सुनूं भी क्यों किसी की क्यों .. एक भी न सुनूं ऐसे किसी की जो गुड़ खाए गुलगुलों से परहेज़ी बताए .. !! अब भला सरकारी तनख्वाह अंग्रेजी कैलेंडर से ही महीना पूरा होते मिलती है.. है न .. कौन अमौस-पूनौ ले दे रहा है तनख्वाह बताओ भला हमको तो खुश रहने का बहाना चाहिये. आप हो कि हमारी सोच पर ताला जड़ने की नाकामयाब कोशिश कर रहे हो .
अल्ल सुबह वर्मा जी, शर्मा जी वगैरा आए हैप्पी-न्यू ईयर बोले तो क्या उनसे झगड़ लूं बताओ भला .
चलो हटाओ सुनो पुराने में नया क्या खास हुआ अखबार चैनल वाले बताएंगे हम तो आम आदमी ठहरे खास बातों से हमको क्या लेना . अखबार चैनल वालों की मानें तो नए पुराने वर्ष कुल मिला कर एक सा होता है हर बार कोई न कोई अच्छाई या बुराई साथ लेके आते जाते रहते हैं.
हम जो आम आदमी का जीवन जीते हैं बेशक़ खुशी के बहाने खोजते हैं. ज़रा सी भी खुशी मिले झूम जाते हैं. और और क्या बस आगे क्या कहूं सदा खुश रहिये .. वैसे मैं खुश नहीं हूं कुछ अतिमहत्वाकांक्षी एवम अपनी पराजय को पराए सर पे रखने के लिये चुगली करने वालों एवम वालिओं से परीशान हूं.
बहरहाल हेप्पी न्यू ईयर टू आल आफ़ यू
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30.12.13
2014 कल तुम आओगे तब मैं
28.12.13
तुम बिन माँ भावों ने सूनेपन के अर्थ बताए !!
मां सव्यसाची प्रमिला देवी की पुण्यतिथि 28.12.2013 पर पुनर्पाठ
आज़ की रात फ़िर जागा उसी की याद में लोगो-
तुम्हारी मां तुम्हारे साथ तो होगी इधर सोचो
कहीं उसको जो छोड़ा हो तो वापस घर में ले आना
वही तेरी ज़मीं है और उजला सा फ़लक भी है !
* गिरीश बिल्लोरे मुकुल,जबलपुर
मां.....!!
छाँह नीम की तेरा आँचल,
वाणी तेरी वेद ऋचाएँ।
सव्यसाची कैसे हम तुम बिन,
जीवन पथ को सहज बनाएँ।।
कोख में अपनी हमें बसाके,
तापस-सा सम्मान दिया।।
पीड़ा सह के जनम दिया- माँ,
साँसों का वरदान दिया।।
प्रसव-वेदना सहने वाली, कैसे तेरा कर्ज़ चुकाएँ।।
ममतामयी, त्याग की प्रतिमा-
ओ निर्माणी जीवन की।
तुम बिन किससे कहूँ व्यथा मैं-
अपने इस बेसुध मन की।।
माँ बिन कोई नहीं,
सक्षम है करुणा रस का ज्ञान कराएँ।
तीली-तीली जोड़ के तुमने
अक्षर जो सिखलाएँ थे।।
वो अक्षर भाषा में बदलें-
भाव ज्ञान बन छाए वे !!
तुम बिन माँ भावों ने सूनेपन के अर्थ बताए !!
सव्यसाची स्व. मां |
यूं तो तीसरी हिंदी दर्ज़े तक पढ़ी थीं मेरी मां जिनको हम सब सव्यसाची कहते हैं क्यों कहा हमने उनको सव्यसाची क्या वे अर्जुन थीं.. कृष्ण ने उसे ही तो सव्यसाची कहा था..? न वे अर्जुन न थीं. तो क्या वे धनुर्धारी थीं जो कि दाएं हाथ से भी धनुष चला सकतीं थीं..?
न मां ये तो न थीं हमारी मां थीं सबसे अच्छी थीं मां हमारी..!
जी जैसी सबकी मां सबसे अच्छी होतीं हैं कभी दूर देश से अपनी मां को याद किया तो गांव में बसी मां आपको सबसे अच्छी लगती है न हां ठीक उतनी ही सबसे अच्छी मां थीं .. हां सवाल जहां के तहां है हमने उनको सव्यसाची क्यों कहा..!
तो याद कीजिये कृष्ण ने उस पवित्र अर्जुन को "सव्यसाची" तब कहा था जब उसने कहा -"प्रभू, इनमें मेरा शत्रु कोई नहीं कोई चाचा है.. कोई मामा है, कोई बाल सखा है सब किसी न किसी नाते से मेरे नातेदार हैं.."
यानी अर्जुन में तब अदभुत अपनत्व भाव हिलोरें ले रहा था..तब कृष्ण ने अर्जुन को सव्यसाची सम्बोधित कर गीता का उपदेश दिया.अर्जुन से मां की तुलना नहीं करना चाहता मैं क्या कोई भी "मां" के आगे भगवान को भी महान नहीं मानता.. मैं भी नहीं... ! "मां" तो मातृत्व का वो आध्यात्मिक भाव है जिसका प्राकट्य विश्व के किसी भी अवतार को ज्ञानियों के मानस में न हुआ था न ही हो सकता वो तो केवल "मां" ही महसूस करतीं हैं. दुनियां के सारे पुरुष क्या स्वयं ईश्वर भी मातृत्व का अनुभव नहीं कर सकते. मां शब्द ही माधुर्य, पवित्रता, और उससे भी पहले "पूर्णता का पर्याय" होता है. यानी मां में ही आप विराट के दर्शन पा सकते हैं.
