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6.4.12

याद रखो न्याय की कश्ती रेत पे भी चल जाती है !! गिरीश बिल्लोरे "मुकुल"


चित्र साभार :एक-प्रयास
आज़ किसी ने शाम तुम्हारी
घुप्प अंधेरों से नहला दी
तुमने तो चेहरे पे अपने,
रंजिश की दुक़ान सजा   ली ?
मीत मेरे तुम नज़र बचाकर
छिप के क्यों कर दूर खड़े हो
संवादों की देहरी पर तुम
समझ गया  मज़बूर बड़े हो  ..!!
षड़यंत्रों का हिस्सा बनके
तुमको क्या मिल जाएगा
मेरे हिस्से मेरी सांसें..
किसका क्या लुट जायेगा …?
चलो देखते हैं ये अनबन
किधर किधर ले जाती है..?
याद रखो न्याय की कश्ती
रेत पे भी चल जाती है !!

4.2.12

घर में शीतल-शबाब है.घर आते ही पढ़ा करो .!

 चेहरों वाली क़िताब है हौले-हौले पढ़ा करो
 हर चेहरे पे नक़ाब है  हौले-हौले पढ़ा करो .!
 खोज रहे हो बेपरवा इस-उस के आंचल में सुख
 घर में शीतल-शबाब है.घर आते ही पढ़ा करो .! !
 वो आंखों में लिये समंदर घूम रहा है गली गली
  उस मुफ़लिस की आंखो से दुनियां अपनी पढ़ा करो..!!

   

23.1.12

मैं तुम्हारा आखिरी खत जाने किसके हाथ आऊं


मैं तुम्हारा
आखिरी खत जाने किसके हाथ आऊं
पढ़ो बस इक बार मुझको
नवल मैं संचार पाऊं !!
वेदनाएं हर किसी की कोई अब पढ़ता नहीं ..
 क्रोंच आहत देख कविता अब कवि गढ़ता नहीं..
सबको अपना अपना गाना है सुहाता ..
गीत अब समभाव के है कौन गाता..!!
चेतना प्रस्तर हुई .. वेदना नि:शब्द है
युग भयातुर वक़्त भी अभिशप्त है !!
चलो ऐसे में चिंतन करें चिंता छोड़ दें..
भयावह भावों के मुहाने मोड़ दें..!!
            * गिरीश मुकुल

18.1.12

कविता और गीत : गिरीश बिल्लोरे मुकुल

कविता


"विषय '',
जो उगलतें हों विष
उन्हें भूल 


अमृत बूंदों को
उगलते
कभी नर्म मुलायम बिस्तर से
सहज ही सम्हलते
विषयों पर चर्चा करें
अपने "दिमाग" में
कुछ बूँदें भरें !
विषय जो रंग भाषा की जाति
गढ़तें हैं ........!
वो जो अनलिखा पढ़तें हैं ...
चाहतें हैं उनको हम भूल जाएँ
किंतु क्यों
तुम बेवज़ह मुझे मिलवाते हो इन विषयों से ....
तुम जो बोलते हो इस लिए कि
तुम्हारे पास जीभ-तालू-शब्द-अर्थ-सन्दर्भ हैं
और हाँ 


तुम अस्तित्व के लिए बोलते हो-
इस लिए नहीं कि 

तुम मेरे शुभ चिन्तक हो । 

शुभ चिन्तक 
रोज़ रोटी 
चैन की नींद !!

गीत:-

अनचेते अमलतास नन्हें
कतिपय पलाश।
रेणु सने शिशुओं-सी
नयनों में लिए आस।।
अनचेते चेतेंगें
सावन में नन्हें
इतराएँगे आँगन में
पालो दोनों को ढँक दामन में।
आँगन अरु उपवन के
ये उजास।

ख़्वाबों में हम सबके बचपन भी
उपवन भी।
मानस में हम सबके
अवगुंठित चिंतन भी।
हम सब खोजते
स्वप्नों के नित विकास।।

मौसम जब बदलें तो
पूत अरु पलाश की
देखभाल तेज़ हुई साथ
अमलतास की
आओ सम्हालें इन्हें ये तो
अपने न्यास।।

17.1.12

कुछ तो है दुनिया में अच्छा..क्या हर तरफ़ बुराई है ?

हम कह दें वो अफ़साने और तुम कहदो तो सच्चाई
बोल बोल के  झूठ इस तरह शोहरत तुमने पाई है ...!!
****************
जैसा देखा इंसा सनमुख वैसी बात कहा करते हो
लगता है गिरगिट को घर में मीत सदा रक्खा करते हो
बात मेरी बिखरे आखर हैं और तुम्हारी रूबाई है...!!
    बोल बोल के  झूठ इस तरह शोहरत तुमने पाई है ...!!

