बदला कभी भी न्याय नहीं हो सकता एकदम सटीक बात कही है माननीय चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया ने ।
सी जे आई का यह बयान आज यानी दिनांक 8 दिसंबर 2020 को सुर्खियों में है । यह अलग बात है कि लगभग इतने ही दिन यानी 8 दिन शेष है निर्भया कांड के 7 वर्ष पूर्ण होने के और अब तक अपराधी भारतीय जनता के टैक्स का खाना खा खा कर जिंदा है ।
भारतीय सामाजिक एवं जीवन दर्शन भी यही कहता है । सांस्कृतिक विकास के अवरुद्ध हो जाने से सामाजिक विसंगतियां पैदा होती हैं । इस पर किसी किसी की भी असहमति नहीं है ।
निश्चित तौर पर यह बयान हैदराबाद एनकाउंटर के बाद आया है। माननीय मुख्य न्यायाधीश जी के प्रति पूरा सम्मान है उनका एक एक शब्द हम सबके लिए आदर्श वाक्य के रूप में स्वीकार्य है ।
मेरी व्यक्तिगत राय है कि :- हैदराबाद पुलिस का एक्शन बदला नहीं है उसे रिवेंज की श्रेणी में रखा नहीं जा सकता ऐसा मैं सोचता हूं और यह मेरी व्यक्तिगत राय है किसी की भी सहमति असहमति इससे यह राय नहीं दी गई है । यह एक सामान्य सी बात है कि पुलिस को यह अधिकार नहीं है कि वह निर्णय करें । पुलिस भी इस बात से सहमत रहती है ।
जहां तक हैदराबाद में हुए एनकाउंटर की घटना को परिभाषित करने का मुद्दा है इस घटना को रिवेंज या बदला नहीं कहा जा सकता । बदला दो पक्षों के बीच में हुई क्रिया और प्रतिक्रिया से उपजी एक घटना है जिसमें उभय पक्षों की व्यक्तिगत हित के लिए संघर्ष की स्थिति पैदा होती है ।
यहां विक्टिम और क्रिमिनल के बीच पुलिस, मीडिया, व्यवस्था, समाज तीसरे पक्ष के रूप में दर्शक हैं । इस दृष्टिकोण से सोचा जाए तो आप स्वयं समझदार हैं कि मामला क्या है ।हम सबसे विद्वान हैं हमारी न्याय पालिका, हम ऐसा मानते हैं । न्यायपालिका मौजूदा कानूनों के अंतर्गत निर्णय लेती है । और यही एक प्रजातांत्रिक स्तंभ का दायित्व है परंतु यदि न्याय में विलंब अथवा देर हो तो उससे अगर कोई उत्प्रेरण की स्थिति बने उसके लिए किसी को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता परंतु पुलिस प्रशासन को कानून अपने हाथ में लेने का अधिकार नहीं है यहां पुलिस कानून को अपने हाथ में लेती नजर नहीं आ रही ।
अगर ऐसा लग रहा है कि बेहद एवं आक्रोश के वशीभूत होकर ऐसा कोई क़दम उठा ले कि संसद से सड़क तक जब चारों ओर उन्हें मृत्युदंड देने का अनु गुंजन हो रहा हो ऐसी स्थिति में कानून जो न्याय दिलाने की गारंटी तो दे रहा है लेकिन विलंब के बारे में मॉल है इस पर सद्गुरु भी बहुत स्पष्ट है . कोई भी विचारशील व्यक्ति असहमति दे ही नहीं सकता ना कोई कभी न साहित्यकार क्योंकि रचना शील व्यक्ति सृजक होता है विध्वंसक नहीं पर अगर उसे ऐसा लगता है जैसा सतगुरु ने कहा कि यहां न्याय पाने में या न्याय मिलने में इतना विलंब होता है जिसे हम निर्मम विलंब भी कह सकते हैं.... तो कानून कमजोर नजर आने लगता है इस लिंक पर जाइए और देखिए सतगुरु ने क्या कहा...?
अगर ऐसा लग रहा है कि बेहद एवं आक्रोश के वशीभूत होकर ऐसा कोई क़दम उठा ले कि संसद से सड़क तक जब चारों ओर उन्हें मृत्युदंड देने का अनु गुंजन हो रहा हो ऐसी स्थिति में कानून जो न्याय दिलाने की गारंटी तो दे रहा है लेकिन विलंब के बारे में मॉल है इस पर सद्गुरु भी बहुत स्पष्ट है . कोई भी विचारशील व्यक्ति असहमति दे ही नहीं सकता ना कोई कभी न साहित्यकार क्योंकि रचना शील व्यक्ति सृजक होता है विध्वंसक नहीं पर अगर उसे ऐसा लगता है जैसा सतगुरु ने कहा कि यहां न्याय पाने में या न्याय मिलने में इतना विलंब होता है जिसे हम निर्मम विलंब भी कह सकते हैं.... तो कानून कमजोर नजर आने लगता है इस लिंक पर जाइए और देखिए सतगुरु ने क्या कहा...?
यहां यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि बलात्कार और फिर बर्बरता के साथ हत्या या टॉर्चर कर देना पुराने कानूनों से ही परिभाषित है इसे जघन्य से जघन्यतम अपराध की श्रेणी में रखा जाना चाहिए इसे देशद्रोह के अपराध के समकक्ष रखकर न्यूनतम सुनवाई के साथ शीघ्र और अधिकतम दंड की श्रेणी में रख देना चाहिए कम से कम विधायिका यह दायित्व निर्वहन कर सकती है मीडिया भी चाहे परंपरागत मीडिया हो या सोशल मीडिया इस मुद्दे को इस तरह से उठाते हुए बदलाव की मांग कर सकती है यह हमारा प्रजातांत्रिक अधिकार है । यहां माननीय मुख्य न्यायाधीश की अभिव्यक्ति को सम्मान देने के लिए कम से कम इतना तो किया जा सकता है कि कानूनों में शीघ्र और समुचित बदलाव लाने की जरूरत पर तेज़ी से काम हो ।
*गिरीश बिल्लोरे मुकुल*
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