मां शब्द का अर्थ भी "स्वार्थ-हीन नेह" और जिसमें ये भाव है उसकी किसी से शत्रुता हो ही नहीं सकती. जी ये भाव मैने कई बार देखा मां के विचारों में "शत्रु विहीनता का भाव " एक बार एक क़रीबी नातेदार के द्वारा हम सबों को अपनी आदत के वशीभूत होकर अपमानित किया खूब नीचा दिखाया .. हम ने कहा -"मां,इस व्यक्ति के घर नजाएंगे कभी कुछ भी हो इससे नाता तोड़ लो " तब मां ने ही तो कहा था मां ने कहा तो था .... शत्रुता का भाव जीवन को बोझिल कर देता है ध्यान से देखो तुम तो कवि हो न शत्रुता में निर्माण की क्षमता कहां होती है. यह कह कर मां मुस्कुरा दी थी तब जैसे प्रतिहिंसा क्या है उनको कोई ज्ञान न हो .मर्यादा मे रहना सीखो
मैने कह दिया था -मर्यादा गई राम के जमाने के साथ..
तब मैने मां के चेहरे पर मुस्कान देखी थी.. मुझे महसूस हुआ कि कितना गलत हूं
मेरे विवाह के आमंत्रण को घर के देवाले को सौंपने के बाद सबसे पहले पिता जी को लेकर उसी निकटस्थ परिजन के घर गईं जिसने बहुधा हमारा अपमान किया करता . मां ने उस कुंठित रिश्तेदार को इतना स्नेह दिया कि उसे अपनी भूलों का एहसास हुआ उसने मां के चरणों को पश्चाताप के अश्रुओं से पखारा. वो मां ही तो थीं जिसने उस एक परिवार को सबसे पहले सामाजिक-सम्मान दिया जिनको समाज ने अपनी अल्पग्यता वश समाज से अलग कर दिया था. मां चाहती थी कि सदा समभाव रखना ही जीवन का सर्वोच्च उद्देश्य हो.
सव्यसाची अलंकरण इस वर्ष यह कार्यक्रम स्थगित है |
जननी ने बहुत अभावों में आध्यात्मिक-भाव और सदाचार के पाठ हमको पढ़ाने में कोताही न बरती. हां मां तीसरी हिंदी पास थी संस्कृत हिन्दी की ज्ञात गुरु कृपा से हुईं अंग्रेजी भी तो जानती थी मां उसने दुनिया खूब बांची थी. पर दुनिया से कोई दुराव न कभी मैने देखा नहीं मुझे अच्छी तरह याद है वो मेरे शायर मित्र इरफ़ान झांस्वी से क़ुरान और इस्लाम पर खूब चर्चा करतीं थीं . उनकी मित्र प्रोफ़ेसर परवीन हक़ हो या कोई अनपढ़ जाहिल गंवार मजदूरिन मां सबको आदर देती थी ऐसा कई बार देखा कि मां ने धन-जाति-धर्म-वर्ग-ज्ञान-योग्यता आधारित वर्गीकरण को सिरे से नक़ारा आज मां यादों के झरोखे से झांखती यही सब तो कहती है हमसे ,... सच मां जो भगवान से भी बढ़कर होती है उसे देखो ध्यान से विश्व की हर मां को मेरा विनत प्रणाम
वही क्यों कर सुलगती है वही क्यों कर झुलसती है ?
रात-दिन काम कर खटती, फ़िर भी नित हुलसती है .
न खुल के रो सके न हंस सके पल –पल पे बंदिश है
हमारे देश की नारी, लिहाफ़ों में सुबगती है !
वही तुम हो कि जिसने नाम उसको आग दे डाला
वही हम हैं कि जिनने उसको हर इक काम दे डाला
सदा शीतल ही रहती है भीतर से सुलगती वो..!
कभी पूछो ज़रा खुद से वही क्यों कर झुलसती है.?
वही हम हैं कि जिनने उसको हर इक काम दे डाला
सदा शीतल ही रहती है भीतर से सुलगती वो..!
कभी पूछो ज़रा खुद से वही क्यों कर झुलसती है.?
मुझे है याद मेरी मां ने मरते दम सम्हाला है.
ये घर,ये द्वार,ये बैठक और ये जो देवाला है !
छिपाती थी बुखारों को जो मेहमां कोई आ जाए
कभी इक बार सोचा था कि "बा" ही क्यों झुलसती है ?
ये घर,ये द्वार,ये बैठक और ये जो देवाला है !
छिपाती थी बुखारों को जो मेहमां कोई आ जाए
कभी इक बार सोचा था कि "बा" ही क्यों झुलसती है ?
तपी वो और कुंदन की चमक हम सबको पहना दी
पास उसके न थे-गहने मेरी मां , खुद ही गहना थी !
तापसी थी मेरी मां ,नेह की सरिता थी वो अविरल
उसी की याद मे अक्सर मेरी आंखैं छलकतीं हैं.
पास उसके न थे-गहने मेरी मां , खुद ही गहना थी !
तापसी थी मेरी मां ,नेह की सरिता थी वो अविरल
उसी की याद मे अक्सर मेरी आंखैं छलकतीं हैं.
विदा के वक्त बहनों ने पूजी कोख माता की
छांह आंचल की पाने जन्म लेता विधाता भी
मेरी जसुदा तेरा कान्हा तड़पता याद में तेरी
उसी की दी हुई धड़कन इस दिल में धड़कती है.
आज़ की रात फ़िर जागा उसी की याद में लोगो-
तुम्हारी मां तुम्हारे साथ तो होगी इधर सोचो
कहीं उसको जो छोड़ा हो तो वापस घर में ले आना
वही तेरी ज़मीं है और उजला सा फ़लक भी है !
