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27.9.22

बाप की साली :मौसी क्यों नहीं..?

 
         गिरीश बिल्लोरे मुकुल 

   मैं उस महान लेखक का नाम भूल गया हूं परंतु उनकी लिखी गई कहानी का कथानक याद है। 
सामान्य रूप से हम अपने कहे हुए  शब्दों असर को गहराई से नहीं जानते, और तो और हम अपने किए गए कृत्य का प्रभाव क्या पड़ेगा इसका अनुमान नहीं लगा पाते। 
हरिहरन की गायक गजल मुझे बहुत पसंद आती है शायद आपने भी सुनी होगी-
" जब कभी बोलना 
मुख्तसर बोलना
वक़्त पर बोलना
मुद्दतों सोचना....
  इसमें कोई शक नहीं बोलने से पहले और कुछ करने से समझ लेना चाहिए कि-" हमारे मुंह से निकले शब्द कितने सकारात्मक असर छोड़ते हैं अथवा उनका कितना नकारात्मक प्रभाव पड़ता है ?
हां तुम्हें बता रहा था कि, बात बहुत पुरानी है उस वक्त शायद हम कॉलेज में पढ़ा करते थे। कॉलेज के कैंपस से जुड़ी एक कहानी कैरेक्टर हॉस्टल में खाना बनाने या साफ सफाई करने का काम किया करती थी। पूरे स्टूडेंट्स उसे बाप की साली कहकर परेशान किया करते थे । ऐसा नहीं था कि इस कहानी की पात्र जिसे लोग बाप की साली कहते थे उसे छात्र पसंद नहीं करते थे परंतु ऐसा अलंकरण  महिला पात्र को बहुत दु:खी कर देता था, वह चिढ़ जाया करती थी । यह प्राकृतिक है कि जो व्यक्ति किसी शब्द या कार्य विशेष चिड़ता हो  है उसके सामने वही कार्य शब्द के दोहराव की आदत लोगों में होती है। युवा कुछ ज्यादा ही इस तरह की हरकतें किया करते हैं।
   ऐसा ही होता था उस महिला को हॉस्टल में रहने वाली सभी युवा बाप की साली कहकर परेशान किया करते थे। गांव से एक विद्यार्थी जब शहर आया और हॉस्टल में उसने उस महिला को मौसी शब्द से अलंकृत किया तो माहौल का बदल जाना स्वभाविक था ।
   हमें किसी से भी संवाद करने के पहले इसी तरह के शब्दों का प्रयोग करना चाहिए। संवादों में अत्यधिक क्रूरता उपेक्षा अथवा अपमानजनक संवाद करना निसंदेह प्रत्युत्तर का कारण होता है। आप नहीं समझ पाएंगे कि प्रत्युत्तर कैसा होगा?
  मुंह से निकला हुआ शब्द तरकस से निकला हुआ तीर और अबके संदर्भों में कहा जाए तो- "दागी हुई मिसाइल कभी वापस नहीं आती..!"
  हम अक्सर अधिकारियों को देखते हैं वह क्या बोल जाते हैं उन्हें खुद ही नहीं मालूम यह अलग बात है कि दिल से कई सारे ऑफिसर खराब नहीं होते परंतु ऑफिसर होने का लबादा उनके मस्तिष्क तक प्रभावित कर देता है। और फिर जब भी बोलते हैं तो उन्हें यह होश नहीं रहता कि - "वे ही ऑलमाइटी याने सर्वशक्तिमान नहीं है..!"
  मशहूर शायर चुके ने कहा है-
"नुक़रई खनक के सिवा क्या मिला शकेब..
कम कम वह बोलते हैं जो गहरे हैं पेट के"
   आप भी फौरन प्रतिक्रिया देने वालों की मनोदशा और उनकी मानसिक स्तर को आसानी से समझ सकते हैं। अक्सर जो लोग किसी भी मुद्दे पर त्वरित टिप्पणी कर देते हैं वह टिप्पणी सटीक  होगी यह कहना मुश्किल है । 
   कुछ कहने अथवा करने के पहले उसके प्रभाव का आंकलन करना बहुत जरूरी है। और जब भी आप संवादी हो तो वक्तव्य नपे तुले और सटीक होनी चाहिए। अपमानजनक शैली में बात करना किसी की योग्यता का नहीं वरन अयोग्यता का उदाहरण होता है।
   अक्सर लंबी लंबी बातों में भूत परोसना एक अंतराल में मस्तिष्क के रडार पर आपको संदिग्ध यूएफओ की तरह पोट्रेट कर देता है।
  मुझे विश्वास है कि इस बिंदु पर भी हम चिंतन करेंगे और चिंता भी।

17.10.11

क्या आपके फ़ादर अली ने भी कभी पहनी है ऐसी घड़ी..?


