"पश्चाताप : आत्म-कथ्य"

[DSC00080.JPG]वीजा जी के इस बात से "सौ फ़ीसदी सहमत हूं. l"और घरेलू हिंसा के सम्दर्भ में इन प्रयासों को गम्भीरता से लेना चाहिये.मुझे इस बात को एक व्यक्तिगत घटना के ज़रिये बताना इस लिये ज़रूरी है कि इस अपराध बोध को लेकर शायद मैं और अधिक आगे नहीं जा सकता. मेरे विवाह के कुछ ही महीने व्यतीत हुए थे . मेरी पत्नी कालेज से निकली लड़की अक्सर मेरी पसंद की सब्जी नहीं बना पाती थीं. जबकि मेरे दिमाग़ में परम्परागत अवधारणा थी पत्नी सर्व गुण सम्पूर्ण होनी चाहिये. यद्यपि मेरे परिवार को परम्परागत अवधारणा पसंद न थी किंतु आफ़िस में धर्मेंद्र जैन का लंच बाक्स देख कर मुझे हूक सी उठती अक्सर हम लोग साथ साथ खाना खाते . मन में छिपी कुण्ठा ने एक शाम उग्र रूप ले ही लिया. घर आकर अपने कमरे में पत्नी को कठोर शब्दों (अश्लील नहीं ) का प्रयोग किये. लंच ना लेने का कारण पूछने पर मैंने उनसे एक शब्द खुले तौर पर कह दिया :-"मां-बाप ने संस्कार ही ऐसे दिये हैं तुममें पति के लिये भोजन बनाने का सामर्थ्य नहीं ?" किसी नवोढ़ा को सब मंज़ूर होता है किंतु उसके मां-बाप का तिरस्कार कदापि नहीं. बस क्या था बहस शुरु.और बहस के तीखे होते ही सव्यसाची यानी मेरी माँ ने कुंडी खटखटाई और मुझसे सिर्फ़ इतना कहा "शायद मैं ही तुमको संस्कार ठीक से न दे सकी..!"

इस बात का गहरा असर हुआ. नौंक-झौंक जो झगड़े में तब्दील हुई थी बाक़ायदा खत्म हो गई. किंतु तनाव बाक़ी था. जो अनबन में तब्दील हो गया. मां खुद मेरे लिये  लंच बना के रखतीं. पन्द्रह दिन बाद एक दिन मैने  भोजन की खूब तारीफ़ की.मेरे संयुक्त परिवार के सारे लोग मेरी इस बात को सुन कर ठहाके मार रहे थे . क्या बड़े भैया क्या दीदियां. बाबूजी की हंसी तो रोके न  रुक रही थी.  मुझे फ़िर आहिस्ता से माने ने कहा : बरसों से मेरे हाथ का खाना खाने वाले तुमको स्वाद में अंतर नहीं नज़र आया . मैने कहा - बा,बिलकुल नहीं, मां बोली :- एक हफ़्ते से सुलभा ही टिफ़िन तैयार कर रही है. बस फ़िर क्या था श्रीमति जी के सामने हम हो गए नतमस्तक. पश्चाताप से लबालब हम ने तुरंत रविवार अपनी सास जी से मिलने का तय कर लिया. श्रीमति जी से यह भी कहा मुझे गुस्से में ध्यान न था कि मेरे ससुर साहब नहीं हैं. सास जी कितनी भोली है मुझे उनसे माफ़ी मांगनी चाहिये. श्रीमति जी कुछ बोल पातीं कि मां ने कहा:"कितना भी संकट हो दु:ख हो पीड़ा हो सिर्फ़ आत्म नियंत्रण रखो कभी किसी के लिये अपशब्द न कहो.. पश्चाताप के जल से  मन-मानस को पावन करो विचार मंजूषा को  को धो लो  "
घरेलू हिंसा के इर्द गिर्द कुछ ये ही बातें हैं जिनका समय रहते इलाज़ ज़रूरी होता है. यदि यह होता है तो वास्तव में कितना पावन हो जाता है जीवन.
आज़ मुझे को यक़ीन  नहीं होता सुलभा जी के हाथों बनाए भोजन पर . इतना स्वादिष्ट और पोषक कि वाह है न महफ़ूज़ क्यों भाई बवाल..... आपको तो याद है न वो चटकारे
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बाक़ी सभी मित्र मित्राणिया खाने  पर सादर
आमंत्रित हैं मेरे बाज़ू में खड़ी सुलभा जी कह रहीं हैं ...
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टिप्पणियाँ