* गिरीश बिल्लोरे मुकुल,जबलपुर
छाँह नीम की तेरा आँचल,
वाणी तेरी वेद ऋचाएँ।
सव्यसाची कैसे हम तुम बिन,
जीवन पथ को सहज बनाएँ।।
कोख में अपनी हमें बसाके,
तापस-सा सम्मान दिया।।
पीड़ा सह के जनम दिया- माँ,
साँसों का वरदान दिया।।
प्रसव-वेदना सहने वाली, कैसे तेरा कर्ज़ चुकाएँ।।
ममतामयी, त्याग की प्रतिमा-
ओ निर्माणी जीवन की।
तुम बिन किससे कहूँ व्यथा मैं-
अपने इस बेसुध मन की।।
माँ बिन कोई नहीं,
सक्षम है करुणा रस का ज्ञान कराएँ।
तीली-तीली जोड़ के तुमने
अक्षर जो सिखलाएँ थे।।
वो अक्षर भाषा में बदलें-
भाव ज्ञान बन छाए वे !!
तुम बिन माँ भावों ने सूनेपन के अर्थ बताए !!
19.12.13
हर मोड़ औ’ नुक्कड़ पे ग़ालिब चचा मिले
हर मोड़ औ’ नुक्कड़ पे ग़ालिब चचा मिले
ग़ालिब की शायरी का असर देखिये ज़नाब
ग़ालिब की शायरी का असर देखिये ज़नाब
*************
कब से खड़ा हूं ज़ख्मी-ज़िगर हाथ में लिये
सब आए तू न आया , मुलाक़ात के लिये !
तेरे दिये ज़ख्मों को तेरा इंतज़ार है –
वो हैं हरे तुझसे सवालत के लिये !
सब आए तू न आया , मुलाक़ात के लिये !
तेरे दिये ज़ख्मों को तेरा इंतज़ार है –
वो हैं हरे तुझसे सवालत के लिये !
*************
उजाले उनकी यादों के हमें सोने नहीं देते.
सुर-उम्मीद के तकिये भिगोने भी नहीं देते.
उनकी प्रीत में बदनाम गलियों में कूचों में-
भीड़ में खोना नामुमकिन लोग खोने ही नहीं देते.
*************
जेब से रेज़गारी जिस तरह गिरती है सड़कों पे
तुमसे प्यार के चर्चे कुछ यूं ही खनकते हैं....!!
कि बंधन तोड़कर अब आ भी जाओ हमसफ़र बनके
कितनी अंगुलियां उठतीं औ कितने हाथ उठते हैं.?
सुर-उम्मीद के तकिये भिगोने भी नहीं देते.
उनकी प्रीत में बदनाम गलियों में कूचों में-
भीड़ में खोना नामुमकिन लोग खोने ही नहीं देते.
*************
जेब से रेज़गारी जिस तरह गिरती है सड़कों पे
तुमसे प्यार के चर्चे कुछ यूं ही खनकते हैं....!!
कि बंधन तोड़कर अब आ भी जाओ हमसफ़र बनके
कितनी अंगुलियां उठतीं औ कितने हाथ उठते हैं.?
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पूरे शहर को मेरी शिकायत सुना के आ
मेरी हर ख़ता की अदावत निभा के आ !
हर शख़्स को मुंसिफ़ बना घरों को अदालतें –
आ जब भी मेरे घर आ, रंजिश हटा के आ !!
मेरी हर ख़ता की अदावत निभा के आ !
हर शख़्स को मुंसिफ़ बना घरों को अदालतें –
आ जब भी मेरे घर आ, रंजिश हटा के आ !!
17.12.13
.संदीप आचार्य को श्रद्धांजली : श्याम नारायण रंगा ‘अभिमन्यु’
गौरा रंगा, लम्बा कद, हंसमुख चेहरा, सुन्दर व सौम्य मुस्कान के साथ सरल स्वभाव जी संदीप आचार्य जिसने इंडियन आइडल सीजन 2 में प्रथम स्थान प्राप्त कर अपनी धमाकेदार एंट्री 2006 में करी आज वह हमारे बीच नहीं रहा। राजस्थान की मरूनगरी बीकानेर के इस चहेते व लाडले को आज अंतिम विदाई देने जैसे सारा शहर ही उमड़ पड़ा था। काल के क्रूर हाथों ने संदीप को हमारे से छीन लिया लेकिन मानो किसी को यह विश्वास ही नहीं हो रहा था कि संदीप हमारे बीच नहीं रहा। संदीप जब किसी से भी मिलता तो अपने से बड़ों के पैर छूने नहीं भूलता था और बच्चों से उसका खास लगाव था और बच्चों के साथ खेलना उनकी बाल सुलभ हरकतों में शामिल होकर बच्चा बन जाता संदीप की आदत में था। बच्चों के लिए संदीप हमेशा चाचा और मामा रहा और संदीप हर बच्चे को अपनी ओर से चाॅकलेट देना या केाई गिफ्ट देना नहीं भूलता था।
