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28.8.13

यमुनाघाट चित्रकला : अभिव्यक्ति पर

अभिव्यक्ति : सुरुचि की - भारतीय साहित्य, संस्कृति, कला और दर्शन पर आधारित।

बंदऊं गुरु पद कंज
पूर्णिमा वर्मन जी 
अंतरजाल पर    पूर्णिमा वर्मन अपने  साहित्यिक  दायित्व का निर्वहन करते जो भी कुछ दे रहीं हैं उससे उनकी कर्मशील प्रतिबद्धता  उज़ागर होती है. अगर मैं नेट पर हूं तो पूर्णिमा वर्मन, बहन श्रृद्धा जैन और भाई समीरलाल की वज़ह से इनका कर्ज़ उतार पाना मेरे लिये इस जन्म में असम्भव है...
हिंदी विकी पर उनका परिचय कुछ इस तरह है
"पूर्णिमा वर्मन (जन्म २७ जून, १९५५, पीलीभीत , उत्तर प्रदेश)[1], जाल-पत्रिका अभिव्यक्ति और अनुभूति की संपादक है। पत्रकार के रूप में अपना कार्यजीवन प्रारंभ करने वाली पूर्णिमा का नाम वेब पर हिंदी की स्थापना करने वालों में अग्रगण्य है। उन्होंने प्रवासी तथा विदेशी हिंदी लेखकों को प्रकाशित करने तथा अभिव्यक्ति में उन्हें एक साझा मंच प्रदान करने का महत्वपूर्ण काम किया है। माइक्रोसॉफ़्ट का यूनिकोडित हिंदी फॉण्ट आने से बहुत पहले हर्ष कुमार द्वारा निर्मित सुशा फॉण्ट द्वारा उनकी जाल पत्रिकाएँ अभिव्यक्ति तथा अनुभूति अंतर्जाल पर प्रतिष्ठित होकर लोकप्रियता प्राप्त कर चुकी थीं।
वेब पर हिंदी को लोकप्रिय बनाने के अपने प्रयत्नों के लिए उन्हें २००६ में भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद,साहित्य अकादमी तथा अक्षरम के संयुक्त अलंकरण अक्षरम प्रवासी मीडिया सम्मान, २००८ में रायपुर छत्तीसगढ़की संस्था सृजन सम्मान द्वारा हिंदी गौरव सम्मान[2], दिल्ली की संस्था जयजयवंती द्वारा जयजयवंती सम्मानतथा केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के पद्मभूषण डॉ॰ मोटूरि सत्यनारायण पुरस्कार [3]से विभूषित किया जा चुका है।[4]उनका एक कविता संग्रह "वक्त के साथ" नाम से प्रकाशित हुआ है।[5] संप्रति शारजाह, संयुक्त अरब इमारात में निवास करने वाली पूर्णिमा वर्मन हिंदी के अंतर्राष्ट्रीय विकास के अनेक कार्यों से जुड़ी हुई हैं।[6]"
साभार :- विकी पीडिया
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भारत की समृद्ध कला परंपरा में लोक कलाओं का गहरा रंग है। काश्मीर से कन्या कुमारी तक इस कला की अमरबेल फैली हुई है। कला दीर्घा के इस स्तंभ में हम आपको लोककला के विभिन्न रूपों की जानकारी देते हैं। अभिव्यक्ति के ताज़ा   अंक में प्रस्तुत है यमुनाघाट चित्रकला  के विषय में -
यमुना नदी के दोनों किनारों पर बसा वृंदावन, मथुरा जिले में एक छोटा सा रमणीक नगर है। महाभारत महाकाव्य के नायक श्रीकृष्ण की लीला स्थली यह नगर तीर्थों में प्रमुख है। चम्पक वनों में विहार करते, माखन चुराते और बृजबालाओं से रास रचाते श्रीकृष्ण की अनेक कथाओं और वर्णनों में आने वाला यह नगर कृष्ण के अनेक भक्त कवियों और कलाकारों की कार्यस्थली है। साथ ही यह नगर अपनी कला परंपरा के लिये भी विश्व विख्यात है।

