25.1.23

असहमति मैत्री को खंडित करने का आधार नहीं है


  असहमति मैत्री को खंडित नहीं करती। ऐसा किसने कह दिया कि कोई किसी के विचार से सहमत हो वह साथ नहीं रह सकता?
बहुतेरे लोग ऐसे होते हैं, जो असहमति के आधार पर परिवार तक तोड़ देते हैं।
  
वेदांत का सार है सत्संग विमर्श और आपसी विचार विनिमय। क्या आपने इस एंगल से सोचा है?
सनातन में हजारों वर्ष पहले शास्त्रार्थ को मान्यता मिली है। पश्चिमी विद्वान वाल्टेयर ने असहमति को भलीभांति परिभाषित किया है। असहमति का अर्थ आपसी द्वंद्व नहीं है।
सहमति के साथ सह अस्तित्व बेहद प्रभावशाली आध्यात्मिक दार्शनिक बिंदु  है।
कई लोग असहमति को आधार बनाकर बेहद संवेदनशील हो जाते हैं। इससे संघर्ष भी पैदा हो जाता है। वास्तव में असहमति का संघर्ष से कोई लेना देना नहीं है। संघर्ष एक मानसिक उद्वेग है जो शारीरिक या बौद्धिक रूप से नकारात्मकता को जन्म देता है। इससे उलट असहमति एक तात्कालिक या दीर्घकालिक परिस्थिति भी हो सकती है। परंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि कोई भी असहमति को आधार बनाकर युद्ध करने लगे।
   स्वस्थ समाज में स्वस्थ मस्तिष्क के लोग अक्सर आपस में असहमत होने के बावजूद एकात्मता के साथ रहते हैं। ठीक उसी तरह जैसे कि शक्कर की बरनी छोटे या बड़े शक्कर के दाने होने से शक्कर की मूल प्रवृत्ति में कोई परिवर्तन नहीं होता।
मित्रों कभी मेरी किसी भी मित्र के साथ  असहमति  होती है अथवा हो गई हो तो मुझ पर क्रोधित मत होना क्योंकि मैं असहमति के आधार पर द्वंद के जन्म से सहमत नहीं रहता। मेरे एक पूज्य वरिष्ठ अधिकारी हैं जो बेहद करुणा भाव से मुझे देखते हैं उनसे कई मुद्दों पर वैचारिक असहमति या हैं परंतु उनका इसने मुझ पर सदा बरसता है। यही महात्मा गांधी महात्मा गौतम बुद्ध महावीर स्वामी भगवान श्री राम जैसे महान व्यक्तियों द्वारा बताया गया मार्ग है। भारतीय जीवन दर्शन जीवंत दर्शन है। भारतीय जीवन दर्शन की शुचिता के लिए हर असहमति के प्रति सम्मान व्यक्त करने से हमारा जीवन सुदृढ़ एवं पवित्र हो जाता है। यही हर मुमुक्षु के लिए सनातनी संदेश है। हाल के दिनों में हम सब  सहमति और असहमति के साथ दो भागों में विभक्त हैं।  एक व्यक्ति लोगों के माइंड को पढ़कर एक पर्ची पर कुछ लिख देता है। और उसे ईश्वर की कृपा कहकर स्वयं को उस प्रक्रिया से ही अलग कर लेता है। दूसरी ओर एक युवा लड़की माइंड रीडिंग करके अपने हुनर को जादूगरी की श्रेणी में रखती है। दोनों में फर्क यह है कि एक अपनी माइंड रीडिंग की योग्यता रखते हुए भी अस्तित्व को ब्रह्म के आशीर्वाद को महान बताता है जबकि दूसरी ओर वही युवा बालिका अपने आप को मैजिशियन बताती है। एक टीवी चैनल इससे धजी का सांप बनाकर पेश करता है। इससे दर्शक और पाठक भ्रमित हो जाते हैं। जबकि इसका अर्थ यह है कि अगर यह जादू होता इसे बहुत से लोग आसानी से सीख लेते परंतु सवा सौ करोड़ से अधिक जनसंख्या में से मात्र कुछ ही लोग इस तरह की क्रिया प्रदर्शित कर पाते हैं। कुल मिलाकर आस्तिक लोग इसे ईश्वर की कृपा मानते हैं जबकि नास्तिक ऐसी प्रक्रियाओं को पाखंड कहते हैं अथवा जादूगरी मान लेते हैं। अगर मैं हर असहमत व्यक्ति से दूरी बनाने लगे अथवा दुश्मनी पालूँ तो मुझसे बड़ा मूर्ख कौन होगा भला?
