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ढाबॉ पे भट्ठियां नहीं देह सुलगती है .

यहाँ भी एक चटका लगाइए जी इक पीर सी उठती है इक हूक उभरती है मलके जूठे बरतन मुन्नी जो ठिठुरती है. अय. ताजदार देखो,ओ सिपहेसलार देखो - ढाबॉ पे भट्ठियां नहीं देह सुलगती है . कप-प्लेट खनकतें हैं सुन चाय दे रे छोटू ये आवाज बालपन पे बिजुरी सी कड़कती है मज़बूर माँ के बच्चे जूठन पे पला करते स्लम डाग की कहानी बस एक झलक ही है बारह बरस की मुन्नी नौ-दस बरस की बानो चाहत बहुत है लेकिन पढने को तरसती है क्यों हुक्मराँ सुनेगा हाकिम भी क्या करेगा इन दोनों की छैंयाँ लंबे दरख्त की है

एक विनम्र आग्रह

मैंने अंकित की मदद से यह साईट बना ली है आप से आग्रह है कि इस साइट को ब्लागर्स के उपयोग के लिए क्या क्या किया जा सकता है यहाँ मुझे बताएं । मिसफिट जो अब डोमेन पर है आप में से कोई भी मुझे ज्वाइन करे कारवां बनता जाएगा इस मामले में सोच साफ़ है "कि हम सब " जिस मिशन को लेकर ब्लॉग पर हैं क्यों न अपनी साइट पर जाएँ हिन्दी के विस्तार के लिए

पर्यावरण दिवस पर विशेष

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जननी जन्म भूमिश्च : को विनत प्रणाम के साथ गीत पुन: दे रहा हूँ ..... काम-की अधिकता के कारण ब्लॉग पर नई पोस्ट संभव नहीं थी ।शायद आपको पसंद आए ..... यदि पसंद नहीं आता है तो कृपया इस आलेख को अवश्य को पढ़ा जाए धरा से उगती उष्मा , तड़पती देहों के मेले दरकती भू ने समझाया, ज़रा अब तो सबक लो यहाँ उपभोग से ज़्यादा प्रदर्शन पे यकीं क्यों है तटों को मिटा देने का तुम्हारा आचरण क्यों है तड़पती मीन- तड़पन को अपना कल समझ लो दरकती भू ने समझाया, ज़रा अब तो सबक लो मुझे तुम माँ भी कहते निपूती भी बनाते हो मेरे पुत्रों की ह्त्या कर वहां बिल्डिंग उगाते हो मुझे माँ मत कहो या फिर वनों को उनका हक दो दरकती भू ने समझाया, ज़रा अब तो सबक लो मुझे तुमसे कोई शिकवा नहीं न कोई अदावत है तुम्हारे आचरण में पल रही ये जो बगावत है मेघ तुमसे हैं रूठे , बात इतनी सी समझ लो दरकती भू ने समझाया, ज़रा अब तो सबक लो। आज जबलपुर के सर्रापीपर में जगत मणि चतुर्वेदी जी एक आयोजन कर रहें हैं जिसके अतिथि वृक्ष होंगें यानी .... यानी क्या देखता हूँ शाम को कार्यक्रम है लौट के रपट मिलेगी