7.9.17

स्व शरद बिल्लोरे को समर्पित : कविता


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*इस कविता की सृजन प्रक्रिया बेहद जटिल रही इसे मुक्कमल करना मेरे बस में न था वो बिछुड़ा हुआ आया अश्कों में घुला और मैंने भी इस बार टपकने न दिया और तब कहीं जाकर पूरा हुआ ये शोकगीत*
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वो था तो न था
नहीं है तो तैर कर 
आ जाता है आँखों में 
टप्प से टपक जाता है 
आँसुओं के साथ 
फिर गुम हो जाता है वाष्पित होकर 
विराट में 
आता ज़रूर है 
गाहे बगाहे 
भाई था न 
बड़ा था 
आएगा क्यों नहीं 
सुनो तुम सब रोना 
ये एक कायिक सत्य है 
सबको उसे याद रखना है 
इन यादों में -
इक हूक सी उठती है आंखे डबडबातीं हैं 
भर जातीं हैं अश्कों से इन्हीं में घुला होता है वो
टपकने मत देना ... 
वो अश्रुओं के साथ हवा में 
खो जाता है .... !!
                                                  * गिरीश बिल्लोरे मुकुल*

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