मंदिरों की दीवारों पर बनाई गयी चित्रकला और पत्थरों पर उत्कीर्ण कलाकारी हजारों वर्षों पुरानी है। अनेक राजा आए और गये लेकिन यह लोक कला आज भी कलाकारों के बीच परंपरागत रूप में यमुनाघाट चित्रकला के रूप में जीवित है। समय के साथ मुगल काल में कुछ चित्रकारों ने इसे लघुचित्र शैली में विकसित किया और १९ वीं शती में अमूर्त के युग में इसने भी आधुनिकता का जामा पहना लेकिन लोक कला के प्रेमियों और कलाकारों के बीच इसका मूल स्वरूप सदा जीवित रहा।

यमुनाघाट कलाकृतियों का प्रमुख विषय श्रीकृष्ण की लीलाएँ हैं। बाल लीलाएँ, माखन चोरी, राधाकृष्ण की प्रेम लीलाएँ, गोपियों के साथ महारास, राक्षस वध, गीता का उपदेश आदि महाकाव्य की अनेक प्रमुख घटनाओं को इस लोक कला में स्थान मिला है फिर भी अधिकता नदी और उसके आसपास के दृष्यों तथा बाललीलाओं की ही है। इसका कारण यह है कि कृष्ण का बचपन यहाँ व्यतीत हुआ था।

इन चित्रों की मुद्राएँ अत्यंत लुभावनी और आकर्षक होती हैं। बड़ी बड़ी बोलती हुई आँखें और मोहन की मनोहर मुस्कान बरबस आपको अपनी ओर आकर्षित करती है। पुरुष और स्त्री दोनों के ही शारीरिक गठन और अनुपात का सुन्दर ध्यान रखा जाता है। साथ ही वस्त्रों और आभूषणों को बारीकी से चित्रित करने पर विशेष ध्यान दिया जाता है।

कागज के कपड़े और दीवार पर बनाई जाने वाली इस कला ने मुगल काल में जब मिनियेचर शैली को अपनाया तो कलाकृतियों में रंग के साथ सोने का काम भी होने लगा। वृंदावन के कन्हाई चित्रकार ने इस शैली को और अधिक विकसित किया और इसमे सच्चे रत्न आभूषणों को टाँकने का काम प्रारंभ कर के इस लोक कला को अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक पहुँचा दिया। उन्हें इस प्राचीन लोक कला में नवीन प्रयोग के लिये पद्मश्री पुरस्कार से भी सम्मानित किया जा चुका है।

वृंदावन लोक कला के चित्र और नमूने वृंदावन और मथुरा में किसी भी पर्यटन केन्द्र से हर आकार और मूल्य में खरीदे जा सकते हैं। लेकिन जो लोग चालीस या पचास हज़ार यू एस डालर खर्च करना चाहते हैं उनको निश्चय ही वृंदावन के कन्हाई चित्रकार की वातानुकूलित कलादीर्घा तक जाना होगा जो अपने आप में एक दर्शनीय स्थल हैं।

