15.1.13

और हमारा मुंह खुला का खुला रह गया



और हमारा मुंह खुला का 

खुला रह गया

धीरे धीरे राम धुन पे शव यात्रा जारी थी. लोग समझ नहीं पा रहे थे कि गुमाश्ता बाबू जो कल तक हंसते खिल खिलाते दुनियादारी से बाबस्ता थे अचानक लिहाफ़ ओढ़े के ओढ़े बारह बजे तक घर में क़ैद रहे .  रिसाले वाले गुमाश्ता बाबू के नाम से प्रसिद्ध उन महाशय का नाम बद्री प्रसाद गुमाश्ता था. अखबार से उनका नाता उतना ही था जितना कि आपका हमारा तभी मुझे "रिसाले वाले" उपनाम की तह में जाने की बड़ी ललक थी. अब्दुल मियां ने बताया कि दिन भर गुमाश्ता जी के हाथ में अखबार हुआ करते हैं . उनका पेट एक अखबार से नहीं भरता. अर्र न बाबा वो अखबार खाते नहीं पढ़ते है. देखो क़रीम के घर जो अखबार आता है उन्हीं ने लगवाया विश्वनाथ के घर भी और गुप्ता के घर भी.मुहल्ले में  द्वारे द्वारे सुबह सकारे उनकी आमद तय थी. शायद ही गुमाश्तिन भाभी ने उनको कभी घर में चाय पिलाई हो ? अक्सर उनकी चाय इस उसके घर हुआ करती थी होती भी क्यों न पिता ने उनको बेचा जो था 1970 के इर्द-गिर्द गुमाश्ता जी की बिक्री दस हज़ार रुपयों में हुई थी तब वे तीसेक बरस के होंगे. और तब से आज़ तक वे घर जमाई के रूप में गुमाश्तिन भाभी के घर के इंतज़ाम अली ही रहे उससे आगे उनकी पदोन्नति ठीक वैसे ही नहीं हो सकी जैसे एक ईमानदार की अक्सर नहीं हुआ करती.. कभी कभार हो भी जाती है.. गुमाश्तिन भाभी चाहतीं तो बद्री प्रसाद गुमाश्ता का ओहदा बढ़ सकता था बकौल  गुमाश्ता जी-’हमाई किस्मत में जे सब कहां कि हम किसी भी नतीज़े को घर पे लागू करें. 
        वास्तव में गुमाश्ता जी का विवाह जबरिया किंतु कारगर कोशिश थी. पिता भी  नाकारा बेटे से कुछ हासिल किये बिना रहना नहीं चाहते थे. उधर रेहाना सुल्तान की फ़िल्में देख देख बिगड़ रही बेटी के लिये भी कोई ढंग का लड़का चाहिये था गुमाश्तिन के पिता को राम ने जोड़ी मिला तो दी परंतु  गुमाश्तिन को पसंद न थे गुमाश्ता जी सतफ़ेरा पति छोड़ा भी न जा सके है सो भई गुमाश्तिन ने भी दिल का खजाना उनसे ही भरने की कोशिश की पर बेमेल विवाह ही था वे थीं फ़िल्मी स्वप्नों से भरी सुंदरी  और वो थे बुद्धू कालीदास बनाने की खूब कोशिश की पर न बन पाए. एक प्रायवेट स्कूल के मास्टर बना दिये गये मास्टर बनाने के पहले ससुर जी ने बोला-’सुनो दामाद जी, हमाई इज्जत मट्टी में मत मिलैयो. आज्ञाकारी तो थे ही निची मुंडी कर हां कही पर सुनाई न दी ससुर जी मुंडी के ऊपर से नीचे होने से समझ गये कि दामाद उनकी इज़्ज़त बरकरार रखेंगें. 
      पर उन दिनों शरद यादव की ऐसी आंधी चली की देश के लिये कुछ नया करने की जुगत में बद्री प्रसाद भी विज्ञप्ति वीर बन गए. मैनेजमेंट दूसरी पार्टी वालों का था सो नौकरी चली गई. बहुत दिनों तक भाई उनके डंडे-झण्डे लगाते बिछायत करते कराते अपने सुनहरे कल के सपने में खोये रहे तब से बीवी की  नज़रों से गिर गये . ऐसे गिरे कि बस मत पूछो उनको अपचारी घोषित कर दिया गुमाश्तिन ने.तब से  गुमाश्तिन ने सुबह की चाय तो क्या नहाने को गरम पानी तक न दिया होगा . तब तक जोड़े की गोद में एक और गुमाश्ता आ चुका था. गुमाश्तिन भाभी ने बेटे के पिता के खट जबलईपुर ब्रांड बापत्व से परे रखने की ग़रज़ से बड़े भाई के कने दिल्ली रवाना कर दिया  
