27.6.19

धरोहर को ना संजोने वाले हम दुर्भाग्यशाली..! - प्रशांत पोळ


अभी कुछ दिनों से यूरोप में हूँ. पिछले बीस वर्षों में जर्मनी में बहुत घुमा हूँ. लेकिन न्यूरेनबर्ग छूट गया था. इसलिए इस बार वहां जाने का कार्यक्रम बनाया. न्यूरेनबर्ग प्रसिध्द हैं, ‘न्यूरेनबर्ग ट्रायल्स’ के लिए. दूसरे विश्वयुध्द में जिन नाझी अफसरों ने कहर बरपाया था, यहूदियों का सर्वनाश किया था, उन सभी पर मित्र देशों की सेनाओं द्वारा (अर्थात अमरीका, ब्रिटेन, फ़्रांस आदि) मुकदमा चलाया गया. उनमेसे अधिकतर लोगों को मृत्युदंड दिया गया. सन १९४६ में दुनिया के समाचार पत्रों के शीर्षकों में यही ‘न्यूरेनबर्ग मुकदमा’ छाया हुआ था.

हिटलर की नाझी पार्टी अर्थात NSDAP के उदय में न्यूरेनबर्ग का बड़ा स्थान हैं. हिटलर ने अपना प्रभाव दिखाने के लिए यही पर बड़ी बड़ी रैलियां की थी. दस, दस लाख सैनिकों की अनुशासनबध्द रैलियां. इन सब के लिए न्यूरेनबर्ग में विशाल मैदान और उसमे सारी व्यवस्थाएं की गई. न्यूरेनबर्ग, हिटलर की गतिविधियों का प्रमुख केंद्र रहा था. और इसीलिए विश्वयुध्द के पश्चात नाझियों पर किये जाने वाले मुकदमों के लिए न्यूरेनबर्ग को चुना गया.
  • ( प्रशांत पोल )

जर्मनी, हिटलर के बारे में बात करना नहीं चाहता. अधिकतर जर्मन्स, हिटलर को इतिहास का एक काला धब्बा मानते हैं. इसलिए जर्मनी में हिटलर के बारे में बातचीत नही होती. हिटलर का साहित्य, या हिटलर से संबंधित साहित्य भी वहां सहजता से नहीं मिलता. जर्मन्स, हिटलर का वह काला कालखंड भूल जाना चाहते हैं.

लेकिन इतिहास को संजो कर रखना उनका स्वभाव हैं, उनकी प्रकृति हैं.

न्यूरेनबर्ग में यही दिखता हैं. जहां हिटलर अपने नाझी सेना की बड़ी बड़ी और भव्य रैलियां करता था, परेड करता था, वह स्थान जर्मन सरकार ने सहजकर रखा हैं. विश्वयुध्द की बमबारी में ध्वस्त हुए स्ट्रक्चर को, उसी , पहले के रुप में फिर से खड़ा किया हैं. इस विशाल भूमि पर अब खड़ा हैं, ‘डोकू झेंत्रुंम’ अर्थात ‘डॉक्यूमेंटेशन सेंटर’. इस सेंटर में अत्याधुनिक तकनिकी से १९२६ से १९४५ तक का कालखंड जिवंत किया गया हैं. किस प्रकार से जर्मनी में सोशलिस्ट पार्टी का उदय हुआ, किस प्रकार हिटलर का पार्टी में प्रवेश हुआ, कैसे हिटलर ने अपनी NSDAP पार्टी को सत्ता में पहुंचाया. इस सारे प्रवास में, हिटलर ने न्यूरेनबर्ग में कैसे विशाल रैलियां की, इन सब के ओरिजिनल फूटेज वहा दिखाए गए हैं. उन दिनों के समाचार पत्र, उन सैनिकों की वस्तुएं, उनका गणवेश, उनकी टोपी, उनके बिल्ले, उनका कॉफी का कप, उन्होंने लिखे हुए पत्र, नाझी अधिकारीयों की आदेश, उन दिनों नाझी सरकार ने जारी किये हुए नोट…. ये सब कुछ वहां अत्यंत व्यवस्थित ढंग से प्रदर्शित किये गए हैं.

ये पूरी प्रदर्शनी, नाझी सरकार के उसी भवन में हैं, जिसमे हिटलर बैठता था. उसी भवन में, अंदर के कमरों में, चित्र, नक़्शे, पुरानी वीडियो क्लिप्स, समाचार पत्र और अन्य कागजात आदि माध्यम से सजाई गई हैं. अंदर प्रवेश करते समय टिकट के साथ एक ऑडियो गाइड दिया जाता हैं, जिसमे, प्रत्येक चित्र के सामने का क्रमांक डाला, तो उस चित्र से संबंधित पूरी जानकारी, अंग्रेजी भाषा में, ऑडियो स्वरुप में मिल जाती हैं.

प्रमाणिकता से कहु, तो यह सारा देखकर मेरे मन में एक गहरी टीस उठी. जिस बात को लेकर जर्मन्स इतनी नफरत करते हैं, उसे भी इतिहास सहज कर रखने के लिए वे संजो कर रखते हैं. और हम..? मैंने मेरी पुस्तक, ‘वे पंद्रह दिन’ की प्रस्तावना में लिखा था -

“वैसे देखा जाए तो जर्मनी के लोग भी हिटलर और उसके भयानक अत्याचारों की याद करना नहीं चाहते. परन्तु फिर भी उन्होंने उस कालखंड एवं इतिहास को सहेजकर रखा है. जर्मनी में अनेक स्थानों पर स्थित हिटलर के यातना कैम्पों को जस-का-तस सुरक्षित रखा गया है. जर्मनी में अनेक संग्रहालयों में हिटलर के समय की वस्तुएं, चित्र, हथियार, यातना देने के औजार, कपड़े, कागज़ात, अखबार जैसी अनेक वस्तुएं स्मरण के रूप में सुरक्षित रखी हैं.
परन्तु हम भारतीयों ने हमारे इस विभाजन के कालखंड के बारे में क्या किया..? कुछ भी नहीं. धीरे-धीरे यह कटु स्मृतियां लोगों के मस्तिष्क से विरल होती जाएंगी, और अगले कुछ वर्षों में यह कालखंड सबूतों के अभाव में इतिहास से मिट जाएगा.”

१९४७ का विभाजन यह हमारे देश की, इतिहास और भूगोल को बदल देने वाली घटना हैं. लेकिन, इस विषय पर हमने कोई स्थाई स्मारक बनाया, कोई प्रदर्शनी बनाई, उस कालखंड को जीवित करने वाले कागजातों को, छायाचित्रों को, विडिओ क्लिप्स को, समाचार पत्रों को संभाल कर रखा..? उत्तर नकारार्थी हैं.

यह सब बदलना होगा. हमारा इतिहास, हमारी धरोहर हैं. उसको संजो कर रखना, संभाल कर रखना यह हमारा कर्तव्य हैं.
- प्रशांत पोळ

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