****************
मन चाहा लिक्खा करते हो मनमाना नित बोल रहे हो
चिंतन हीन मलिन चेहरे को  लेके इत उत डोल रहे हो
कुछ तो है दुनिया में अच्छा..क्या हर तरफ़ बुराई है ?
    बोल बोल के  झूठ इस तरह शोहरत तुमने पाई है ...!!
*****************



तू चाहे मान ले भगवान किसी को भी हमने तो पत्थरों में भगवान पा लिया !!




उनको यक़ीन हो कि न हो हैं हम तो बेक़रार
चुभती हवा रुकेगी क्या कंबल है तारतार !!
मंहगा हुआ बाज़ार औ’जाड़ा है इस क़दर-
हमने किया है रात भर सूरज का इंतज़ार.!!
हाक़िम ने  फ़ुटपाथ पे आ बेदख़ल किया -
औरों की तरह हमने भी डेरा बदल दिया !
सुनतें हैं कि  सरकार कल शाम आएंगें-
जलते हुए सवालों से जाड़ा मिटाएंगें !
हाक़िम से कह दूं सोचा था कि सरकार से कहे
मुद्दे हैं बहुत उनको को ही वो तापते रहें....!
लकड़ी कहां है आपतो - मुद्दे जलाईये
जाड़ों से मरे जिस्मों की गिनती छिपाईये..!!
 जी आज़ ही सूरज ने मुझको बता दिया
कल धूप तेज़ होगी ये  वादा सुना दिया !
तू चाहे मान ले भगवान किसी को भी
हमने तो पत्थरों में भगवान पा लिया !!
 कहता हूं कि मेरे नाम पे आंसू गिराना मत
 फ़ुटपाथ के कुत्तों से मेरा नाता छुड़ाना मत
 उससे ही लिपट के सच कुछ देर सोया था-
ज़हर का बिस्किट उसको खिलाना मत !!

29.12.11

तुम मेरे साथ एक दो क़दम ........


तुम मेरे साथ
एक दो क़दम चलने का
अभिनय मत करो
एक ही बिंदू पर खड़े-खड़े
दूरियां तय मत करो..!
तुमको जानता हूं
फ़ायदा उठाओगे -
मेरे दुखड़े गाने का
मुझे मालूम है
तुम मेरे आंसू पौंछने को भी
भुनाते हो
तुम सदन में मेरे
दर्द की दास्तां सुनाते हो !
तुम जो
हमारी भूख को भी भुनाते हो !
तुम जो कर रहे हो
उसे “अकिंचन-सेवा” का नाम न दो..!!
जो भी तुम करते हो
उसे दीवारों पर मत लिखो ..!!
तुम जो करते हो उसमें
तुम्हारा बहुत कुछ सन्निहित है
मित्र
ये सिर्फ़ तुम जानते हो..?
      न ये तो सर्व विदित है…!

15.11.11

हां मुझ में मै ही रचा बसा हूं

जो दर्द पीकर सुबक न पाया 
वो जिसने आंसू नहीं बहाया .
उसी की ताक़त  से हूं मैं ज़िंदा
उसी ने मुझमें है घर बनाया.
न जाने है कौन वो  जो मुझमे
बसा हुआ है रचा हुआ है...
क़दम मेरे जो डगमगाए 
सम्हाल मुझको वो पथ सुझाए 
हां मुझ में मै ही रचा बसा हूं
तभी तो खुद ही सधा सधा हूं
किसी में खुद की तलाश क्योंकर
मैं खुद ही खुद का खुदा हुआ हूं 
मैं रंग गिरगिट सा नहीं बदलता
मैं हौसलों से पुता हुआ हूं









20.10.11

न मैं कंटक व्यस्त-पथ का न मैं पहिया पार्थ रथ का


कल एक आलेख पढ़ा है न आपने अपने कुछ खास मित्रों के लिये लिखा आलेख आज इस गीत में उतर आया है अजित गुप्ता जी ने आलेख को देख कर कहा था नेपथ्‍य से बहुत कुछ कहा गया है। सच !! कहा भी ऐसा ही था.अजित जी  
नेपथ्य की ध्वनियां उन तक पहुंच भी जाएं तो शायद ही मित्र गण खुद को आगे के लिये बदल पाएं. आज़ सोचा कि शायद उनको विश्वास दिलाने में सफ़ल हो जाऊं कदाचित जो मेरे साथ किया आगे से किसी और के साथ न करेंगें !! जो भी हो लिखना था लिख मारा

15.8.11

लोकतंत्र को आलोक-तंत्र बनाने की कवायद

लोकतंत्र को 

आलोक-तंत्र बनाने की कवायद करता.
भारत पैंसठ साल का  बुड्ढा..  हो गया..
अपनी पुरानी यादों में खो गया.......!!
दीवारों पर कांपते हाथों से लिख रहा था 
"आलोक-तंत्र"
लोग भी आये आगे 
बूढ़े का मज़ाक  उड़ा कर भागे..!!
कुछ खड़े रहे मूक दर्शक बन ..!
कुछ गा रहे थे बस हम ही हम..!! 