    याद आया एक शाम न शाम न थी वो रात के दस बजे थे इक्का दुक्का दारूखोर सड़क पे गाली गुफ़्तार करता गुजर रहा था बद्री को पान खाने की तलब लगी. बाहर निकले ही थे कि भीतर से एक आवाज़ भी साथ साथ निकली-’ जाओ, घूमो फ़िरो फ़िर रात दो बजे तक लौटना..! न जाओगे तो मालवीय जी की मूर्ती कोई चुरा लेगा..  शहर कोतवाली की जिम्मेदारी जो है..! 
      गुमाश्तिन के ये डायलाग पहली बार बाहर गूंजे थे  फ़िर तो जब ये आवाज़ न सुनाई दे तो जानिये कि गुमाश्तिन भाभी या तो बीमार हैं या आऊट आफ़ सिटी. 
   तो मित्रो  हां गुमाश्तिन भाभी के "वो" आज़ अचानक गुज़र गये..? और गुमाश्तिन जी आऊट आफ़ कंट्री 
क्या हुआ ... अर्र... बाप रे... भाभी कहां है.. और बच्चे...... कैसे हुआ.. हे राम.. बेचारे.......... 
 इधर उधर से पता साजी करने पर पता लगा कि भाभी अपने विदेशी बेटे के पास एक महीने से गई हैं. क्रिया करम के लिये एक रिश्ते का भाई हाज़िर हुआ. एक दिन में बद्री की बरसी तक निपटा दी.
  तीन महीने बाद......
गुमाश्तिन का बेटा शहर आया मुहल्ले भर के लोगों को घर बुलवाया सबको आभार कहा कि- आपने हमारे पिता जी आखिरी तक साथ  दिया हम न आ सके इस बात का हमें रंज है. मां ने सबको धन्यवाद देने के लिये भेजा है.पिता की स्मृति में वो विदेशी अपने साथ  उपहार लाया सारे मुहल्ले वालों के लिये .संस्कारवश किसी ने ना नुकुर न की ... धन्यवाद के बोल बोलता गुमाश्ता जी का कुल दीपक ने जो भी बोला मुझे तो लगा वो कह रहा है- Thank's .. काश आप न होते तो मुझे आना पड़ता नुकसान हो जाता मुझे .      
                          गुमाश्ता के कुलदीपक ने पूरी ईमानदारी और प्रोफ़ेसनली मुहल्लेदारी निबाही आखिर संस्कारवान लड़का जो था. सब कह रहे हैं .. इस स्मृति भैंट को ग्वारीघाट में बांट देते हैं किसी बुद्धिमान की सलाह पर मुहल्ले वाले मंदिर पर उन दीपकों को भेजा गया.. पुजारी रोज जगाता है निट्ठल्ले बद्रीप्रसाद गुमाश्ता के स्मृति-दीप.. मंदिर में भगवान के पास. मुहल्ले को खूब याद आते हैं वे.. उनकी सहज मुस्कान 
      कल ही की तो बात है कोई कह रहा था- गुमाश्ता जी के बिना मुहल्ले में शून्यता सी छा गई है. 
      इसे सुन किसी ने कहा:-  ये तो बानगी है आने वाले दिनों में ऐसे कई गुमाश्ते जी मुहल्लों को सूना करेंगे..  
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यशभारत 20.01.2013





2 टिप्‍पणियां:

भारतीय नागरिक - Indian Citizen ने कहा…

वक्त का फेर है.

Padm Singh ने कहा…

ऐसे तमाम उदाहरण अक्सर देखने को मिलते हैं.... हमारे सहकर्मी शर्मा जी को ही देखें... बेटे, बहुएँ खुद, सब कमा रहे हैं... अच्छा खासा.... लेकिन किसी मेहमान को घर बुलाकर चाय नहीं पिला सकते... सब्जी भाजी और बाजार से सामान लाने तक की उनकी ज़िम्मेदारी है।

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