8.2.12

व्यवस्था की सरिता के तटों की गंदगी साफ़ करते रहिये


                                    " मैं जानता हूं कि मैं तुम्हैं श्रद्धांजलि न दे पाऊंगा तुम जो मेरे अंत की प्रतीक्षा में बैठे लगातार घात पे घात किये  जा रहे हो.. मैं पलटवारी नहीं फ़िर भी तुम्हारा भी अंत तय है.. सच मैं तुम्हारी देह-निवृति के पूर्व हृदय से तुम्हारी आत्मा की शांति के लिये परमपिता परमेश्वर से आराधना रत हूं...!!"
                       अक्षत ने अपनी प्रताड़ना से क्षुब्ध होकर ये वाक्य बुदबुआए कि उसकी सहचरी समझ गई कि आज फ़िर अक्षत का हृदय किसी बदतमीज़ी का शिकार हुआ है. सहचरी ने अपनी मोहक अभिव्यक्ति से बिना किसी सवाल के अमृतलाल वेगड़ की सद्य प्रकाशित किताब "तीरे-तीरे नर्मदा" उसके पास रख दी जिसके अंतिम पृष्ठ पर अंकित था ये वाक्य-"अगर सौ या दो सौ साल बाद कोई एक दंपती नर्मदा परिक्रमा करता दिखाई दे पति के हाथ में झाड़ू हो और पत्नि के हाथ में टोकरी और खुरपी; पति घाटों की सफ़ाई करता हो और पत्नी कचरे को ले जाकर दूर फ़ैंकती हो और दौनों वृक्षारोपण भी करते हों,तो समझ लीजिये कि वे हमीं हैं-कान्ता और मैं "
आप ऐसी न बनें 
                         परकम्मा वासी लेखक कला साधक बेगड़ जी की नई किताब हाथ आते ही अक्षत ने पठन आरंभ कर दिया. रोज की तरह आज़ सहचरी वीणा ने नहीं पूछा-"चाय पियोगे क्या..? और बिना सवाल किये चाय टोस्ट भुने हुए नमकीन मखाने सामने रख दिये"  
            मौसम ने बेईमानी से फ़िर जाड़ा सामने ला दिया.मौसम को कोसने से बेहतर था कि फ़ुल स्वेटर डाल ली जाए शाम की तीर सी ठंडी हवा से निज़ात तो मिलेगी. वीणा जान चुकी थी कि मक्कार अफ़सर ने आज़ फ़िर किसी मसले पर   अक्षत को आहत किया होगा. तनाव से मुक्ति के उपाय उसे मालूम थे जो खुद उसने ईज़ाद किये थे वो चाहती थी कि अक्षत "क्षत" न हो.
        अक्षत की तरह हज़ारों-हज़ार लोग होंगे जो दिन रात अपने इर्द-गिर्द बजबजाती मक्कारियों की सड़ांध से तनाव से भर जाते होंगे कितनों की शामें बरबाद होती हैं . आप अगर बास हैं तो आफ़िस में वातावरण को हल्का बनाएं. बास के रूप में आफ़िस में कामकाज की सरस धारा के बहाव में अवरोध न बनें.. शंकालु और ईर्षालू न बने .. आपको याद होगी वो कहानी जिसमें एक मातहत अपने खूसट बास की तस्वीर पर दफ़्तर से बाहर निकल कर जूते मारता था.. और भड़ास  इसी तरह से निकालता था. 
      पिछले दिनों एक संस्था की कांफ़ैंस में एक मातहत ने यह कह कर शीर्षस्थों को भौंचक कर दिया-"सर, बेहतर होगा कि हम जैसे हैं वैसे ही रहें हमारी अब आस्था ही उठ चुकी है..!" 
        एक संगठन के लिये सबसे दुर्भाग्य की बात इससे बड़ी और क्या होगी कि उसका एक हिस्सा इतना क्षुब्ध हो जाए कि  उसकी आस्था ही खत्म हो जाए ....यह तथ्य किसी अराजक व्यवस्था के खिलाफ़ एक आवाज़ है. उस साहसी कर्मी को  "सर झुका कर सलाम" करना लाज़िमी होगा  पर उनके लिये जो व्यवस्था को अराजकता देते हैं जो शायद इनमें.. उनमें.. तुममें... मुझमें... उगा है या ऊग रहा है को लानत भेजिये.. यानी बेगड़ दम्पती की तरह व्यवस्था की सरिता के तटों की गंदगी साफ़ कीजिये .. यह काम बरसों बरस जारी रखना है...  