मेरे से संदीप का जुड़ाव वैसे तो संदीप के बचपन से ही था। मेरे मामाजी मोटूलाल जी हर्ष ’मोटू महाराज’ और संदीप के पिताजी विजय कुमार जी आचार्य ‘गट्टू महाराज’ शुरू से ही मित्र हैं और उनका काम धंधा भी किसी समय साथ रहा है। इसलिए मेरे लिए संदीप के पिताजी हमेशा गट्टू मामा ही रहे और संदीप व उसका भाई आनंद मेरे लिए छोटे भाई की तरह ही हैं। मुझे याद है कि संदीप शुरू से ही शर्मिले स्वभाव का था और उसको स्टेज पर प्रस्तुति देने में झिझक रहती थी। वह अकेले घंटों बैठकर इंस्ट्रूमेंटल धुनों पर रियाज करता था और अपने दोस्तों के बीच व परिवार के बीच बैठकर गाने से भी उसे परहेज नहीं था लेकिन स्टेज पर प्रस्तुति देने में उसे शुरू से ही हल्की परेशानी रही। मुझे याद है मेरे मित्र व संदीप के बहनोई रविन्द्र व्यास जी संदीप को लेकर काफी शादी समारोह में जाते थे और हम सब संदीप को स्टेज पर प्रस्तुति देने के लिए इतना प्रोत्साहित करते थे कि वह मजबूर होकर अपनी प्रस्तुति देता था। मेरी शादी में भी संदीप ने इसी तरह मेरे निवेदन पर अपने एक गाने की प्रस्तुति दी थी और उस समय वह इंडियन आईडल के मुकाम तक नहीं पहुॅंचा था। लेकिन जब सोनी टीवी के इंडियन आईडल मंे संदीप का मासूम चेहरा लोगों ने देखा तो जैसे बीकानेर व राजस्थान सहित पूरे देश का प्यार इस खूबसूरत गायक की गायकी पर उमड़ पड़ा था। इंडियन आईडल में जनता के एसएमएस से संगीत के सर्वोच्च पायदान पर संदीप की पहुॅंच ने ये साबित कर दिया था कि संदीप एक शानदार गायक ही नहीं बल्कि सबका चहेता बन चुका था। उस समय संदीप के लिए दिवानगी जो मैंने देखी थी वह किसी भी मशहूर फिल्मी हस्ती व राजनीति के नामी गिरामी चेहरे से कहीं ज्यादा थी। उस समय में ईटीवी राजस्थान में बीकानेर संवाददाता था और संदीप से जुड़ी हर खबर मैंने ईटीवी पर दिखाई थी। संदीप के इंडियन आईडल बनने के सारे दौर को मैंने ईटीवी के माध्यम से लोगों के सामने रखा था और वह दिन आज भी भुलाए नहीं भूलता जब संदीप के इंडियन आईडल बनने की घोषणा होने से पहले ही बीकानेर में शीतला गेट के बाहर स्थित संदीप आचार्य के घर पर हजारों की संख्या में लोगों का हूजूम था और संदीप के दादाजी ‘दाऊ जी होलेण्डर’ अपने पोते की इस गरिमामय सफलता की बधाई सबसे स्वीकार कर रहे थे। इंडियन आईडल बनने की घोषणा के साथ ही लोगों का ऐसा सैलाब था कि आमजन ने संदीप के परिवार के लोगों से मिलने के लिए उसके घर की खिडकियों तक को तोड़ दिया था और पूरे राजस्थान के साथ सारा बीकानेर सड़कों पर उतर गया था । कईं लोग शहर में घूम घूम कर थाली बजा रहे थे, कोई गुलाल उड़ा रहा था तो कोई पटाखे छोड़ रहा था, शहर की औरतों व बुजुर्गों ने तो कईं मंदिरों व मस्जिदों में मन्नतें पूरी की और रूपये बांट कर बधाईया दी। अपने लाडले के प्रति ऐसा प्रेम भुलाए नहीं भूल सकता लेकिन आज वही भीड़ थी वही लोग थे संदीप के घर के सामने का रास्ता रोक दिया गया था लेकिन आज वह खुशी का दौर महज सात साल बाद ऐसे गम में बदल चुका था जिसकी पूर्ति होना संभव नहीं था। शहर के हर सख्स की आॅंखस नम थी पर कोई किसी को कुछ करने की स्थिति में नहीं था सबकी आॅंखों में बस एक ही सवाल था कि ऐसा कैसे हो गया मानो उनका चेहरा ये कह रहा हो कि ऐसा हो ही नहीं सकता। सबका प्यारा दुलारा संदीप इन लोगों को छोड़ कर अनन्त में विलीन हो चुका था ये बात प्रसिद्ध गायक उदित नारायण ने तो मानी ही नहीं और सोनू निगम, फराह खान, अन्नू मलिक, राजा हसन, सहित ऐसी कईं हस्तियां थी जिनका गुड ब्याॅय जा चुका था हमेशा हमेशा के लिए सबको छोड़ कर। लोगों को याद आ रहा था वह दिन जब संदीप इंडियन आईडल बनने के बाद पहली बार बीकानेर आया था तो मानो शहर ने अपना सारा प्यार अपने इस बालक के लिए बिछा दिया था। हर गली, मौहल्ले, नुक्कड़ सहित सरकारी कार्यालयों में संदीप ही संदीप था। हाथी की सवारी किए संदीप ने सबका अभिवादन स्वीकार किया और बीकानेर का सर गौरव से ऊॅंचा हो गया था उस दिन कि बीकानेर के एक लाडले ने पूरे भारत में शहर का नाम रोशन किाय है। आज भी वह दिन सबकी आॅंखें के सामने था जब बीकानेर के रेलवे स्टेडियम में संदीप को सुनने के लिए इतना जन समुद्र आया था कि संदीप को महज कुछ ही मिनटों में स्टेज छोड़ कर उतरना पड़ा। यहां उपस्थित लोगों के लिए ये यादें ही अब सहारा थी संदीप की। महल उदास.....और गलियां सूनी...चुप चुप है दिवारें.....शायद ऐसे ही मौकों के लिए किसी गीतकार ने ये लाईनंे लिखी होगी।
