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4 टिप्पणियां:
रवीन्द्र प्रभात: रवि रतलामी ने अभिव्यक्ति पत्रिका में सबसे पहला लेख 2003 में। नहीं अक्टूबर 2002 में आया।
रवि रतलामी का लेख 2003 / 2002 में नहीं 2004 में प्रकाशित हुआ।
http://www.abhivyakti-hindi.org/vigyan_varta/pradyogiki/2004/blogs.htm
रवीन्द्र प्रभात: रवीन्द्र प्रभात जब ब्लॉगिंग का इतिहास लिख सकते हैं तो जानकारी भी इकट्ठा कर सकते हैं।
दस ब्लॉग की जो सूची रवीन्द्र प्रभात ने जारी की है उसमें कुछ में अभी भी उनके ब्लॉग शुरू करने समय सही नहीं किया जा सका है। जबकि यह सब नेट पर उपलब्ध है।
रवीन्द्र प्रभात:सम्मान करना मेरी फ़ितरत है।
यह तो काबिले तारीफ़ बात है। लेकिन समस्या यह है कि रवीन्द्र प्रभात अपनी फ़ितरत को अंजाम देने में इतनी हड़बड़ी में है कि आधी ज्यादातर गलत बताते हैं। उस पर सवाल तो ऊठेंगे ही।
रवीन्द्र प्रभात: लोग मेरी नीयत पर सन्देह कर रहे हैं।
यह रवीन्द्र प्रभात की अपनी बनाई धारणा है। जब कोई दशक के ब्लॉगर की बात करेगा और किसी ब्लॉग को यह कहकर नामित करेगा कि वह 2005 से लिखा जा रहा है। जबकि वह शुरु 2008 में हुआ तो सवाल तो उठेंगे ही। सब कुछ नेट पर उपलब्ध है।
रवीन्द्र प्रभात: अनूप शुक्ल सदी का इनाम कैसे बांटेंगे
क्यों इनाम बांटने में क्या है। जिसको मन आयेगा थमा देंगे। जब अपने मन से ही बांटने हैं तो फ़िर क्या समस्या। किसी भी मनपसंद को चुन लेंगे और कुछ भी थमा देंगे इनाम में। हो गया काम।
रवीन्द्र प्रभात को उनके परिकल्पना पुरस्कार के आयोजन के लिये शुभकामनायें। गिरीश बिल्लौरे को भी मंगलकामनायें कि इस बार उनके कार्यक्रम में तकनीकी लफ़ड़े न हों।
अनूप शुकुल जी महाराज,
रवि रतलामी जी ने वह आलेख 2002,2003 अथवा 2004 मे लिखा हो यह बहस का मुद्दा नहीं है । यह तो महज एक उदाहरण है जो मैंने दिया । बहस का मुद्दा यह है कि उस आलेख के बाद हिन्दी ब्लॉग लेखन मे क्रान्ति आई कि नहीं ?
कभी-कभी मुझे लगता है कि दूसरों की भावनाओं का सम्मान करने मे आप काफी कमजोर हैं । आपके पास दूसरों को देने के लिए शायद कुछ भी नहीं है । यही कारण है कि जब कोई आपसे मेल पर आपके समकालीन जानकारी चाहता है तो आप चुप्पी साध लेते हो। कोई जबाब नहीं देते और जब दूसरों के द्वारा सहयोग लेकर वह कुछ जानकारी जुटाता है तो आप सार्वजनिक टिप्पणी करके अपने को शक्तिशाली होने का एहसास कराते हैं। यह आपके कमजोर व्यक्तित्व का परिचायक है । आप किसी को बाध्य नहीं कर सकते कि वह आपका सम्मान करे, सम्मानित व्यक्तित्व वही होता है जो दूसरों के मन मे अपने लिए सम्मान का भाव पैदा कर ले ।
न खुद सककारात्मक कार्यों को अंजाम देने की क्षमता रखिए और न दूसरों को सहयोग ही दीजिये । बस खुद को सर्वशक्तिमान होने का दंभ भरते रहिए और दूसरों को नीचा दिखाने का उपक्रम करते रहिए । खैर, दिल बहलाने को गालिब ये ख्याल अच्छा है, खोये रहिए अपने इन्हीं खोखले ख्यालों मे ।
दौनों महानुभावों का आभार
रवींद्र जी स्वागत के लिये बांह पसारे हैं
अनूप जी भी अब तो आपके ही साथ चलना चाहूंगा
लखनऊ.. आपके रहते लफ़ड़ा.........
नामुमकिन
रवीन्द्र जी,
१.हम किसी के सम्मान के न तो आकांक्षी हैं न सुपात्र। हम किसी के मन में अपने प्रति सम्मान पैदा करने के मेहनत भी नहीं करना चाहते। हम सम्मानित व्यक्ति कतई नहीं बनना चाहते हैं। जैसे हैं वैसे बने रहना चाहते हैं। आप संकोच न करें और ये ’कभी-कभी’ को हमेशा कर लें।
२. जहां तक मेल पर जानकारी वाली बात है तो आपकी ब्लॉगिंग से संबंधित दो किताबों में अनूप शुक्ल के नाम/हवाले से लेख और जानकारियां हैं। क्या वे कोई और अनूप शुक्ल हैं।
३. जो लेख और सूचनायें आप नेट पर डालते हैं क्या वे हमसे पूछकर या सलाह लेकर डालते हैं जो हम उनमें सलाह दें। आप जब सूचना नेट पर सार्वजनिक रूप से डाल देते हैं और वे गलत होती हैं तो अगर किसी को पता होगा तो वो टोकेगा ही। अपनी गलती सुधारने की बजाय आपको तिलमिलाहट होती है। आप इनाम तो बांटना चाहते हैं, इतिहासकार तो बनना चाहते हैं लेकिन उसके लिये मेहनत नहीं करना चाहते।
४. जैसा आपने कहा कि इनाम बांटना आपकी फ़ितरत है तो इनाम खूब बांटिये। हर साल बांटिये। जिसे मन आये उसे बांटिये लेकिन ब्लागिंग से संबंधित जानकारियों में तो हड़बड़ी न करिये। आज न जाने कितने लोगों ब्लॉगिंग में पी.एच.डी. के लिये पंजीकरण करा रहे हैं। कम से कम सूचनायें तो सही रखिये।
५. आपका हर साल कम से कम ब्लॉगिंग में कम से कम पचास इनाम बांटने का संकल्प पूरा हो। दशक के ब्लॉगर का इनाम अच्छे मनचाहे लोगों को शानदार तरीके से बांट सकें इसके लिये शुभकामनायें।
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