भास्कर से साभार 

  बूचड़खाने से चीखते पुकारते कटते पशुओं की सी स्थिति हो चुकी है गोया हमारे चिंतन के लिये विषय चुक से गए हों  अपने इर्द-गिर्द देखिये कोई मौन-दृढ़ता युक्त व्यक्तित्व आपको क़तई नज़र न आएंगें. हम किसे सच मानें किसे झूठ इतना तक सामर्थ्य शेष नहीं रहा . कारण कारण क्या है बताते शर्म आती है सच जानना है तो जान ही लो :-"हम एक मानसिक दीवालियेपन वाले दौर में आ चुकें हैं !" सूचनाऒं की बौछार को हम सत्य मान लेते हैं. 
हमारी नज़र में हम उम्दा हैं बाक़ी सब बाक़ी सब दोयम दर्ज़े के . यानी सरो-पा नैगिटिविटि . दस बरस पहले एक दम्पत्ति दीवाली की खरीदी के वास्ते पास के शहर से आई थी. उन दिनों वीडियो-गेम्स का बड़ा चलन था. स्टेटस सिंबल बढ़ाने किये जाने वाले यत्नों में  सपूत के लिये वीडियो-गेम खरीदता जोड़ा  आपस में बतिया रहा था गुप्ता जी के बेटे के पास जो है उससे बेहतर है न ये . गुप्ता जी उनका सहकर्मी या पड़ौसी था. पेशे से अफ़सर ये लोग वाक़ई आपसी स्पर्द्धा में बच्चों तक को घसीट लेते है .गुप्ता जी के बेटे से बेहतर वीडियो-गेम उनके पास होना क्यों ज़रूरी है इस बात की पतासाजी करने की गरज़ से हमने बेवज़ह बात शुरु करदी पर्सनालिटी से हम सामान्य हैं सो हमने ही उनको अभिवादन किया बेरुखी से बमुश्किल नमस्कार का ज़वाब देने वाले उस अफ़सर से हमने बताया कि हम कौन हैं. तो ज़रा शर्मिंदा हुए बोले -"सर नाम तो सुना है आपका"
हम:-सुना नहीं पढ़ा होगा, हम तो मिसफ़िट आदमी हैं. बहरहाल आप से हमारी मुलाक़ात हुई है कहीं है न..?
वे :- जी, पिछले माह मिले थे न एडवोकेट जनरल के दफ़्तर में.
हम:- अर्र हां याद आया
                            मैं उनसे वहीं मिला था इस मुलाक़ात के पंद्रह दिन पहले पर वे मुझसे वह परिचय छिपाना चाह रहे थे कारण क्या था मुझे समझ में नहीं आ रहा था. बहरहाल उनसे मैने पूछ ही लिया :-सर, ये सब चीजें उधर भी तो मिल जातीं अच्छा किसी नातेदारी में आये होंगे..?
वे:-न जी बस श्रीमति जी चाह रहीं थीं जबलपुर में तफ़रीह हो जाए. उनको कुछ-साड़ियां दिलानी थीं, बच्चों के लिये गेम्स-वेम्स एकाध पिक्चर बस और क्या वरना हमारी ज़िंदगी  कोल्हू के बैल से कम कहां ?.
         बेचारा कोल्हू का बैल सोच भी वैसी ही हो गई उसकी...बताओ बछड़ों में प्रतिष्पर्द्धा के बीज बो रहा उसे क्या मालूम कि यही बेटा किसी दिन उसकी सांसे रोक देगा 
 हम:-भई, ये टीवी बच्चों को वो सब बता रही है जो हमको भी नहीं मालूम ..?
 वो :- भाई, साहब हमारा वो है न गुप्ता उस दिन जो फ़ाईल दिखा रहा था पडोस में रहता है उसके लड़के के पास समुराई का वीडियो गेम है, बेटा पूछ रहा था कि पापा आप के बास है क्या गुप्ता अंकल उनके पास सब कुछ जल्दी आ जाता है. 