इंडियन आईडल बनने के बाद ईटीवी और न्यूज पोर्टल खबरएक्सप्रेस डाॅट काॅम के लिए भी मैंने संदीप आचार्य का साक्षात्कार लिया था और ये बात मैंने महसूस की कि बुलंदी को छूने के बाद भी संदीप में कोई घमंड नहीं था वह वैसा ही था जैसा पहले था। बीकानेर आने के बाद अपने शहर के सब लोगों ने मिलना, पान की दुकान पर जाना, शहर के जागरणों में अपने पुराने दोस्तों के साथ भजन व गाने गाना, बारातों में स्टेज पर अपने परिवार व दोस्तों के लिए गाने गाना व अपने बचपन के मित्रों के साथ जी भर कर क्रिकेट खेलना उसकी आदत थी। बीकानेर के लोगों के लिए यह गर्व था कि उनका प्यारा बेटा जो भारत का सितारा बन चुका था जब भी बीकानेर आता तो अपने स्टारडम की छवि को बीकानेर के बाहर ही छोड़ कर आता था। किसी को किसी भी बात के लिए ‘ना’ कहना संदीप की आदत में था ही नहीं और अपने परिवार व समाज के संस्कारों को कभी उसने छोड़ा नहीं था। पिछले दिनों संदीप आचार्य ने बीकानेर के लोगों से विधानसभा चुनावों में ज्यादा से ज्यादा मतदान करने की अपील भी की थी उस समय भी जब वह स्टेज पर होता तो बीकानेर के बच्चों, बड़ों, बुजुर्गों सहित प्रशासन के अधिकारियों का प्यार उसके लिए बरबस ही सामने आ जाता था। आज अपनी इन सब यादों को छोड़कर संदीप जा चुका है। उसके साथ जीए व बिताए हर एक पल को आज सब लोग याद कर रहे हैं और फेसबुक, ट्वीटर, वाट्सअप सहित कईं सोसल साईट्स पर आज संदीप को श्रद्धांजली दी जा रही है। एक बात हर किसी के मुॅंह पर थी कि 2006 के शुरूआत में कोई भी नहीं जानता था कि बीकानेर में ऐसा भी कोई छोरा है और 2006 में ही इस छोरे के कारण शहर की पहचान बनी थी.....सबके मन में ये ही सवाल आ रहा था कि ...बना के क्यूं बिगाडा रे.............। एक साल पूरा ही हुआ था संदीप की शादी को और एक महिना भी नहीं हुआ उसके बेटी हुए लेकिन काल इतना क्रूर होता है यह सच सामने था। उसकी गाए एक गाने की आवाज आज भी याद आती है:-
। ओम शांति ओम शांति ओम शांति।
श्याम नारायण रंगा ‘अभिमन्यु’
पुष्करणा स्टेडियम के पास
नत्थूसर गेट के बाहर
बीकानेर {राजस्थान} 334004
मोबाईल - 9950050079
16.12.13
16 दिसम्बर क्या तुमने कभी सोचा था कि तुम इस तरह याद किये जाओगे
पिंड दान कराने गये एक पंडित जी ने कहा - "तुम्हारे पिता को सरिता के मध्य में छोड़ना है ..वहां से सीधे स्वर्ग का रास्ता मिलेगा !"
नाविक ने कहा- "पंडिज्जी.. पिंड का चावल तो मछलियां खुद तट पर आ के खा लेंगी आप नाहक मध्य-में जाने को आमादा हैं. मध्य में तो भंवर है.. कुछ हुआ तो .."
पंडिज्जी- हे नास्तिक नाविक, तुम जन्म और कर्म दौनो से अभागे इसी कारण से हो क्योंकि तुमको न तो धर्म का ज्ञान है न ही जन्म जन्मांतर का बोध.. यजमान बोलो सच है कि नहीं..
शोकमग्न यजमान क्या कहता शांत था कुछ कहा न गया उससे .. नाविक ऐसे वक़्त में उस पर अपनी राय थोंप कर मानसिक हिंसा नहीं करना चाहता था . चला दिया चप्पू उसने सरिता के मध्य की ओर.. मध्य भाग में वही हुआ जिसका भय था नाविक को नाव लड़खड़ाई.. जैसे-तैसे नाविक ने नाव को साधा वापस मोड़ ली नाव और कहा - पंडिज्जी, यदि मेरी वज़ह से आप दौनों अकाल मृत्यु का शिकार होते तो मुझे घोर पाप लगता.. अस्तु मैं सुरक्षित स्थान पर पिंडप्रवाह करा देता हूं. पंडिज्जी मौन थे... सारे ज्ञान चक्षु खुल गये थे उनके........ किसी के लिये मुक्ति का मार्ग कोई दूसरा व्यक्ति खोजे ये मानसिक दुर्बलता है. मेरी मुक्ति के लिये मेरी सदगति के लिये मैं स्वयं ज़िम्मेदार हूं. न कि कोई बिचौलिया.
