21.1.13

जनतांत्रिक-चैतन्यता बनाम हमारे अधिकार और कर्तव्य

                 यही सही वक़्त  है जब कि हमें जनतांत्रिक संवेदनाओं का सटीक विश्लेशण कर उसे समझने की कोशिश करनी चाहिये. भारतीय गणतांत्रिक व्यवस्था में जहां एक ओर आदर्शों की भरमार है वहीं  सेंधमारी की के रास्तों की गुंजाइश भी है. जिनको अनदेखा करने  की हमारी आदत को नक़ारा नहीं जा सकता. हम हमेशा बहुत कम सोच रहे होते हैं. केवल जनतंत्र की कतिपय प्रक्रियाओं को ही जनतंत्र मान लेते हैं. जबकि हमें जनतंत्र के मूल तत्वों को समझना है उसके प्रति संवेदित होना है. अब वही समय आ चुका ज हमें आत्म-चिंतन करना है
                    हम, हमारे जनतंत्र किस रास्ते  ले जा रहें हैं इस मसले पर हम कभी भी गम्भीर नहीं हुए. हमारे पास चिंता के विषय बहुतेरे हैं जबकि हमें चिंतन के विषय दिखाई नहीं दे रहे अथवा हम इसे देखना नहीं चाहते. हमारी जनतांत्रिक संवेदनाएं समाप्त प्राय: नहीं तो सुप्त अवश्य हैं.वरना दामिनी की शहादत पर बेलगाम बातें न होंतीं. हम जनतंत्र के प्रति असंवेदित नहीं पर सजग नहीं हैं. न ही हमने इस बिंदु पर अपनी संतानों को ही कुछ समझाइश ही दी है. हम केवल चुनाव तक जनतंत्र  के प्रति संवेदित हैं ऐसी मेरी व्यक्तिगत राय है. क्या सिर्फ़ ई.वी.एम तक जनतंत्र होता है..? अथवा सरकार बनना बनवाना ही जनतांत्रिक गोल है..? शायद हमारी सोच ग़लत रास्ते पर जा रही है. तभी तो जनतंत्र के प्रति हम इससे ज़्यादा सोच ही नहीं पा रहे कि वास्तव में जनतंत्र में चैतन्य एवम संवेदित समाज का भावात्मक स्वरूप भी मौज़ूद  है. 
                                     बेलगाम बोलतें हैं, बेवज़ह बोलतें हैं, अपने कर्तव्यों से अधिक अपने अधिकारों के हनन नाम पर बखेड़ा खड़ा कर देते हैं. हम अपनी वोटिया ताक़त का ग़लत इस्तेमाल करने में भी नहीं चूकते. कभी भाषा तो कभी उत्तर दक्षिण, कभी बिरादरी ... अब बताएं जब संवैधानिक व्यवस्थाएं सबके लिये समान हैं तो क्यों ज़रूरी है सिगमेंट में जीना. विकास और रचनात्मकता के लिये सिगमेंट का होना ज़रूरी है ताक़ि छोटे-छोटे हिस्से को सुधारा जा सके किंतु जब चिंतन करना तो सामष्टिक ही किया जाना ज़रूरी है. 
                मूलभूल यानी अधोसंरचनात्मक विकास के लिये हम अज़ीब मानसिकता के पोषक हैं , हम चाहतें हैं कि विकास करे तो सरकार करे सही भी है किंतु जैसे ही हमें सरकारी तौर पर विकास का तोहफ़ा मिल जाता है उसका दुरुपयोग अगले ही पल हम शुरु कर देतें हैं.सबसे आम उदाहरण देखिये
 क्या  आपके मुहल्ले में नल है..?
हां है....!
उसमें टोंटी है..?
 न, 
कहां गई..?
कोई चुरा ले गया..?
                     और फ़िर आप अनाप-शनाप बोलेंगे सरकारी कर्मचारी के खिलाफ़ जिसे आपने कई बार कहा होगा टोंटी लगाने को. है न आपकी नज़र में वो नक़ारा बेईमान है. खूब कोस कर आपने  आपके मुहल्ले में आपके बीच रह रहे चोर यानी चोर-वृत्ति के खिलाफ़ एक शब्द भी नहीं बोला..? क्यों..?
                                          सरकारी इमदाद, और सुविधाओं के लिये हमारी चेतना में लुटेरों के सरीखी सोच भी बेहद निर्मम है. बिजली चुराना, पेड़ काटना, जंगली पशुओं के खिलाफ़ हिंसा , क्या क्या गिनाएं.. सरकार के अस्पतालों के प्रति तक हम बेहद नक़ारात्मक रवैया अपनाने से बाज़ नहीं आते. हमारी विचारधारा भी सेवाओं की गुणवत्ता पर विपरीत असर डालतीं हैं.
                                      सरकारी स्कूल के विद्यार्थी कथित अच्छे (जो प्रायवेट हैं ) स्कूलों के विद्यार्थियों से स्वयम को हीन महसूस करने लगे हैं. मामला इतना संगीन हो चुका है कि शिक्षा, चिकित्सा, एन.जी.ओ. के क्षेत्रों ने विशाल औद्योगिक सिगमेंट को आकार दे दिया है. सामान्य आय वर्ग का व्यक्ति/ परिवार को कुंठा के कुटीर में बंद कर देते हैं.
                            कारण जो भी हो  भारत की पुलिसिंग व्यवस्था को बार बार अपमानित और लांछित कर हमने उससे दूरी बना ली है.  अगर पुलिस   और जनता के बीच के अंतर्संबंध में विश्वासी-तत्व का अभाव होगा तो अराजकता की आग से छुटकारा मिलना मुश्किल है.
                वास्तव में देश के सम्पूर्ण विकास के अर्थ को समझना और समझाना ज़रूरी है अब. विकास का अर्थ मूलभूत सुविधाओं के विकास के  साथ साथ राज्य के प्रति राज्य की जनता की सोच में विश्वासी वातावरण की अनिवार्यता है. .. जिसे जनतांत्रिक-चैतन्यता नाम देना चाहूंगा.
     

1 टिप्पणी:

भारतीय नागरिक - Indian Citizen ने कहा…

बल्कि मैं तो कहूंगा कि इसके साथ एम्पैथेटिक होना चाहिये. स्वानुभूति अधिक आवश्यक है सहानुभूति की जगह.

Wow.....New

धर्म और संप्रदाय

What is the difference The between Dharm & Religion ?     English language has its own compulsions.. This language has a lot of difficu...