29.5.13

नक्सलवाद आतंकवाद का सहोदर ..

                                                   बेशक़ इनको   माओत्से तुंग की आत्मा कोस रही होगी .... नक्सली हिंसक प्रवृत्ति के ध्वज वाहकों को.क्योंकि वे कायर न थे ऐसा ब्रजेश त्रिपाठी जी ने अपने ब्लाग पर दरभा - दर्भ और डर के दंश शीर्षक से लिखे आलेख में लिखा है. 
                       कोसे न कोसे नक्सलवाद के पुरोधाओं को समझाना  अब ज़रूरी हो गया है कि "भारत भारत है यहां माओ के फ़लसफ़े को कोई स्थान नहीं..!!"
                  पर अब सवाल यह है कि लाल खाल पहने इन आतंकियों अंत कैसे होगा . इनके सफ़ाए के लिये किस तकनीकि का प्रयोग किया जाए कि भोले भाले आदिवासियों जिनका इस्तेमाल यह कायर समूह बतौर ढाल करता है को बिना हानि पहुंचाए समस्या का अंत हो. 
          नक्सलवाद को विस्तार मिलने की सीधी वज़ह ये है कि उनके द्वारा सबसे पहले गतिविधि क्षेत्र के वाशिंदों के मानस पर अपने आप को अंकित किया.. उनसे बेहतर संवाद सेतु बनते ही उनमें एक भय का वातावरण भी बना दिया ताकि वे ( क्षेत्र के वाशिंदे ) भयाधारित प्रीति से सम्बद्ध रहें. 
                                              यह कारण आप सब जानते हैं. यह कोई नई बात नहीं है.. सवाल अब यह है कि - "नक्सलवाद की ज़रूरत क्यों है.?"  भारत में इसकी क़दापि ज़रूरत नहीं है ये सत्य तो स्वयं नक्सलवादी भी समझते होंगे. पर क्यों इस विचारधारा को बलपूर्वक ज़िन्दा रखने की कोशिशें जारी हैं. ?  दर्भा घाटी कांड की वज़ह बताने वाले नक्सली ऐसा कोई कारण न बता पाए जिसे Provoke की श्रेणी में रखा जावे. 
        वास्तव में देखा जाए तो अब केवल विचारधाराएं बर्चस्व की लड़ाई का कारक बन चुकीं हैं. धर्माधारित आतंक, भाषा क्षेत्र वर्ग सम्प्रदाय आधारित आत्ममुग्धता, किसी भी हिंसक गतिविधि को जन्म देने के कारक हैं. इसमें लोककल्याण का भाव किसी भी एंगल से नज़र नहीं आ रहा. 
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          संकेतों को अधिक स्पष्ट करना आवश्यक नहीं आप सब जानतें हैं कि-"आतंकी समूह की तरह नक्सली भी केवल किसी पेशेवर अपराधिओं की तरह काम करने लगे हैं. !" 
         नक्सलवाद के अलावा भावनाओं को भड़काने का काम हर जगह हो रहा है लोग बेलगाम बोल रहे हैं.. कुंठाएं बो रहे हैं. तिल को ताड़ बना रहे हैं और युद्ध में झौंक रहे हैं आम मानस को.. जो प्लेन और दाग हीन है. बस भाषा, सम्प्रदाय, जाति, क्षेत्र आधारित आतंक के बीज हर जगह बोना आज का मुख्य शगल है. 
लोग बेतहाशा बोलते जा रहे हैं
बोल पाते हैं क्योंकि बोलना आता है
भीड़ में/अकेले 
अधकचरे चिंतन के साथ 
कुंठा बोते लोग 
पर जानते नहीं आस्थाएं बोलतीं नहीं
उभरतीं हैं.. 
सूखे ठूंठ पर 
बारिश की बूंदे पड़तीं हैं 
तब होता है कोई नवांकुरण..
यही तो है आस्था का प्रकरण..!!
आस्था बोलती नहीं 
अंकुरित होती है कहीं भी कभी भी  
        इस विमर्श के दौरान मेरा मन बार बार कह रहा है कि यह भी कह दूं.. "चलो बासे सड़े गले विचारों को चिंतन की कसौटी पर परख कर मानस से परे हटाऎं.. एक नया विश्व बनाएं "
                    ऐसा न होने पर हम कबीलों वाले दौर में चले जाएंगे..  
      
                

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