दूरस्थ एक गांव के ये ज्ञानी पुरुष डोंगल से युक्त लेपटाप के ज़रिये दुनियां से जुड़े हैं . इनकी व्यवसायिक बुद्धि की दाद देनी होगी . किसी के आग्रह पर हमने इन से मुलाक़ात की जीवन के आसन्न कष्टों के उपचार का दावा करते हैं ये.. मुझे विश्वास नहीं कि मेरे अनन्त कष्टों.. अनन्त सुखद क्षणों में ये किसी भी साधना के ज़रिये हस्तक्षेप कर सकते हैं. क्योंकि हर हस्तक्षेप धन कमाने का एक अवसर है उनके लिये. ठीक इसी तरह जैसे एक नेता आता है हमारे सामने मुद्दे उछालता है हम मोहित हो जाते हैं उसको वोट टाईप की शक्ति अर्पित कर देते हैं.. वो आसन पर बैठ जाता है.. वो उसका व्ववसायिक वैशिष्ठय है क्योंकि हम नहीं जानते कि हम छले जा रहे हैं.. छले न भी गये तो हमारे पास विकल्प कम ही होते हैं जिन विकल्पों को हम स्वीकारते हैं वो लोकसंचार के बाज़ीगरों द्वारा हमारे मानस में डाले गये हैं. मेरी दुर्बल बुद्धि से मुझे न तो अन्ना न ही केजरी बाबू समझ आ रहे . एक मज़दूर को एक क्लर्क को एक मास्टर एक कुली को एक सामान्य आदमी को मूल्यांकन में सबसे पीछे छोड़ने वाले हम लोग केवल सतही ज्ञान जो बहुधा सूचनाओं का पुलिंदा होता है के आधार पर अच्छा-बुरा का श्रेणीकरण कर अपना निर्णय देते हैं. मुझे आज एक मौलिक निर्णय देखने को मिला सोशल साईट पर शायद आप भी पसंद करेंगे स्नेहा के निर्णय को स्नेहा चौहान कहती हैं निर्भया मामले को लेकर जब सारा देश गुस्से से उबल रहा था, तकरीबन उसी दौरान दिल्ली से दो घंटे की
दूरी पर एक गांव की 15 वर्षीय लड़की गैंगरेप की शिकार हुई।
लेकिन उसकी कराह सुनने वाला, उसे इंसाफ दिलाने वाला कोई नहीं
था। छह माह तक वह इंसाफ के लिए लड़ती रही। बाद में उसे खुद पर केरोसीन उड़ेलकर
खुदकुशी कर ली । अभी भी 70 फीसदी से ज्यादा ग्रामीण महिलाओं
को अपने कानूनी अधिकारों का पता नहीं है । उन्हें तो अपमान, अत्याचार
और उत्पीड़न को चुपचाप सहना सिखाया जाता है। क्या महिला अधिकारों की वकालत करने
वाली शहरी महिलाएं अपनी साथिनों को उनके कानूनी अधिकार सिखाने आगे आएंगी ?
स्नेहा का एक सवाल समय से भी है- "16 दिसम्बर क्या तुमने कभी सोचा था कि तुम इस तरह याद किये जाओगे ???? न जाने कितने दोगले
चरित्रों के बेरहम शब्दो से गड़े जाओगे ,न जाने कितने
कैमरो कि जगमगाती चुंधिया देने वाली रौशनी के बीच तुम्हारा भी जनाज़ा हर साल कुछ
बे दिल ,पत्थर दिल अपने कंधे पे लादेंगे ,और तुमको शाम होते होते सब भूल जायेंगे।" स्नेहा से मैं सहमत या असहमत हूं ये इतर मसला है पर प्रभावित हूं कि "स्नेहा के अपने विचार हैं पर मौलिक विचार हैं विचार मौलिक होने चाहिये पाज़िटिव होने चाहियें.. वरना आप की जिव्हा हिंसक पशु की मानिंद लपलपाती नज़र आएगी . आप क्या नज़र आएंगे आप स्वयं समझ सकते हैं"..
बात आपको मिसफ़िट लग सकती है पर सचाई यही है कि हम बोलते तो हैं पर मौलिक चिंतन विहीन हैं कभी सोचना ज़रूर इस मसले पर...!!
14.12.13
भैया बहुतई अच्छे हैं इसई लिये तो....
भैया बहुतई अच्छे हैं इसई लिये तो....बस भैया की अच्छाईयों का डिंडोरा जो बरसों से पिट रहा था लोग बेसुध गोपियों के मानिंद मोहित से भैया की बंसी के पीछे दीवाने से झूम उठते हैं . हमने पूछा भैया की अच्छाईयां गिनाओ तो मौन साध गए कुछ और कुछेक तो दूसरों की निंदा का पिटारा खोल बैठे. लोग बाग भी अजीब हैं हो सकता है कि मेरी सोच ही मिसफ़िट हो.. ? अरे भाई मिसफ़िट हो क्या है ही.... मिसफ़िट मेरी विचार शैली .
मुझमें वो दिव्य दृष्टि लगाई ही नहीं है भगवान ने जिससे में भैया को आईकान मान सकूं. ये मेरा मैन्यूफ़ेक्चरिंग डिफ़ेक्ट है. मुझे ऐसा एहसास हुआ . सो बस शेव कराते वक्त ज्यों ही भैया की याद आई कि मेरे बाल भर जाड़े में कांटे से खड़े हो गये . कर्तनालय मंत्री को दाढ़ी साफ़ करने में कम मुश्किल पेश आई.
बाल कटवाते समय मुझे बुद्ध की तरह ज्ञान हुआ कि हिंदुस्तान में के पास बात करने के विषय तय शुदा हैं.… सियासत, और निंदा . जहां तक सियासत का सवाल है लोग खबरिया चैनल पर जारी बहसों को भी पीछे छोड़ देते हैं. और निंदा बाप रे बाप जिसे वो जानते भी नहीं उसमें वे लाख बुराईयां गिना देते हैं. बाल कट ही रहे थे कि एक सज्जन ने भैया की तारीफ़ में सुर छेड़ा.. हमने पूछा भैया वाकई अच्छे हैं ... तुम साबित करो कि क्यों अच्छे हैं.. एकाध उदाहरण बता दो भैया..?
वास्तव में नई संचार क्रांति का यही सबसे दुविधा जनक पहलू है कि लोग अक्सर अच्छी पाज़िटिव खबरों से दूर हैं. आम आदमी (केज़री बाबू वाला नहीं वास्तविक आम आदमी ) अपने अलावा दूसरों को भ्रष्ट मानते हुए खुद को व्यवस्था से पीढ़ित मानता है किंतु जब उसकी बारी आती है तो अपना ऊल्लू सीधा करने कोई भी रास्ता अपनाने में हेटी नहीं खाता.
