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नवंबर, 2013 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

शुक्रिया दोस्तो जी चुका हूं आधी सदी..!

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                       ___________________________                                                 पचास वर्ष की आयु पूर्ण करने के                                           अवसर                                     "आत्म-कथ्य"                        ___________________________                         जी चुका हूं आधी सदी … मैं खुद से हिसाब मांगूं.. न ये ज़ायज़ बात नहीं. जो मिला वो कम न था.. जो खोया.. वो ज़्यादा भी तो नहीं खोया है न.. ! खोया पाया का हिसाब क्यों जोड़ूं . तुम चाहो तो मूल्यांकन के नाम पर ये सब करो . मुझे तुम्हारे नज़रिये से जीना नहीं . हार-जीत, सफ़ल-असफ़ल, मेरे शब्दकोष में नहीं हैं. न मैं कभी हारा न कभी जीता . जिसे तुमने मात दी थी सरे बाज़ार मुझे रुसवा किया था . लोग उसे तुम्हारे साथ भूल गए … हर ऐसी कथित हार के बाद मुझे रास्ते ही रास्ते नज़र आए और .. फ़िर मुझमें अनंत उत्साह भर आया . हर हार के बाद तेज़ हुई है जीने की आकांक्षा भरपूर जी रहा हूं. ग़ालिब ने सच ही तो कहा था शायद मेरा नज़रिया भी वही है – “बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मेरे आगे” आप सब खेलो बच्चों

उपेक्षा का दंश : खून निकलता नहीं ……… खून सूखता है

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चित्र जीवन महादर्शन ब्लॉग से साभार                               समय की तरह    जीवन   पुस्तिका के पन्ने भी धीरे धीरे कब बदल   जाते हैं इसका ज्ञान किसे और कब    हुआ  है  .    टिक टिक करती घड़ी को   टुकटुक निहारती बूढ़ी काया के पास केवल एक खिलौना होता है टाइम   पास करने के लिए वो है पुराने बीते दिनों की यादें …… !!   झुर्रीदार  त्वचा   शक्कर कम वाली देह को अक्सर उपेक्षा के दंश चुभते हैं   ये अलहदा बात है कि खून निकलता नहीं   ……… खून सूखता अवश्य     है  . समय के बदलाव के साथ दादाजी दादी जी नाना जी नानी जी , के     रुतबे   में भी    नकारात्मक बदलाव आया है  . यह सच है कि    नया दौर   नए बदलाव लाता है  . पर आज का दौर बेहद तेज़ी से बदलाव लाता तो   है किंतु बहुधा बदलाव   नकारात्मक ही होते  हैं  . समय के साथ    चिंतन का स्वरुप भी परिवर्तन शील  होने लगा है  .  पीढ़ी  के पास अब आत्मकेंद्रित चिन्तन है  .   " अपने- आज" को जी भर के जीने का "अपने-कल" को सुरक्षित ढांचा देने का    चिंतन   ……   नई पीढ़ी    घर   के कमरे में कैद बुढ़ापा पर गाहे बगाहे इलज

एक मदालस शाम एक अप्रतिम वापसी

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गोधूलि के चित्र मत लेना.. किसी ने कहा था एक बार .... सूर्यास्त की तस्वीरें मत लेना ...क्यों ? किसी के कहने से क्या मैं डूबते सूरज का आभार न कहूं.. क्यों न कहूं.. एहसान फ़रामोश नहीं हूं..  अदभुत तस्वीरें देती एक शाम की जी हां  कल घर वापस आते वक़्त  इस अनोखी शाम ने....  मनमोहक और मदालस शाम ने  अप्रतिम सौंदर्यानुभूति करा दिया  रूमानियत से पोर पोर भर दिया .....!!   इस बीच मेरी नज़र पड़ी  एक मज़दूर घर वापस आता दिखा मैने पूछा - भाई किधर से आ रहे हो   उसने तपाक से ज़वाब दिया - घर जात हौं..!! घर जाने का उछाह गोया इस मज़दूर की मानिंद सूरज में भी है. तभी तो बादलों के शामियाने पर चढ़ कूंदता फ़ांदता पश्चिम की तरफ़ जा रहा है..  ये कोई शहरी बच्चा नहीं जो स्कूल से सीधा घर जाने में कतराता है.. सूरज है भाई.. उसे समय पर आना मालूम है.. समय पर जाना भी... जानता है..              महानगर का बच्चा नहीं है वो जिसका बचपन असमय ही छिन जाता है .. उसे मां के हाथों की सौंधी सौंधी रोटियां बुला रहीं है.. गुड़ की डली वाह.. मिर्च न भी लगे तो भी गुड़ के लिये झूठ मूट अम्मा मिर्ची बहुत है कह

बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया है मेरे आगे

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डुमारू यूं ही भैंसों को चराता रहेगा सोचिये कब तलक ये ज़ारी रहेगा ?                       चचा ग़ालिब आपने जो लिक्खा था सच में एक गै़रतमंद शायर का नज़रिया है . ज़नाब  आपका कहा सियासी अपना कहा समझने हैं. इंशा-अल्लाह इनको समझदार बीनाई दे वरना वरना क्या ? लोग मंगल पे कालोनी बना लेंगे और अपना ये डुमारू यूं ही भैंसों को चराता रहेगा. और मौज़ में आके कभी कभार उसकी पीठ पे लद के  यूं ही अपनी  बादशाहत का नज़ारा पेश करेगा .  इसे ही विकास कहते हैं.… लोग तो कहें और कहते रहें  मुझे तो झुनझुनों से इतर कुछ भी नहीं लगता . आखिर उनके नज़रिये में दुनियां  " बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल " ही तो है ये दुनियां.  आप हम और ये समूचा हिंदुस्तान जिस दिन अपने नज़रिये से से सोचने लगा तो यक़ीनन इस जम्हूरियत का मज़मून और लिफ़ाफ़ा दौनों ही बदले बदले नज़र आएंगे. सियासत की दीवार पर विचारधाराओं की खूंटियों पर टंगी ज़म्हूरियत बेशक सबसे बड़ी तो है पर उस दीवार  और खूंटियों की मज़बूती पर सोचना ज़रूरी है. वरना बकौल आप चचा ग़ालिब आवाम कहेगी जो शायद दर्दीला हो सकता  " गो हाथ को जुम्बिश नहीं आँखों में तो दम है रहने

इन ऊंटों पर क्यों बैठूं सुना है इन पर बैठ कर भी कुत्ता काट लेता है कभी कभी !!

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दाहिने मुड़िये  गड्ढे में जाईये   सड़कों पर लगे संकेतकों को देखिये   उनका अनुशरण कीजिये..... और सीधे.... ऊपर पंहुचिये... सड़कों पर लगे इन संकेतकों की असलबयानी मेरे कैमरे की जुबानी... !! सच है भारत में हम अपने घर और सड़कों पर कितने सुरक्षित हैं ये आप देख ही रहे हैं.. देश किधर जा रहा है ?   कभी सोचा आपने !! शायद सोचा होगा न भी सोचा हो तो कौन सा पहाड़ टूट जाएगा..  फ़िर सीधे ऊपर  संकेतकों की मानें तो हम जिधर जा रहे वो रास्ता सिर्फ़ ऊपर ही जाता है . सच कहूं भारत ही नहीं समूचा विश्व भ्रामक संकेतकों से भ्रमित है..  मैं कोई ट्रेवलाग नहीं लिख रहा हूं मित्रो..! सिर्फ़ एक एहसास शेयर कर रहा हूं.. सच भी ये है कि हम सारे लोग किसी न किसी भ्रामक संकेतक से अत्यधिक प्रभावित हैं. यक़ीनन हर संकेतक सही है यह समझना ही मुश्किल है. जीवन-जात्रा में आप दिन भर टी.वी. पर समाचार देखिये .. आप की आंखों पर अंधेरा तारी होगा. जो एंकर तय करेगा उसे आप सच मानने लगेंगें....कदाचित...! इन ऊंटों पर क्यों बैठूं सुना है इन पर बैठ कर भी कुत्ता काट लेता है कभी कभी         जब लोगों का सारा जीवन-दर्