           मुझे ताज़ुब हुआ उनके बेटे के सवाल पर गुप्ता जी के बेटे के पास वीडियो-गेम है और उनके बेटे के पास नहीं तो ओहदे की रौनक में कमीं नज़र आई शायद वे मानसिक दिवालिये पन की हद में हैं नहीं तो बेटे को समझा देते कि बेटे वीडियो-गेम किसी के बड़े या छोटे को मापने का स्केल नहीं. शायद वे अपनी बीवी के लिये भी साड़ियां इसी कारण दिला रहे  थे...... गुप्ता से कमज़ोर न दिखने के लिये उनको कितना खर्च करना पड़ा सच अफ़सरी बचाने, और दिखाने के लिये कितनी व्यवस्था जुटानी होती है. 
   दस बरस बाद  स्थिति और अधिक बद से बदतर दिखाई दे रही है लोग इस कदर विचारधारों के पीछे भाग रहे हैं  मानो कल वह विचारधारा मंहगी हो जाएगी पेट्रोल अथवा गैस के सिलेण्डरों की तरह. मानो कि खुद के व्यक्तित्व में कोई ठोस चिंतन न हो. आपको याद होगा लोग सरकारी नौकरी इस कारण पसंद करते थे कि उनका भविष्य सुरक्षित सुनिश्चित एवम रुतबे वाला है. गिनी घुटी पगार के साथ ऊपरी आमदनी की आकांक्षाएं ताक़ि कल का जीवन सुरक्षित हो लड़कियों  के अभिभावक ऐसा लड़का खोजते जो सरकारी नौकरी वाला हो .कुछ ऊपरी आमद हो  यानी सदाचारी हो  न हो . बेटे को भी डाक्टर इंजिनियर केवल उच्च आय वर्ग में लाने कि होड़ के अलावा कुछ न था. मेरे बड़े भाई मेरा कामर्स में दाखिला लेना जाने क्यों कुछेक क़रीबी नातेदारों के मन में मेरे या भैया दोयम भाव जगाता था उन दिनों. एक महिला नातेदार के पति की कलाई पर सजी  मंहगी रिस्टवाच बड़े भैया ध्यान देख रहे थे उनको ऐसा करते देख वे महिला नातेदार  कह उठी थी-क्या आपके फ़ादर अली ने भी कभी पहनी है ऐसी घड़ी..?
        बेशक हमारे पिता को मंहगी रिस्टवाच का कभी इंतज़ार न था वे तो उस घड़ी का इंतज़ार करते थे कि जब हम सफ़ल बनें. सफ़ल हैं हम मंहंगी रिस्टवाच वाली नातेदार के दिमागी दीवालिये पन पर हम ने संस्कारवश कोई टिप्पणी न की हमको मालूम था हमारा लक्ष्य जो मां बताया करती थी.    
लोग  भ्रष्टाचार का मूल तत्व है दिमागी दीवालिया पन यानी अंधी दौड़ दिखावा न्यूनतम ज़रूरतों से 
 . आगे सक्षमता हासिल कर लेने  की आकांक्षाएं
       यही भ्रष्टाचार अब खुद हमारा जीवन तबाह करने आमादा है तो हम अन्ना के पीछे हो लिये चीखने चिल्लाने लगे किंतु क्या वास्तविक बदलाव की अपेक्षा का भाव हमारे ज़ेहन में है नहीं तो पवित्र आंदोलन में गंदगी के साथ होकर न जुड़ें तो ही बेहतर होगा . जुड़ना है तो पूरे दिलो-दिमाग को मथ लीजिये सारी कालिमा को निकाल दीजिये बस इतना ही काफ़ी होगा. किसी भी विचारधारा को संयत भाव से समझिये अपने मौलिक चिंतन से उपजे नवनीत को जिसे अंतरआत्मा की आवाज़ पर  तय कीजिये कि आप स्वच्छ हाथों से पूजा करने जा      
                 मध्यवर्गीय जीवन बेतहाशा तनावग्रस्त एवम अकारण हीनता के भाव का शिकार है. खुद कम सोचता है किसी के सोचे पर अमल करता मध्य वर्ग एक अजीब सी जकड़न में है. हरेक पड़ौसी बदलाव के लिये बेवज़ह ज़द्दोज़हद  करता नज़र आ रहा है. कभी कभी तो क्रूरता पूर्ण तरीके तक स्तेमाल करता है.  

