पार्थ जाओ जयद्रथ का वध करो.......!


चित्र साभार :- कृष्ण कोष से 
कौरवों के जीजा जयद्रथ को वरदान था कि उसका  का वध कोई सामान्य व्यक्ति नहीं कर पायेगा, साथ ही यह वरदान भी प्राप्त था कि जो भी जयद्रथ को मारेगा और जयद्रथ का सिर ज़मीन पर गिरायेगा, उसके सिर के हज़ारों टुकड़े हो जायेंगे ... कृष्ण का चातुर्य देखिये आत्मदाह का संकल्प लेने वाले पार्थ को युद्धोचित सहयोग देकर सर संधान को प्रेरित किया .
  समय पूर्व तिमिर कुछ यूं हुआ मानो सूर्य को अस्ताचल में भेज दिया और फिर दिया .......... फिर कहा पार्थ जाओ जयद्रथ का वध करो... पर ध्यान रहे कि उसका सर ज़मीन पर न गिरे .......... यह वही जयद्रथ था जिसने द्रोपदी का शोषण करना चाहा था ! कोई कितना भी वरदान से युक्त हो पर उसका अंत तय है. कृष्ण की युक्तियाँ काम आतीं थीं पांडवों को तभी तो वे सफल हुए.
अस्तु  मुद्दा ये था कि कैसे न गिरता सर ज़मीन पर ...... युक्ति थी कृष्ण  के पास कृष्ण ने कहा – “पार्थ जाओ जयद्रथ का वध करो.......! ध्यान रखना सर उसके तापस  वृह्रद्रथ की गोद में गिरे ...... ” हुआ भी यही 100 योजन उत्तर दिशा में अर्थात  कुरुक्षेत्र लगभग 15 सौ किलोमीटर दूरी पर तापस पिता वृह्रद्रथ की गोद में जा गिरा .....  पार्थ जीवित रहे उनके सर के हज़ार हिस्से न हुए हज़ार हिस्से तापस पिता वृह्रद्रथ के हुए...... जिनकी हडबड़ाहट के कारण जयद्रथ का सर जमीन पर गिरा. वरदान भी तो यही दिया था ........ पिता ने. कि जिससे उसका सर गिरेगा उसके सर के टुकड़े होंगे.  
वरदान देने के पहले पात्र कुपात्र का ध्यान अवश्य रहें चाहे वो पुत्र क्यों न हो.  जीवन वही कुरुक्षेत्र है .... जहां कृष्ण जिसके साथ है वो युद्द जीतता है......... जहां हज़ारों कृष्ण के स्वांग साथ हों वहाँ ....... सर के हिस्से हो ही जाते हैं ....... देखना है सुधि पाठक इस कथा का क्या अर्थ लगातें हैं..




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