आफ्टर थिएटर डे

कंजूस नाटक में बालभवन जबलपुर  के पूर्व छात्र अक्षय ठाकुर  की भूमिका बेहद प्रभावी रही.. इस युवा रंगकर्मी के उजले कल की प्रतीक्षा है. इस चंचल बालक ने खुद को रंगकर्म के जोखिम भरे काम में डाल दिया है.
थियेटर से कलाकार ट्रान्सफार्म हो जाता है तो दर्शक में भी कम बदलाव नहीं होते. थियेटर बेहद जटिल विधा है जबकि फिल्म बेहद आसान .. आप मोटी मोटी फीस देकर पर्सनैलिटी को प्रभावी बनाने की कोशिश करलें तो भी वो रिजल्ट न मिलेगा जो तीन नाटकों में काम करने मिलता है . बस डायरेक्टर का खूसट होना ज़रूरी है. जो कठोर अनुशासन का पालन कराए. थियेटर के मामले में मेरा नज़रिया साफ़ है.. कि फिल्म से अधिक थियेटर प्रभावशाली होता है. सियासी लोग अपनी विचारधारा को विस्तार देने का ज़रिया थिएटर को बनाकर चुनौती देते हैं सवाल खड़े कर देतें हैं व्यवस्था के खिलाफ.... जबकि उनका "जन" से कितना लेना देना होता है इसका अंदाजा आप खुद ही लगा सकतें हैं. पर नई जमात बेहद सलीके से मानवता वादी नजर आ रही है. जबलपुर में परसाई जी की कहानियों पर आधारित नाटकों को खूब सपोर्ट मिला क्योंकि उनमें सटायर तत्व और मज़बूत रहा है पर समय के साथ तेज़ी से बदलाव हो रहा है कल ही कुमारी शालिनी अहिरवार ने एकल नाटक लिखकर स्वयम अभिनय कर साबित कर दिया कि- थियेटर अब युवाओं के हाथ है जो अतिमहत्वाकांक्षा से कोसों दूर हैं तथा वे रंगकर्म को प्रतीकों और काल्पनिक बिम्बों से दूर ले जाकर वास्तविक मुद्दों तक ले जाएंगें. तो सायंस-फिक्शन, वीमेन एम्पावरमेंट , रिश्ते, वैधव्य, कुंठा, गैर-बराबरी, जैसे विषयों की तरफ भी थियेटर को ले जा रहें हैं ये युवा वो भी एक जिद्द के साथ .
जबलपुर में यूं तो थियेटर 1960 से अधिक प्रभावी हुआ है जो रामलीला आदि से अलग नये कलेवर में आया पर एकांगी होने के निशाँ मिले रंगकर्म पर ये अलग बात है कि अरुण पांडे एवं समूह अर्थात अविभाजित विवेचना ने बड़ी मज़बूती से रंगकर्म को नई दिशा देने में कोर कसर न छोड़ी पर कुछ कलाकारों ने भ्रमवश अथाह समंदर में गोते लगाए बिना कुछेक अखबारी कतरनों के जरिये रजत पटल पर छाने की नाकामयाब कोशिशें भी कीं. तो दूसरी ओर सीता राम सोनी जैसे साफ़गोई से अपनी बात रखने वालों ने भी रंगकर्म सिखाने की बागडोर से खुद को जुदा न किया. उधर संतोष राज़पूत जैसे ज़िद्दी व्यक्ति की मेहनत पर कोई संदेह ही नहीं कर सकता. .
इस विवरण में संतोष राजपूत के अलावा संजय गर्ग दविंदर सिंह, सहित सम्पूर्ण नाट्यलोक , को भूलना गलत होगा.जो नर्सरी स्कूल की तरह सजग और सक्रिय हैं. 2007 से 2018 तक मिला तेज़ से तेज़, नशामुक्ति, रानी अवंतिबाई, भेड़िया –तंत्र, आदि के बाद बॉबी के अलावा मिला-तेज़ से तेज़ को पुन: पेश किया. बालभवन को नि:शुल्क सपोर्ट देकर इस टीम ने मुझसे भी पोट्रेट लिखवा लिया. और बालभवन के आगामी दो नाटकों को तैयार करने की ज़िम्मेदारी ले ली.

नाटक में म्यूजिक-पिट के ज़रिये लाइव संगीत के प्रयोग के लिए डॉक्टर शिप्रा सुल्लेरे को कला सेवी होने के नाते मेरी नैतिक ज़वाबदेही है. अधिकारी के तौर पर कहूं तो मुझे यह कथन करने में कोई तकलीफ नहीं कि बालभवन के बच्चों को बड़े मंच पर अवसर देना मेरी ड्यूटी भी है.
1989-90 में राजेश पांडे ने भी बच्चों के साथ काम किया उस दौर में बालभवन जैसी कला-पोषक संस्था के अभाव में काम कर लेने की जोखिम वो भी बच्चों के साथ कर लेना बेहद मुश्किल था पर शहर का नाम ही संस्कारधानी है. आगे कुछ कहने की ज़रूत नहीं.
जबलपुर में महिलाएं और उनका रंगकर्म :- यूं तो कलाकार के रूप महिलाओं की कमी नहीं हैं पर नाटक के अन्य कामों में बालभवन की मनीषा तिवारी, पूजा केवट, और शालिनी तिवारी लेखन, निदेशन, व्यवस्थापन में आगे आईं हैं जो 2014 के बाद की बड़ी उपलब्धि ही तो है.  

नगर निगम जबलपुर ने कल्चरल-स्ट्रीट बना दी पर रंगकर्म की अलख 27 मार्च 2018 को ही जागी जब विवेचना रंगमंडल, विवेचना थियेटर ग्रुप, विमर्श, रंगाभारण, समागम रंगमंडल, नाट्यलोक, के साथ बालभवन ने कुछेक साथियों की अनुपस्थिति में किन्तु सर्वाधिक समर्पितों की उपस्थिति में नाट्यदिवस मनाया . कल्चरल स्ट्रीट कलासाधकों के लिए कुछ व्यवस्था बढाने के साथ बेहद अनुकूल स्थान है. देखना अब ये शेष है कि रंगकर्म को कितना जनसमर्थन मिलता है.
{नोट :- इस आलेख में नामों का उल्लेख होना  केवल उदाहरण स्वरुप है.. जिन कला साधकों का ज़िक्र नहीं आया वे कला साधक नहीं हैं ऐसा कदापि नहीं  }


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