28.8.11

27.08 .2011 सारे भरम तोड़ती क्रांति के बाद

                     
शाम जब अन्ना जी को विलासराव देशमुख जी ने एक ख़त सौंपा तो लगा कि ये खत उन स्टुपिट कामनमे्न्स की ओर से अन्ना जी लिया था जो बरसों से सुबक और सुलग  रहा था.अपने दिल ओ दिमाग में  सुलगते सवालों के साथ. उन सवालों के साथ जो शायद कभी हल न होते किंतु एक करिश्माई आंदोलन जो अचानक उठा गोया सब कुछ तय शुदा था. गांधी के बाद अन्ना ने बता दिया कि अहिंसक होना कितना मायने रखता है. सारे भरम को तोड़ती इस क्रांति ने बता दिया दिया कि आम आदमी की आवाज़ को कम से कम हिंदुस्तान में तो दबाना सम्भव न था न हो सकेगा. क्या हैं वे भरम आईये गौर करें...
  1. मध्यम वर्ग एक आलसी आराम पसंद लोगों का समूह है :इस भ्रम में जीने वालों में न केवल सियासी बल्कि सामाजिक चिंतक, भी थे ..मीडिया के पुरोधा तत्वदर्शी यानी कुल मिला कर "सारा क्रीम" मध्य वर्ग की आलसी वृत्ति से कवच में छिपे रहने की  आदत से... परिचित सब बेखबर अलसाए थे और अंतस में पनप रही क्रांति ने  अपना नेतृत्व कर्ता चुन लिया. ठीक वैसे जैसे नदियां अपनी राह खुद खोजतीं हैं  
  2. क्रांति के लिये कोई आयकान भारत में है ही नहीं : कहा न भारत एक अनोखा देश है यहां वो होता है जो शायद ही कहीं होता हो .किस काम के लिये किस उपकरण की सहायता लेनी है भारतीय बेहतर जानते हैं.. इसके लिये हमारी वैचारिक विरासत की ताक़त को अनदेखा करती रही दुनियां कुछ लोग समझ रहे थे कहा भी तो था मेरे एक दोस्त ने  शुरु शुरु में कि "न्यूज़-चैनल्स का रीयलिटी शो" है. सब टी आर पी का चक्कर है. किसी ने कहा ये भी तो था :-"अन्ना की मांग एक भव्य नाट्य-स्क्रिप्ट है.."    
  3. भ्रष्टाचार की जड़ों पर प्रहार करना अब संभव नहीं : इस बारे में क्या कहूं आप खुद देख लीजिये हर बुराई का अंत है "भ्रष्टाचार"  अमरतत्व युक्त नहीं है. 
                                        

20.7.10

भय बिन होत न प्रीत


                         

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भय बिन होत न प्रीत एक गहन विमर्श का विषय है. सामान्य रूप से सभी स्वीकार लेते हैं . स्वीकारने की  वज़ह है
    http://pix.com.ua/db/art/misc/art_of_antiquity/b-503064.jpg
  1. भय के बिना कोई भी अनुशासन की डोर से बंध नहीं सकता:- जी हां, यह एक पुष्टिकृत [प्रूव्ड] सत्य है. अगर दुनिया भर में व्यवस्था को चलाने के लिये कानूनों के उल्लंघन की सज़ा के प्रावधान न होते तो क्या कोई इंसान कानून को मानता ? कदापि नहीं अधिकारों और कर्तव्यों के साथ साथ सर्व  जन हिताय दण्ड का प्रावधान इस लिये किया गया है कि आम आदमी अपने हित के लिये दूसरों के अधिकारों पर अतिक्रमण न करे. कानून के साथ दिये गये दाण्डिक प्रावधानों से समाज में एक भय बनता है जो अनुशासन को जन्म देता है.  
  2. भय सामाजिक-सिस्टम को संतुलित रखता है  एवम सुदृढता करता है :-  समाज के रिवाज़ नियम उसके आंतरिक ढांचे को संतुलन एवम सुदृढता [स्ट्रैबिलिटी] देता है.   समाज के संचालन के लिये में रीति-रिवाज़ बनाये गये हैं जो देश-काल-परिस्थितियों के अनुसार तय होते हैं सामाजिक-व्यवस्था के लिये ज़रूरी हैं.... जैसे परिवार के पालन-पोषण की जिम्मेदारी माता-पिता दौनों की समाज़ ने तय की हुई है यदि कोई भी एक निडर होकर इस व्यवस्था को तोडने की कोशिश करेगा तो परिवार टूट सकता है यदि इस बात का भय न हो तो प्रेम-के धागों से बंधा परिवार छिन्न-भिन्न हो जाता है. यानि परिवार के टूटने के भय से सभी को एक सूत्र में बाधे रखता है. संतुलन एवम सुदृढता   का इससे अच्छा उदाहरण और क्या हो सकता है ?
  1. प्रकृति के अनुशासन को तोडने से आने वाले संकटों का भय- जिसका  जिक्र हम और आप निरंतर मीडीया में देखतें हैं दून की वादियों में सुन्दर लाल जी बहुगुणा का आंदोलन याद करते हुये मैं कहना चाहती हूं कि संकटों के भय  से अगर हम भयभीत न होते तो हमारे ह्रदय में पर्यावरण के प्रति प्रीत न जागती .सही तो कहा है किसी ने भय बिन होत न प्रीत
  2. रामयण काल में समुद्र का भयभीत होना  :- समुद्र से रास्ता मांगते राम को समुद्र ने न तो तब तक रास्ता सुझाया जब तक कि उसे दण्डित करने का भय न दिखाया गया . आज़ विग्यान  के दौर मे यह बात मानी जाये या न माने जाये किंतु एक संदेश ज़रूर माना जायेगा भय बिन होय न प्रीत
सभी चित्र गूगल बाबा से सभार  

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