24.5.11

अभिव्यक्ति ने छापा मेरा व्यंग्य : उफ ! ये चुगलखोरियाँ


मुझे उन चुगली पसन्द लोगों से भले वो जानवर लगतें हैं
जो चुगलखोरी के शगल से खुद को बचा लेते हैं। इसके बदले वे जुगाली करते हैं। अपने आप को श्रेष्ठ साबित करने वालों को आप किसी तरह की सजा दें न दें कृपया उनके सामने केवल ऐसे जानवरों की तारीफ जरूर कीजिये। कम-से-कम इंसानी नस्ल किसी बहाने तो सुधर जाए। आप सोच रहे होंगेंमैं भी किसी की चुगली कर रहा हूँसो सच है परन्तु अर्ध-सत्य है !
मैं तो ये चुगली करने वालों की नस्ल से चुगली के समूल विनिष्टीकरण की दिशा में किया गया एक प्रयास करने में जुटा हूँ। अगर मैं किसी का नाम लेकर कुछ कहूँ तो चुगली समझिये। यहाँ उन कान से देखने वाले लोगों को भी जीते जी श्रद्धांजलि अर्पित करना चाहूँगा जो गांधारी बन पति धृतराष्ट्र का अनुकरण करते हुए आज भी अपनी आँखे पट्टी से बांध के कौरवों का पालन-पोषण कर रहें हैं। सचमुच उनकी ''चतुरी जिन्दगी`` में मेरा कोई हस्तक्षेप कतई नहीं है और होना भी नहीं चाहिए ! पर एक फिल्म की कल्पना कीजिएजिसमें विलेन नहीं होहुजूर फिल्म को कौन फिल्म मानेगा अपने आप को हीरो-साबित करने के लिए मुझे या मुझ जैसों को विलेन बना के पहले पेश करते हैं। फिर अपनी जोधागिरी का एकाध नमूना बताते हुये यश अर्जित करने के मरे जाते हैं।
ऐसा हर जगह हो रहा है हम-आप में ऐसे अर्जुनों की तलाश हैजो सटीक एवं समय पे निशाना साधे हमें चुगलखोरी को दुनियां से नेस्तनाबूत जो करना है आईए हम सब एकजुट हो जाएँ- इन चुगलखोरों के खिलाफ!
''चुगलीका बीजारोपण माँ-बाप करते हैं- अपनी औलादों में बचपने से-एक उदाहरण देखें, ''क्यों बिटियाशर्मा आंटी के घर गई थी``, ''हाँ मम्मी शर्मा आंटी के घर कोई अंकल बैठे थे``
अब 'अंकल और शर्मा आंटीके बीच फ्रायडी-विजन से देखती मैडम अपनी पुत्री से और अधिक जानकारी जुटाने प्रेरित किया जाओ अंकल का इतिहासउनकी नागरिकताउनका भूगोल पता लगाओ और यहीं से शुरू होता है चुगलखोरी का पहला पाठ।
इसमें केवल माँ ही उत्तरदायित्व निभाती है- ये भी एक अर्द्धसत्य है। पूर्ण सत्य यह है कि ''चुगलखोरी के कीड़े के वाहक पिता भी हुआ करते हैं``
हमें ''पल्स पोलियो`` अभियानों की तरह ''चुगलखोरी उन्मूलन अभियान`` चलाने चाहिए।
शासकीय कार्यालयों में इस अभियान के चलाने की बेहद जरूरत है।
मेरे दृष्टिकोण से आप सभी एकजुट होकर इस राष्ट्रीय अभियान को अपना लीजिए। अभियान के लिये-उन एन.जी.ओ. का सहयोग जुटाना न भूलेंजो अपने संगठनों के कार्यो की श्रेष्ठता सिद्ध करने दूसरों की (विशेषकर सरकारी सिस्टम की) चुगली करते हर फोरम पे नज़र आते हैं।
मित्रों! साहित्यसंस्कृतिकलाव्यापाररोजिया चैनलआदि सभी क्षेत्रों को लक्ष्य बनाकर हमें चुगली से निज़ात पानी है। और हाँ जो चुगलियाँ गाँव से शहर के दफ्तरों में साहबों के पास लाई जातीं हैं। उनके वाहक भी हमारे प्रमुख लक्ष्य होने चाहिए।
मेरे दफ्त़र में आकर चुगली करने वाला पवित्र धवल लिबास में आया वो व्यक्ति मुझे अच्छी तरह याद हैजो मेरे मातहत गाँव में काम करने वाली कर्मचारी से रूष्ट था।
उसकी विजय हुई यह जानकार कि मैं उसकी ''शिकायत उर्फ चुगली`` पर ध्यान दूँगा।
स्वयं गाँव का भ्रमण करने पर पाया कि 'धवल से पवित्र वस्त्र पहनने वाले व्यक्ति के अलावा सारा गांव उस विधवा महिला को देवी की तरह पूजता है और यही उसकी चुगली का मूल कारण है। कारण जो भी हो- चुगली एक खतरनाक रोग है। यदि इसे आप पनपने नहीं देना चाहते ''एण्टी-चुगली-ड्राप`` की दो बूंदे अवश्य देनी होगी।
कैसे पिलाएँ चुगली की दो बूंदे-''सबसे पहले लक्ष्य को पहचानेंउसे कांफिडेन्स में लें`` और उसका मुँह खुलवाएँ। बेहतर ढंग से सुने। जिसकी चुगली की जा रही है-उसे उसके सामने ले आएँ। फिर हौले से चुगलखोर की कही बातों में से दो बातें बूँदों की तरह सार्वजनिक करने की शुरूआत करें।``
इससे चुगलखोर के वस्त्र स्वयम् ही ढीले पड़ने लगेंगें। हाथ पाँव का फूलनासर झुका लेनामाथा पकड़ना या हड़बड़ाकर ''हाँ...हाँ...हाँ....नहीं...नहीं..`` की रट लगाना बीमारी की समाप्ति के सहज लक्षण होते हैं।
मित्रोंदफ्तरों मेंबैठकों मेंफोरमस् मेंइस प्रयोग को करने से बड़े-बड़े की चुगलखोरों की चुगलखोरी का अंत सहज ही हो जाता है। चुगली कमीने पन गुप का जीवाणु हैजिसने कईयों को तख्त से उठा फेंका है। इसका वाहक बेहद मीठाआकर्षकप्रभावशाली व्यतित्व वाली मानवीय काया का धारक हो सकता है। चुगली को कानूनी जामा भी पहनाया गया है।
सियासत का तो मूलाधार है ये। जहाँ सौभाग्यशाली लोगों को इससे बच सकने का मौका मिलता है। क़मोबेस सभी इस ''चुगली`` के शिकार हो ही जाते हैं। उधर समाजी रिवायतों की तो मत पूछिए - ''चुगली के बिना संबंध बनते ही नहीं। रहा तंत्र का सवाल सो - ''चुगली को शासन के हित में जारी सूचना की शक्ल में पेश करने वाले अधिकारी कर्मचारीसफल एवं श्रेष्ठ समझे जाते हैं।
सुधिजनोंअगर एक बार हिम्मत दिखा दी जावे तो सैकड़ों चुगली से प्रभावित ''जीव`` सुरक्षित हो जाऐगें।
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यह आलेख उन चुगलखोर अधिकारीयों कर्मचारियों को समर्पित है जिनका गुज़ारा चुगलियों के बिना नहीं हो पाता .
  1.  