कोलाहल तेज़ हुआ फ़िर बेतहाशा 
हर ओर नज़र छाने लगी निराशा !
सबकी अलग थलग थी भाषा-
कांप रही थी बच्चों की जिग्यासा !!
कल क्या होगा.. सोच रहे थे बच्चे 
एक बूड़ा़ बोला :-"भागो किसी लंगड़े की पीठ पे लद के ही "
जान बचाओ.. छिप छिपाकर.. 
हमें नहीं चाहिये न्याय
क्या करेंगें स्विस का पैसा लेकर 
फ़हराने दो उनको तिरंगा ये
है उनका
संवैधानिक अधिकार...
रामदेव..अन्ना... सब कर रहे
शब्दों का व्यापार..
अरे छोड़ो न यार
फ़िज़ूल में मत करो वक्त बरबाद..
गूंगे फ़रियादीयो कैसे बोलोगे
बहरी व्यवस्था की भी तो कोई मज़बूरी है
वो कानों से देखेगी...!!
सदन में चीत्कारेंते हैं..
हमारे लिये हां..ये वही लोग हैं जो
सड़क पर दुत्कारतें हैं...
पूरे तो होने दो पांच साल
बदल देना
इस बरगद की छाल...
अभी चलो घर चलतें हैं..

6.8.11

रमज़ान और सावन

तुम एक दिन उपवास करो
मैं भी  एक दिन रोज़ा रखूं..!!
न तुमसे अल्लाह को
न मुझसे भगवान को
कोई एतराज़ होगा..
रमज़ान के मानी पाक़ीज़गी में
रम जाना
सावन के महीने वाला रमज़ान
रमज़ान के साथ वाला सावन
एक चारों ओर पाकी़ज़गी का एहसास
तुम्हारे रोज़े कुबूल होंगे
मेरे उपवास
आओ बैठे इबादत और पूजा के लिये 
तनिक पास पास ..!!


31.7.11

बिना रीढ़ वाले जन्तु

लगातार होती 
बारिश
भिगो देती है 
उन घरों को जमीन के भीतर 
बने होते हैं.
निकल आते है
उन से 
बिना रीढ़ वाले 
जन्तु 
सरे राह 
डस लेते हैं 
तभी उनको 
पूजने का त्यौहार आता है
अब तो 
जी हां
रोज़ पूजता हूं 
शायद बारिश 
बंद नही होती 
रात-दिन आज़कल ..!!

26.7.11

सन्नाटा...ख़ामोशी के संग

सन्नाटा बैठा हुआ .लिये..ख़ामोशी के संग .
तय मानो नज़दीक है.. सोच सोच में जंग
सोच सोच हो जंग, तभी सूरत बदलेगी
गुमसुम आंखों की, बाहें युद्ध की ख़ातिर मचलेगीं
कहें मुकुल कवि, युद्ध सदा बरकाओ
कानन देखी नाय, आंख से सब पढ़ आओ..!!

********************
ऊसर बोई आस्था,  हरियाए हर बाग,
स्वेद बूंद से जागते-अपने अपने भाग.
अपने-अपने भाग जगा के सब केऊ जागौ.
मीत अकारथ इतै उतै नै भागो.
कहैं मुकुल कविराय छोड़ दो आपा धापी
एक साध लौ आप सधैगी दुनियां बाक़ी.. 

14.7.11

मेरी पीठ पर लदे बैतालो

मेरी पीठ पर लदे बैतालो
तुम जो मेरी पीठ पर लदे हो
तुम जो,
मुझसे सवालों पे सवाल किया करते हो
तुम एक नहीं हो
आज़ के दौर में
तुम्हारा
एक रैकेट है
मुझे मालूम है 
तुम मुझे कहानी सुनाओगे हर बार
एक नई कहानी 
तब तुम मुझे दिखाई दोगे
पास आती मौत के से
मुझे बोलना होगा 
सच की खातिर जिसका सामना तुम 
नहीं कर पाते हो
कसाब को बिरयानी 
मुझे डंडॆ खिलाते हो
तुम जो सत्ता हो
तुम जो आकण्ठ...?
खैर छोड़ो
तुम्हारा क्या दोष तुम 
जन्मे ही उसी तरीके से हो
जिन को तुम मुझ पर आज़माते हो
जिस दिन हमने चाहा उस दिन शायद 
तुम तबाह हो ही जाओगे 
वैतालो बताओ :-"मैं क्यों हूं आज़ाद भारत में आज़ादी की तलाश में ?
बोलो बोलो ज़ल्दी बोलो वरना तुम्हारे टुकड़े टुकड़े !!

