था:”साले रेहड़ी वाले रोज़ डण्डी मारते है, पान वाला नकली कत्था यूज़ करता है, गोलू मोची नकली पालिश वापरता है इनको सुधारने की ज़रूरत है.!”

मूर्ती का अनावरण होने तक मैं वहीं रुका. एक दिन सोचा इसमें रुक जाऊं. देखा आज़ पान वाला,रेहड़ी वाला, मोची सब पूरी ईमान दारी से व्यापार कर रहे हैं............. बाक़ी लोग......बाकी लोग ....... आगे आप सब समझदार है सोने में मिलावट, पालिका में घूस, पैट्रोल पम्प पर कम तौल, अनाज़ में ..........यानी मेरी मूर्ती से पसीना सा निकलने लगा आंखों से आंसू .... तभी एक कौआ मेरे सर पर..............बीट कर गया

4.11.08

मेरा संसार :ब्लॉग कहानी

आचार्य रजनीश
(वेब दुनिया से साभार )

सर , और सर के चम्मच जो सर के खाने के सहायक उपकरण होते हैं को मेरा हार्दिक सलाम मैं….. आपका दास जो आपको नहीं डालता घास ,इसलिए क्योंकि आप कोई गधे थोड़े हैं॥ आप आप हैं मैं आपका दास इतना दु:साहस कैसे करूँ हज़ूर । आप और आपका ब्रह्म आप जानिए मेरा तो एक ही सीधा सीधा एक ही काम है.आपकी पोल खोलना . आपकी मक्कारियों की पाठशाला में आपको ये सिखाया होगा कि किस तरह लोगों को मूर्ख बनाया जाता है..किन्तु मेरी पाठशाला में आप जैसों को दिगंबर करने का पाठ बडे सलीके से पढाया गया मैंनें भी उस पाठ को तमीज से ही पढा है.तरकश का तीर कलम का शब्द सटीक हों तो सीने में ही उतरते हैं सीधे ॥ तो सर आप अपने स्पून सम्हाल के रखिये शायद ये आपके बुरे वक़्त में काम आ जाएँ । परंतु ऐसा कतई नहीं . होगा सर आप अपने सर से मुगालता उतार दीजिए । कि कोई चम्मच खाने के अलावा कभी और उपयोग में लाया जा सकता है॥

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एक ऑफिस में बॉस नाम की चीज़ भेजी जाती है…..लोग समझते हैं कि बॉस ऑफिस चलाता है । यहाँ आपको बता दूं - ऑफिस तो चपरासी जिसका नाम राजू आदि हों सकता हैवोही तो ऑफिस खोलता सुबह समय पर तिरंगा चढाता है। शाम उसे निकालता है आवेदन लेता है साहब को बाबू के हस्ते आवेदन देता है । आवेदक को काम के रस्ते बताता है…! बेकार फ़ाइल जिससे कुछ उपजने की उम्मीद ना हों ऎसी नामुराद नास्तियों को बस्ते में सुलाता है। अब भैया ! आप ही बताओ न ! ऑफिस कौन चलाता है….?

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आप को इस बात को समझाता हूँ -”सरकार में लोग बाग़ काम करतें हैं काम होना तो कोई महत्वपूर्ण बात है ही नहीं महत्त्व तो काम नहीं हों तब दीखता है अब देखिए न….. दफ्तर में बाबूलाल की अर्जी के खो जाने का ठीकरा मैने जांच के बाद राजू भृत्य के सर फोड़ दिया बाबूलाल भी खुश हम भी खुश । जिम्मेदारी तय करने जब लोग निकले हजूर पाया गया छोटी नस्ल के कर्मचारी दोषी हैं । भैया दोषी वोही होता है जो सबसे ज्यादा ज़िम्मेदार हों जैसे मेरा चपरासी राजू …!भैया ! देखा सबसे छोटा सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदार है देश में बाकी आप खुद समझ दार हैं ……आगे क्या लिखूं …. आप समझ गए न ।

@@@@

तो भाई इस लम्बी कहानी में मैं हूँ ,आप हैं हम सभी तो हैंचालू रहेगा ये उपन्यास जो राग दरबारी वाले आई.ए.एस.की तर्ज़ पर तो नही पर उनसे प्रभावित ज़रूर होगा अगर ये आपकी आत्म कथा है तो आन लाईन कमेन्ट दे देना शायद मेरे काम आ जायेगी

आपकी बात……ऊपर जो लिखा सो लिखा उसे भूल जाना वो तो यूँ ही लिख दिया कहानी शुरू होती हैअब सो सुन भाई साधौ ….टूटे फूटे घर में रहने वाला राजू चपरासी घर से परेशान होता तो भगवान् से अपने घर को सर्किट हाउस सा बनाने की नामुराद अपील करता !