तुझे क्या मिलेगा नमाज़ में...:फ़िरदौस ख़ान

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फ़िरदौस ख़ान हज़ारों साल नर्गिस अपनी बेनूरी पे रोती है बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा उर्दू और फ़ारसी शायरी के चमन का यह दीदावर यानी मोहम्मद अल्लामा इक़बाल 9 नवंबर, 1877 को पाकिस्तान के स्यालकोट में पैदा हुआ. उनके पूर्वज कश्मीरी ब्राह्मण थे, लेकिन क़रीब तीन सौ साल पहले उन्होंने इस्लाम क़ुबूल कर लिया था और कश्मीर से पंजाब जाकर बस गए थे. उनके पिता शे़ख नूर मुहम्मद कारोबारी थे. इक़बाल की शुरुआती तालीम मदरसे में हुई. बाद में उन्होंने मिशनरी स्कूल से प्राइमरी स्तर की शिक्षा शुरू की. लाहौर से स्नातक और स्नातकोत्तर की पढ़ाई करने के बाद उन्होंने अध्यापन कार्य भी किया. 1905 में दर्शनशास्त्र की उच्च शिक्षा हासिल करने के लिए वह इंग्लैंड चले गए. उन्होंने कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से डिग्री हासिल की. इसके बाद वह ईरान चले गए, जहां से लौटकर उन्होंने द डेवलपमेंट ऑफ मेटाफ़िज़िक्स इन पर्शियन नामक एक किताब भी लिखी. इसी को आधार बनाकर बाद में जर्मनी के म्युनिख विश्वविद्यालय ने उन्हें डॉक्टरेट की उपाधि दी. इक़बाल की तालीम हासिल करने की फ़ितरत ने उन्हें चैन नहीं लेने दिया. बाद में उन्होंने वक

दादा ईश्वरदास रोहाणी : कुछ संस्मरण...

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 बावरे-फ़क़ीरा एलबम विमोचन   दादा दादा दादा...   आखिर क्या थे दादा जबलपुर वालों के लिये. सबके अपने अपने संस्मरण होंगे कुछ बयां होंगे कुछ बे बयां आंसुओं में घुल जाएंगें पर हर उस व्यक्ति के मानस  पटल से  दादा का व्यक्तित्व ओझल नहीं होगा जो दादा से पल भर भी मिला हो. सैकड़ों लोगों की तरह मेरा भी उनसे जुड़ाव रहा है. हितकारणी विधि महाविद्यालय के चुनावों में मेरा ज्वाइंट-सेक्रेटरी पोस्ट के लिये इलेक्शन लड़ना लगभग तय था. प्रेसिडेंट पद के प्रत्याशी    कैलाश देवानी   ने कहा मैं दादा का आशीर्वाद लेने जांऊगा.. तुम भी चलो..गे.. ?     मैं उनको जानता ही नहीं फ़िर वो क्या सोचेगें..     मेरी बात सुन मित्र कैलाश देवानी ने कहा- एक बार चलो तो सब समझ जाओगे..         मित्र की बात मुझसे काटी नहीं गई. हम रवाना हुए.. हमें आशीर्वाद के साथ मिली नसीहत - सार्वजनिक जीवन में धैर्य सबसे ज़रूरी मुद्दा है. आप को सदा धैर्यवान बनना होगा. मेरा आप के साथ सदा आशीर्वाद है. बात सामान्य थी पर व्यक्तित्व का ज़ादू दिलो-दिमाग़ पर इस कदर हावी हुआ कि साधारण किंतु सामयिक शिक्षा जो तब के  हम युवाओं के लिये ज़रूरी थी इत

भगवान तो सस्ते में दे रहा हूं.. !

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कार्टूनिष्ट राजेश दुबे के ब्लाग डूबे जी से साभार  भगवान को खोजता दूकानदार  एक दो तीन दिन न पंद्रह दिन लगातार लेखन कार्य से दूर रहना लेखक के लिये कितना घातक होगा ये जानने हमने खुद को लिखने से दूर रखा सच मानिये   हमारी दशा बिना टिकट प्रत्याशी की मानिंद हो गई. हम लगभग चेतना शून्य हैं..बतर्ज़ बक्शी जी सोच रहा हूं..  क्या लिखूं...?  फ़िर सोचता हूं कुछ तो लिखूं..  आज़ दिन भर से मानस में एक ही हलचल मची हुई है कि कोई ये बताए कि हम किधर जा रहे हैं .. या कोई हमसे ये पूछे कि हम किधर से आ रहे हैं..?    फ़िर कभी सोचा कि इस मौज़ू पर लिखूं कि -   ऐसा कोई नज़र आ नहीं रहा.जो खुद को देखे सब दूसरों को देखते तकते नज़र आ रहे हैं.. फ़िर फ़ूहड़ सा कमेंट करते और और क्या.. जिसे देखिये "पर-छिद्रांवेषण" में रत अनवरत .. आक्रोश  अलबर्ट पिंटो की मानिंद  जिसे गुस्सा क्यों आता है  क्विंटलों-टनो अलबर्ट पिंटो बिखरे पड़े हैं.. जुबानें बाबा रे कतरनी की तरह चलती नज़र आ जातीं हैं . सरकारें मुंहों पर कराधान करे तो .. बेशक आबकारी के बाद सबसे इनकम जनरेटिंग "माउथ-टैक्स-विभाग" बनना तय है...!