वर्तमान युग में यही एक बहुत बड़ी कमी है।
   यही योग अहंकार और स्वयं को सिद्ध करते रहने का युग है। इस युग में हम सोचते हैं कि जो कर रहे हैं वह हम ही कर रहे हैं। ऐसी अवधारणा लोकायत विचारकों अर्थात नास्तिकों की होती है। नास्तिक जिनको ब्रह्मा के अस्तित्व पर तनिक भी भरोसा नहीं होता मान लिया जाए कि ब्रह्म नहीं है तब कि अगर हम इतना सा भरोसा करने तो हमारे मन में बसा हुआ है अहंकार तुरंत तिरोहित हो जाएगा। परंतु हम तो सोचते हैं कि यह कार्य मैंने किया इसका श्रेय मुझे मिलना चाहिए। तथाकथित प्रगतिशील साहित्य में ऐसी ही कहानियां कविताएं देखने पढ़ने को मिलती हैं। वैचारिक रूप से स्वस्थ मस्तिष्क यही सब करते नजर आते हैं। परंतु आस्तिक लोग वास्तव में ऐसे विचारकों से भिन्न होते हैं को से भिन्न होते हैं। एक बार की सत्य घटना में आपको बताता हूं किसी व्यक्ति पर मुझे अनायास क्रोध आ गया। कुछ अप्रिय वार्ता और कार्य किया था उसने। परंतु दूसरे ही पल मुझे यह महसूस हुआ कि-" जो मैं कर रहा हूं वह मैं नहीं कर रहा हूं यह ईश्वर द्वारा किया गया कार्य है।" तब तुरंत ही मैंने महसूस किया-" तब फिर उस व्यक्ति ने जो किया है वह उसने नहीं बल्कि ईश्वर की इच्छा के अनुकूल हुआ है।" ऐसा सोचते ही मस्तिष्क पूरी तरह से सामान्य हो गया। फलस्वरूप न तो मैं हिंसक बन पाया और न ही हिंसा करने के लिए मुझे मेरे शारीरिक संवेग ने प्रेरित किया। एक अनुचित हिंसा करने से मैं बच गया।
   सच मायने में यह घटना असामान्य हो सकती है। क्योंकि अपराधी को अपराध का दंड मिलना चाहिए था। परंतु मेरे विचार से मैंने यह कार्य ईश्वर पर छोड़ दिया। कुछ दिनों बाद वही व्यक्ति बेहद दीन हीन स्थिति में मेरे सामने आया। मैं समझ चुका था कि यह व्यक्ति ईश्वरीय दंड का भागी हो चुका है। जो व्यक्ति अहंकारी है वह निश्चित तौर पर धन पद प्रतिष्ठा और सत्ता का अधिकारी होता है। अगर वह इन सबके होते हुए भी अहंकार से मुक्त रहता है तो वह सबसे पवित्र मुमुक्षु बनता है । इस प्रकार अहंकार आत्म प्रदर्शन और स्वयं को श्रेष्ठ करते रहने के लिए रास्ते बनाता है। इन रास्तों में आए किसी भी अवरोध के विरुद्ध वह व्यक्ति सक्रिय हो जाता है। स्थिति तो यहां तक आ जाती है कि अगर कोई व्यक्ति उस व्यक्ति की बात से सहमत है तो उसे रास्ते से हटा तक दिया जाता है। ठीक उसी तरह जैसे दारा शिकोह को औरंगजेब ने हाथी के पैरों से कुचलवा दिया था। ठीक वैसे ही जैसे हिटलर और स्टालिन ने भी ऐसा ही कुछ किया। मित्रों रावण के चरित्र को ध्यान से देखिए असहमति के कारण उसने अपने छोटे भाई को लात मारकर लंका से बाहर कर दिया। मित्रों आप सोचिए हर व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से भिन्न होता है। उसकी पसंद भिन्न होती है उसकी आदतें भिन्न होती है उसका चिंतन भी भिन्न होता है। परंतु इस आधार पर अगर संघर्ष होने लगे तो पृथ्वी पर मानवता समाप्त हो जाएगी।
   हो सकता है आप मेरे विचारों से सहमत हूं आपकी असहमति का सम्मान करते हुए मैं आपको प्रणाम करता हूं
*ॐ श्री राम कृष्ण हरि:*

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