29.8.08

तुम कौन हो.....?


देखिए आप कौन हैं ? मैं कौन हूँ ?
इस बात में ज़्यादा समय गवाने का दौर नहीं है मित्र
सियासत ओर सियासती लोग आपको क्या समझते हैं एक कहानी से साफ हो जाएगी बात

'उन भाई ने बड़ी गर्मजोशी से हमारा किया। माँ-बाबूजी ओर यहाँ तक कि मेरे उन बच्चों के हालचाल भी जाने जो मेरे हैं हीं नहीं। जैसे पूछा-
“गुड्डू बेटा कैसा है।”
“भैया मेरी 2 बेटियाँ हैं।”
“अरे हाँ- सॉरी भैया- गुड़िया कैसी है, भाभी जी ठीक हैं। वगैरा-वगैरा। यह बातचीत के दौरान उनने बता दिया कि हमारा और उनका बरसों पुराना फेविकोलिया-रिश्ता है।
हमारे बीच रिश्ता है तो जरूर पर उन भाई साहब को आज क्या ज़रूरत आन पड़ी। इतनी पुरानी बातें उखाड़ने की। मेरे दिमाग में कुछ चल ही रहा था कि भाई साहब बोल पड़े - “बिल्लोरे जी चुनाव में अपन को टिकट मिल गया है।”
“कहाँ से, बधाई हो सर”
“.... क्षेत्र से”
“मैं तो दूसरे क्षेत्र में रह रहा हूँ। यह पुष्टि होते ही कि मैं उनके क्षेत्र में अब वोट रूप में निवास नहीं कर रहा हूँ। मेरे परिवार के 10 वोटों का घाटा सदमा सा लगा उन्हें- बोले – “अच्छा चलूं जी !”
पहली बार मुझे लगा मेरी ज़िंदगी कितनी बेकार है, मैं मैं नहीं वोट हूं।
{नोट:-फोटो पर जिस किसी सज्जन का अधिकार हो तो कृपया ईमेल कीजिए तत्काल फोटो हटा दी जाएगी }