एक सज्जन पेशे से कलमकार हैं सच उनसे मेरा दूर तक कोई नता नहीं वे मुझे जानते भी नहीं एक बार संयोगवश मिले मुझे एक खास समूह से जुड़ा होने की खबर सुनते ही बोले -"भाई, आपके संस्थान में फ़लां आदमी (मेरा नाम लेकर ) बहुत बदमाश है." हम मौज में आ गये परिचय कराने वाला मित्र अपना पसीना पौंछ रहा था .और हमने मौज लेते हुए पूछा-"भाई कभी उस बदमाश से मिले हो ?"
महानुभाव बोले- ऐसे लोगों से मिलना खुद की बेईज्जती करवाना है भाई सा’ब.. !
हम - एकाध बार मिल लेते तो अच्छा होता . आप उसकी अकल ठिकाने लगा देते आप जैसे महानुभावों की वज़ह से उनमें शायद कोई सुधार आ जाता !
महानुभाव बोले-"अरे भाई क्या दुनिया भर को सुधारने का ठेका हम लिये हैं..?"
हम - "लेकिन अनजाने व्यक्ति की निंदा अथवा किसी की बुराई करने का हक किसे होता है..?
"
महानुभाव के पास ज़वाब न था उनके चारों खाने चित्त होते ही हमने फ़ट से अपना सरकारी आई.कार्ड निकाला . भाई भौंचक अवाक से हमारा मुंह तकते रह गये. उनकी तरह "दर्ज़ा-ए-लाचारी" भगवान किसी को भी न दे हमने उनके जाते समय बस एक बात कही मित्र .. जितनी नकारात्मक्ता होती है उतना ही हम असलियत से भागते हैं.. सचाई को जानिये फ़िर राय कायम कीजिये.
मित्रो, सच तो ये है कि दुनिया अब मौलिक चिंतन और मौलिक सोच से दूर होती जा रही है. जो आप पढ़ते या सुनते हैं वो सूचनाएं हैं जिसको सत्य मानना या न मानना आपकी बौद्धिक कसौटी की गुणवत्ता पर निर्भर करता है.. किसी के प्रति यकायक सकारात्मक अथवा नकारात्मक राय बनाने से पेश्तर बुद्धि की का स्तेमाल करिये वरना अनर्गल वक्तव्य जारी मत कीजिये ... तब तय कीजिये कि भैया अच्छे हैं या बुरे .. अच्छे हों तो उनके प्रवक्ता बनना ज़रूरी नहीं बुरे हों तो उनको गरियाना मूर्ख होने का संकेत है.. कुल मिला कर शांत किंतु प्रखर सौम्यता आपके लिये आत्मोत्कर्ष का मार्ग खोलेगा आपके बच्चे विद्वान होंगे..और आप यशश्वी ... वरना वरना आप में और ज़ाहिल-गंवार में कोई फ़र्क रहेगा क्या..? क्योंकि हर बुरे व्यक्ति में कुछ न कुछ अच्छाई और हर अच्छे व्यक्ति में कुछ न कुछ बुराई अवश्य होती है.. जिनके साथ हमको गुज़ारा करना होता है.. अस्तु .. शांति शांति
10.12.13
प्रदेश के तीसवें जननायक से उम्मीदें
क्रमांक
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नाम
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अवधि
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1
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श्री रविशंकर शुक्ल
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01.11.1956 to 31.12.1956
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2
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श्री भगवन्त राव मण्डलोई
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01.01.1957 to 30.01.1957
|
3
|
श्री कैलाश नाथ काटजु
|
31.01.1957 to 14.04.1957
|
4
|
श्री कैलाश नाथ काटजु
|
15.04.1957 to 11.03.1962
|
5
|
श्री भगवन्त राव मण्डलोई
|
12.03.1962 to 29.09.1963
|
6
|
श्री द्वारका प्रसाद मिश्रा
|
30.09.1963 to 08.03.1967
|
7
|
श्री द्वारका प्रसाद मिश्रा
|
09.03.1967 to 29.07.1967
|
8
|
श्री गोविन्द नारायण सिंह
|
30.07.1967 to 12.03.1969
|
9
|
श्री राजा नरेशचन्द्र सिंह
|
13.03.1969 to 25.03.1969
|
10
|
श्री श्यामाचरण शुक्ल
|
26.03.1969 to 28.01.1972
|
11
|
श्री प्रकाश चन्द्र सेठी
|
29.01.1972 to 22.03.1972
|
12
|
श्री प्रकाश चन्द्र सेठी
|
23.03.1972 to 22.12.1975
|
13
|
श्री श्यामाचरण शुक्ल
|
23.12.1975 to 29.04.1977
|
राष्ट्रपति शासन
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30.04.1977 to 25.06.1977
|
|
14
|
श्री कैलाश चन्द्र जोशी
|
26.06.1977 to 17.01.1978
|
15
|
श्री विरेन्द्र कुमार सखलेचा
|
18.01.1978 to 19.01.1980
|
16
|
श्री सुन्दरलाल पटवा
|
20.01.1980 to 17.02.1980
|
राष्ट्रपति शासन
|
18.02.1980 to 08.06.1980
|
|
17
|
श्री अर्जुन सिंह
|
09.06.1980 to 10.03.1985
|
18
|
श्री अर्जुन सिंह
|
11.03.1985 to 12.03.1985
|
19
|
श्री मोती लाल वोरा
|
13.03.1985 to 13.02.1988
|
20
|
श्री अर्जुन सिंह
|
14.02.1988 to 24.01.1989
|
21
|
श्री मोती लाल वोरा
|
25.01.1989 to 08.12.1989
|
22
|
श्री श्यामाचरण शुक्ल
|
09.12.1989 to 04.03.1990
|
23
|
श्री सुन्दरलाल पटवा
|
05.03.1990 to 15.12.1992
|
राष्ट्रपति शासन
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16.12.1992 to 06.12.1993
|
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24
|
श्री दिग्विजय सिंह
|
07.12.1993 to 01.12.1998
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25
|
श्री दिग्विजय सिंह
|
01.12.1998 to 08.12.2003
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26
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सुश्री उमा भारती
|
08.12.2003 to 23.08.2004
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27
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श्री बाबूलाल गौर
|
23.08.2004 to 29.11.2005
|
28
|
श्री शिवराज सिंह चौहान
|
29.11.2005 to 12.12.2008
|
29
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श्री शिवराज सिंह चौहान
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12.12.2008 to continuing
|
तीसवां जननायक जो भी होगा बेशक उसके सामने बेहद जटिल
सवाल होगें जिनको हल तो करना ही होगा उन सवालों को जो कठिन और जटिल होने के साथ साथ ऐसे
प्रतीत हो रहें हैं जिनका हल निकालते वक़्त कुछ कठोर निर्णय (जो अपनों को कष्ट प्रद
लग सकते हैं) लेने ही होंगें. क्योंकि विकास के लिये विपरीत बल की आवश्यकता कदापि नहीं
होती. एक एक पैसे का सही-सही और परिणाम मूलक स्तेमाल ज़रूरी है . आखिर स्वाधीनता के
मायने भी तो यहीं हैं.. जनतंत्र में जनधन के सदुपयोग को सर्वोच्च प्राथमिकता देनी
आवश्यक है. उम्मीद है तीसवें जननायक के मानस में यह बिंदू समाहित ही होगा.