बहुत अच्‍छी पोस्‍ट .. जल्‍द ही भाभी जी के हाथों का खाना खाने आना होगा !!
shikha varshney ने कहा…
:)देर आयद दुरुस्त आयद ....भगवन सबको ये सदबुद्धी दे.
देर नही ज़ल्द लौट आया था जी
Sanjeet Tripathi ने कहा…
ise mai aapka badappan kahunga ki is aantarik prasng ko apni galti hue aapne ham sabke saamne rakhaa.....
शरद कोकास ने कहा…
सबसे बड़ी बात है स्वीकार । यह मनुष्य को महान बना देता है ।
Archana Chaoji ने कहा…
माँ की सीख-आत्मनियंत्रण,पश्चाताप और स्वीकारोक्ति।
घटना की जड़-"तुलना"
सुलभा जी के साथ बुकिंग पहले से है (बस "रिंग द बेल" की जरूरत है)

बेहतरीन पोस्ट लेखन के बधाई !

आशा है कि अपने सार्थक लेखन से,आप इसी तरह, ब्लाग जगत को समृद्ध करेंगे।

आपकी पोस्ट की चर्चा ब्लाग4वार्ता पर है-पधारें
मिले सुर मेरा तुम्हारा तो जीवन बने न्यारा
rashmi ravija ने कहा…
यही बात मैं भी कहना चाह रही थी ,अगर माता जी ने बीच में नहीं टोका होता तो,शायद वह बहस और बढ़ जाती...और वैमनस्य भी.

अभी अभी किसी की टिप्पणी के जबाब में मैने लिखा है...."एंगर मैनेजमेंट " ही इसका एकमात्र हल है..आत्मनियंत्रण सबसे बड़ा गुण है.

आपने खुल कर अपने अनुभव बाटें...आप बधाई के पात्र हैं
amar jeet ने कहा…
बेहतरीन पोस्ट बधाई हो जिन घरो में महिला घरेलु हिंसा का शिकार होती है उन घरो में सास के साथ साथ ननद की भी भूमिका होती है परन्तु आपके विषय में तो सिर्फ आप ही दोषी थे बाकि परिवार के अन्य सदस्यों ने एक अच्छी भूमिका निभाई जो की सरहानीय है
Unknown ने कहा…
dusare ko langadata huya dekh kar apne par nahi tadate.
aap ne mana aur aap ki jindagi aap kai haath main hai.Yahi aap ki galti sudhar ka inaam hai .
Udan Tashtari ने कहा…
पहुँचने वाले ही हैं जल्दी..अब तो खुला निमंत्रण भी है..न भी होता तो खाते जरुर. :)
vandana gupta ने कहा…
स्वीकारोक्ति सबसे जरूरी है और उससे भी जरूरी आत्मनियंत्रण्।
रचना. ने कहा…
इस प्रकरण मे आपके परिवार की भुमिका सराहनीय है!
सभी का भार ग़लती स्वीकारने में विलम्ब नहीं होनी चाहिये ये मुे समझ आया
रूप ने कहा…
ACHHA KIYA BHAI, SUDHAR GAYE , SARI ZINDAGI UNHI KE HAATH KA BANA KHNA JO THA , ZALDI SUDHARNE PAR BADHAI, WAISE HAI YE BADA MUSHKIL KAAM! HAI NA!
अपनी ग़लती मानने में कोई गुरेज़ नही होना चाहिए .... और आगे का सबक भी लेना चाहिए ...
वैसे मेरा मानना है कि सबसे अधिक इंसान अपनी ग़लतियों से ही सीखता है ...
राम त्यागी ने कहा…
जय हो गुरु ...बहुत संवेदनशील लेख ... दिल छू लिया !!

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