21.8.08

कथा महोत्सव-2008


सौजन्य =>पूर्णिमा जी
कथा महोत्सव-2008 अभिव्यक्ति, भारतीय साहित्य संग्रह तथा वैभव प्रकाशन द्वारा आयोजित
अभिव्यक्ति, भारतीय साहित्य संग्रह तथा वैभव प्रकाशन की ओर से कथा महोत्सव २००८ के लिए हिन्दी कहानियाँ आमंत्रित की जाती हैं।
दस चुनी हुई कहानियों को एक संकलन के रूप में में वैभव प्रकाशन, रायपुर द्वारा प्रकाशित किया जाएगा और भारतीय साहित्य संग्रह http://www.pustak.org/ पर ख़रीदा जा सकेगा।
इन चुनी हुई कहानियों के लेखकों को ५ हज़ार रुपये नकद तथा प्रमाणपत्र सम्मान के रूप में प्रदान किए जाएँगे। प्रमाणपत्र विश्व में कहीं भी भेजे जा सकते हैं लेकिन नकद राशि केवल भारत में ही भेजी जा सकेगी।
महोत्सव में भाग लेने के लिए कहानी को ईमेल अथवा डाक से भेजा जा सकता है। ईमेल द्वारा कहानी भेजने का पता है- teamabhi@abhivyakti-hindi.org डाक द्वारा कहानियाँ भेजने का पता है- रश्मि आशीष, संयोजक- अभिव्यक्ति कथा महोत्सव-२००८, ए - ३६७ इंदिरा नगर, लखनऊ- 226016, भारत
महोत्सव के लिए भेजी जाने वाली कहानियाँ स्वरचित व अप्रकाशित होनी चाहिए तथा इन्हें महोत्सव का निर्णय आने से पहले कहीं भी प्रकाशित नहीं होना चाहिए।
कहानी के साथ लेखक का प्रमाण पत्र संलग्न होना चाहिए कि यह रचना स्वरचित व अप्रकाशित है।
प्रमाण पत्र में लेखक का नाम, डाक का पता, फ़ोन नम्बर ईमेल का पता व भेजने की तिथि होना चाहिए।
कहानी के साथ लेखक का रंगीन पासपोर्ट आकार का चित्र व संक्षिप्त परिचय होना चाहिए।
कहानियाँ लिखने के लिए A - ४ आकार के काग़ज़ का प्रयोग किया जाना चाहिए।
ई मेल से भेजी जाने वाली कहानियाँ एम एस वर्ड में भेजी जानी चाहिए। प्रमाण पत्र तथा परिचय इसी फ़ाइल के पहले दो पृष्ठों पर होना चाहिए। फ़ोटो जेपीजी फॉरमैट में अलग से भेजी जा सकती है। लेकिन इसी मेल में संलग्न होनी चाहिए। फोटो का आकार २०० x ३०० पिक्सेल से कम नहीं होना चाहिए। कहानी यूनिकोड में टाइप की गई हो तो अच्छा है लेकिन उसे कृति, चाणक्य या सुशा फॉन्ट में भी टाइप किया जा सकता है।
कहानी का आकार २५०० शब्दों से ३५०० शब्दों के बीच होना चाहिए।
कहानी का विषय लेखक की इच्छा के अनुसार कुछ भी हो सकता है लेकिन उसमें मानवीय मूल्यों के प्रति आस्था होना ज़रूरी है।
इस महोत्सव में नए, पुराने, भारतीय, प्रवासी, सभी सभी देशों के निवासी तथा सभी आयु-वर्ग के लेखक भाग ले सकते हैं।
देश अथवा विदेश में हिन्दी की लोकप्रियता तथा प्रचार प्रसार के लिए चुनी गई कहानियों को आवश्यकतानुसार प्रकाशित प्रसारित करने का अधिकार अभिव्यक्ति के पास सुरक्षित रहेगा। लेकिन निर्णय आने के बाद अपना कहानी संग्रह बनाने या अपने व्यक्तिगत ब्लॉग पर इन कहानियों को प्रकाशित करने के लिए लेखक स्वतंत्र रहेंगे।
चुनी हुई कहानियों के विषय में अभिव्यक्ति के निर्णायक मंडल का निर्णय अंतिम व मान्य होगा।
कहानियाँ भेजने की अंतिम तिथि १५ नवंबर २००८ है।
यह विवरण http://www.abhivyakti-hindi.org/kahaniyan/2008/kathamahotsav2008.htm पर वेब पर भी देखा जा सकता है।

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धर्म और संप्रदाय

What is the difference The between Dharm & Religion ?     English language has its own compulsions.. This language has a lot of difficu...