अपील तो सब करतें हैं सबकी अपील अलाऊ हो ये कैसे संभव है . सर्किट हाउस जब अच्छे-अच्छों को को लुभा सकता है तो वो राजू को क्यों नहीं लुभा सकता . आपको याद होगा अब्राहम लिंकन को सफ़ेद-घर पसंद आया वो अमेरिका के सदर बने थे न.? यदि वे सपना देख सकते हैं तो अपने राजू ने देखा तो क्या बुरा किया

आज कल मेरे शहर के कई लोग मुझसे पूछ रहें हैं भाई, क्या नया कुछ लिखा जीं ख़ूब लिख रहा हूँ …!क्या ..गद्य या गीत …?अपुन को उपर से नीचे सरकारी अफसर हुआ देख उनके हरी लाल काली सारी मिर्चियां लग गईँ कल्लू भैया हमसे पूछ बैठे:-” क्या चल रहा है ?”

हमारे मुँह से निकल पड़ा जो दिल में था , हम ने कहा-भाई,आजकल हमारी बास से खट पट चल रही हैवो शो- काज लिख रहे हैं और अपन उसका ज़बाव !

ये तो आप राज काज की बात कर रहे होमैं तो आपकी साहित्य-साधना के बारे मैं पूछ रहा .?

मैंनें कहा - भाई,साहित्य और जीवन के अंतर्संबंधों को पहचानों लोग बाग़ मेरी बात में कुंठा को भांपते कन्नी काटते । हमने भी लोगों के मन की परखनली में स्प्रिट लैंप की मदद से उबलते रसायन को परखा , अब जो हमको साहित्य के नाम पे चाटता तो अपन झट राग सरकारी गाने लगते , जो सरकारी बात करता उसको हम साहित्यिक-वार्ता में घसीट लेते.

कोई अपने दर्द के अटैची लेकर आता मेरे पास तो मैं अपनी मैली-कुचैली पोटली खोलने की कोशिश करता !इससे - वो लोग मेरे पास से निकल जाते कुछ तो समझने लगे जैसे मैं बदबू दार हूँ…!”और अपन बेमतलब के तनाव से दूर..!!

हजूर ! रजनीश और गिरीश दौनों ही एक ही शहर के पर्यावरण से सम्बंधित हैंअब देखिए ! सामर्थ्य की चाबी को लेकर ओशो दिमागी तौर पर लगभग बेहद उत्साहित हो जाते थे । अपने राम भी ऐसे लोगों को जो "सामर्थ्य की चाबी " लेकर पैदा हुए मामू बना देते हैं , जेइच्च धंधा है अपुन का….!

@@@@

ओशो से अपना गहरा नाता रहा है वो वक्ता थे अपन भी वक्ता है डेरों प्रमाण हैं इसके खूब शील्डैं जीतीं थीं हमने उषा त्रिपाठी के संग डी एन जैन कालेज के लिए भैया धूम थी अपनी उनदिनों ओशो के लगभग 25 साल बाद .जब हम अपने वज़न से भारी रजत वैजयंती लेकर आए ....प्राचार्य .प्रोफेसर .विनोद अधौलिया जी रो पड़े थे पिता स्व.भगवत शरण जी को याद करके .जी उस दौर में मेरी तरक्की सदाचार के लिए मेरे गुरुदेवों ने आशीर्वाद दिए थे. माँ-बाबूजी भी मुझे लेकर चिंतनरत होते .

सब कुछ बड़ों के आशीर्वाद से ही घटा है जीवन में . अफसरी मिली भले छोटी नस्ल के बड़ी भी मिलती तो क्या वही सब कुछ करता जो आज कर रहा हूँ.

@@@@ भाग एक संपन्न

12.3.08

"माँ,मैं तेरी सोनचिरैया...!"

जबलपुर की कवयत्री प्रभा पांडे"पुरनम" की कृति,माँ मैं तेरी सोनचिरैया


का
विमोचन,09।02.2008. को होम साइंस कालेज , जबलपुर में हुआ

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धर्म और संप्रदाय

What is the difference The between Dharm & Religion ?     English language has its own compulsions.. This language has a lot of difficu...