   

6.7.11

बाप कर्ज़दार न हो शराब के ठेके के..

 सैलानियों ने देखी नर्मदा की ताक़त 
खूबसूरत संग-ए-मरमरी रास्ता
नर्मदा का...
खूबसूरत पहाड़ियां 
अठखेलियां करती नर्मदा की लहरें
उसी नर्मदा में
जो जीवन दात्री है
मेरी तुम्हारी हम सबकी
सच 
यहीं नर्मदा की भक्ति से सराबोर
आस्थाएं 
बह बह कर आतीं हैं..
नारियलों के रूप में 
उस सफ़ेद पालीथिन में
समेट लाते हैं ये नंगे-अधनंगे बच्चे
स्कूल से गुल्ली मार के
देर शाम तक बटोरे नारियल
बनिये को बेच 
धर देते हैं हाथ में
बाप के पैसे जो नारियल बेच के लातें हैं
ताकि
बाप कर्ज़दार न हो 
शराब के ठेके के.. 


30.6.11

वो आदमी सुलगाया जाता है..!!


सुबह  अखबार बांचते ही
चाय की चुस्कियों के साथ एकाध गाली
निकल जाती है
अचानक
मुंह से उसके
व्यवस्था के खिलाफ़ !
फ़िर अचानक बत्ती का गुम होना
बिजली वालों की
मां-बहनों से शाब्दिक दुराचरण
सब्जी के दाम सुन कर
फ़िर उसी अंदाज़ में एक बार फ़िर
मंत्र की तरह गूंजती गालियां..!!
अचानक मोबाईल पर
बास का न्योता भी उसे पसंद नहीं..आता
हर बार तनाव के कारणों पर
वो बौछार कर देता है
अश्लील गालियों की
शाम
बेटी के हाथ से रिमोट ले
समाचार देखता वो
झल्ला जाता है
पर्फ़्यूम के “ब्लू-फ़िल्मिया-एड”
देख कर ..!
फ़िर लगा लेता है मिकी-माउस वाला चैनल
 अच्छा है उसमें इतनी तमीज़ तो है
बेटी के सामने गाली न देने की..!!
सोचता हूं..
फ़िर भी दिन भर में
कितनी बार
और क्यों
भभकता है
ये आदमी
करता है कितनों की 
मां बहनों से
शाब्दिक दुराचरण..?
नहीं सच है 
वो ये सब न करता था
पहले कभी !
सुलगता भी न था
भभकता भी तो न था
आज़कल क्या हुआ उसे
तभी
सेंटर-टेबिल पर रखा
अखबार फ़ड़फ़ड़ाया
दीवार पर टंगा टी.वी. मुस्कुराया
अब समझा
वो आदमी सुलगाया जाता है
रोज़
इन्हीं के ज़रिये

15.5.11

डॉ अ कीर्तिवर्धन की कविता : आँख का पानी

आँख का पानी
होने लगा है कम अब आँख का पानी,
छलकता नहीं है अब आँख का पानी|
कम हो गया लिहाज,बुजुर्गों का जब से,
मरने लगा है अब आँख का पानी|
सिमटने लगे हैं जब से नदी,ताल,सरोवर
सूख गया है तब से आँख का पानी|
पर पीड़ा मे बहता था दरिया तूफानी
आता नहीं नजर कतरा ,आँख का पानी|
स्वार्थों कि चर्बी जब आँखों पर छाई
भूल गया बहना,आँख का पानी|
उड़ गई नींद माँ-बाप कि आजकल
उतरा है जब से बच्चों कि आँख का पानी|
फैशन के दौर कि सबसे बुरी खबर
मर गया है औरत कि आँख का पानी|
देख कर नंगे जिस्म और लरजते होंठ
पलकों मे सिमट गया आँख का पानी|
लूटा है जिन्होंने मुल्क का अमन ओ चैन
उतरा हुआ है जिस्म से आँख का पानी|
नेता जो बनते आजकल,भ्रष्ट,बे ईमान हैं
बनने से पहले उतारते आँख का पानी|



डॉ अ कीर्तिवर्धन 09911323732डॉ अ कीर्तिवर्धन, की कविता : आँख का पानी
डा० अ कीर्तिवर्धन


अ कीर्तिवर्धन के ब्लाग :-   
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