कहीं लोकप्रियता सादगी ओर सहजता को खत्म न कर दे जननायक को सादगी सहजता बनानी होगी . अगर यह नहीं होता तो है तो अंतराल बढ़ता जाता है ... फ़िर जननायक और जन के बीच एक दूरी कायम हो ही जाती है. यहां ये बिंदू समझना होगा कि यश अक्सर मानस को भ्रमित कर देता है .. “अपना यश” सरिता में प्रवाह के योग्य ही होता है. अपने मानस को एक ऐसा बाक्स मानना चाहिये जिसमें केवल लोक-सेवा की अवधारणा को रखा जा सके . शेष मुद्दों जैसे आत्मकेंद्रित सोच, जय,यश, लोकसेवा का गर्व - के लिये स्थान रखना युक्तिसंगत नहीं .इन को मानस में रख लेने से "लोकसेवा" की अवधारणा के लिये स्थान नहीं बचता. कई राजघराने और राजा इसी के शिकार हुए हैं. इन तथ्य को सदैव ध्यान में रखना ज़रूरी है.
कहीं लोकप्रियता सादगी ओर सहजता को खत्म न कर दे जननायक को सादगी सहजता बनानी होगी . अगर यह नहीं होता तो है तो अंतराल बढ़ता जाता है ... फ़िर जननायक और जन के बीच एक दूरी कायम हो ही जाती है. यहां ये बिंदू समझना होगा कि यश अक्सर मानस को भ्रमित कर देता है .. “अपना यश” सरिता में प्रवाह के योग्य ही होता है. अपने मानस को एक ऐसा बाक्स मानना चाहिये जिसमें केवल लोक-सेवा की अवधारणा को रखा जा सके . शेष मुद्दों जैसे आत्मकेंद्रित सोच, जय,यश, लोकसेवा का गर्व - के लिये स्थान रखना युक्तिसंगत नहीं .इन को मानस में रख लेने से "लोकसेवा" की अवधारणा के लिये स्थान नहीं बचता. कई राजघराने और राजा इसी के शिकार हुए हैं. इन तथ्य को सदैव ध्यान में रखना ज़रूरी है.
वीतरागी सम्राठ या कहिये जननायक को "ऊर्ध्वरैता" यानी एक नैष्ठिक ब्रह्मचारी की काया धारण कर लेने से जननायक युगों तक भुलाए नहीं भूलने वाला व्यक्ति बन जाता है. पर आज़ के दौर में ये कल्पना अतिरंजित सी लगती है. क्या ये सम्भव है. बकौल शेक्सपियर :-"असम्भव शब्द मूर्खों के शब्द कोष का शब्द है ... !" हो क्यों नहीं सकता ऐसा मित्र जब अजीवातजीवोत्पत्ति सम्भव है.. दिन रात सम्भव हैं.. सौर मंडल सम्भव है तो मानवीय आचरणों में "विशुद्ध लोकसेवा का भाव" असम्भव क्यों ..?
अक्सर सियासत मानवीयता के पथ से विचलन कराते पथों का दर्शन कराती है. किंतु देश के इतिवृत में उन व्यक्तियों का उल्लेख आता है जो लोक-सेवा को सर्वोपरि मानते थे..
अक्सर सियासत मानवीयता के पथ से विचलन कराते पथों का दर्शन कराती है. किंतु देश के इतिवृत में उन व्यक्तियों का उल्लेख आता है जो लोक-सेवा को सर्वोपरि मानते थे..
भारतीय जनतंत्र में जनादेश सर्वोपरि है. तो उसके भी ऊपर है जनादेश का सम्मान . किसी भी जनादेश प्राप्त व्यक्ति की सफ़लता एवम उसकी सर्वमान्यता उसकी अपनी क्रिएटिविटी पर आधारित होती है. कभी कभी एक नारा देश को दिशा दे देता है तो कभी कई नारों से शोरगुल का आभास होता है. अतएव ज़रूरी है रचनात्मक सोच जो विकास के वास्त्विक लक्ष्य को साध सके . तभी तो राजा से अपेक्षा की जाती है कि -"Do not be king like king be king like creator "
अंत में संकेत स्पष्ट है लोक-सेवा अतंस को छू लेने वाली मानवीय
प्रक्रिया है.. न कि यश के नगाड़े बजाने का अवसर देने वाली प्रक्रिया....
स्वस्ति स्वस्ति स्वस्ति
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